गुजरती शाम
दिसंबर एक. साल दो हज़ार सोलह. तीस दिन बाद सब नए साल से उम्मीद लगायेंगे. लगा लो भाई. शायद कुछ हो ही जाये. पर फ़िलहाल अभी कुछ भारी भरकम कहने का मन नहीं है. कभी ‘बॉन्कर्स’ आती थी, उसके स्वाद की याद आ गयी. ऐसे ही ठन्डे दिन हुआ करते थे. शामें ढलने के बाद और ठंडी होती रहती थीं. हम जेब में कभी मूंगफली, कभी गजक, कभी कोई टॉफी लिए लिए डोलते रहते. इन यादों के कोई तयशुदा साल नहीं हैं, जैसे कई सालों बाद इन दिनों के कोई साल बचे नहीं रहेंगे. कभी मोज़ों के साथ पैरों को ठण्ड से बचाते हुए मिलेंगे. गले में मफ़लर डाले. कभी स्वेटर, कभी स्वेट शर्ट में ख़ुद को समेटे हुए.
इधर कई महीनों बाद ख़ुद के लिए सपने दोबारा देखने शुरू किये हैं. सपने अधिकतर किसी को बताये नहीं जाते. मैं भी नहीं बताने वाला. चुपके से कहीं डायरी में लिख कर रख लूँगा. पर जब उस सपने से गुज़र रहा होऊँगा, उसके बाद मेरे पास कोई और सपना बचा होगा? हो सकता है, हम सब ऐसे ही छोटे-छोटे सपनों में अपनी बड़ी सी रंगीन दुनिया को बुन लेते हों. सच होने पर हम उन्हें छू भी पाते हैं और महसूस भी कर रहे होते हैं. पर पता नहीं जितना उस सपने तक पहुँचने का सफ़र याद रहता है गुज़रने का एहसास उतना ही कम यादगार क्यों होता है? शायद यह सबके साथ न होता हो. सबका अपना पर्सनल इनपुट इसपर कुछ और ही हो. खैर, जाने देते हैं.
अभी कुछ दिनों से मेरे अन्दर फ़िर इन्हीं शामों में वापस कालीबाड़ी तक अँधेरा होने पर शाम की सैर करने का मन हुआ करता है. एक शाम बड़ा मन बनाकर गया भी. पर उसकी तासीर कुछ पिछले सालों से बदली-बदली लगी. उस सप्तपर्णी की महक पूरे रास्ते कहीं नहीं मिली. जबकि पिछले साल तक उसकी गमक ठण्ड को और ठंडा करती रही थी. कुछ गंधों के साथ हम किसी शाम को जोड़ लेते हैं, शायद यह दिक्कत तभी शुरू होती होगी. जैसे अभी जो मेरे आस पास गंध है, उसमें मेहन्दी के सूख जाने के बाद उठने वाली महक है. जबकि मेरी नाक बह रही है. दिन में कितनी ही बार तो छींकें मारमार कर बुरा तो नहीं पर अच्छा हाल भी नहीं था. उसे कहाँ से अपने इर्दगिर्द महसूस कर रहा हूँ, कह नहीं सकता. पर वह नाक के बहुत करीब है. जैसे मेज़ पर ही किसी चीज़ से आ रही हो.
फ़िर एक बात मन में कहीं अन्दर तक घर कर गयी है कि पुरानी जगहें छूट रही हैं या मैं उन्हें जानबूझकर छोड़ रहा हूँ. जैसे अरुण के पिताजी आधिकारिक रूप से कल रेलवे की नौकरी से रिटायर हुए. वह जगह इस तारीख़ से काफ़ी पहले मेरे अन्दर से छूटने लगी. हम पता नहीं कितने दिन हुए चाँदनी चौक की गलियों में घूमें नहीं हैं. आशीष उमेश के साथ घण्टों बेवजह बातें हुए कितना वक्त बीत गया. हम चारों लाल किले की दिवार को देखते रहते और हरबार इसी बात पर पहुँच जाते कि यह भी क्या चीज़ बनायी है. दीवार हो तो ऐसी. वहीं बैठे-बैठे हम लोगों का उन अनगिन रंग बिरंगे कपड़ों में चलते हुए देखने का ख़याल भी कितने दिन हुए अन्दर से नहीं गुज़रा.
दोस्त जब साथ होते हैं, तब उन जगहों के मायने कुछ और होते हैं. उनके बिना जगहें सिर्फ़ जगहें रह जाती हैं. हमारी तरह उन जगहों के मानी खोने लगते हैं. मिलेंगे तभी, जब दोस्त वापस साथ हों. फ़िर जगह कोई भी हो.
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