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फ़रवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

खप जाना

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एक ही तो ज़िन्दगी है, कहाँ रहकर बितानी है, यह सबसे निर्मम प्रश्न की तरह हम कभी अपने सामने आने नहीं देते. आएगा तब हम परेशान होंगे, कर कुछ नहीं पायेंगे. यह जगह कोई भी हो सकती है. यह कोई नयी बात नहीं है. पुरानी ही बात का तफसरा है. हम अभी यहाँ से चल पड़ेंगे. जैसे-जैसे यह जगह छूटती जायेगी, मन पर इसका असर कम होने लगेगा. कम असल में उनकी स्मृतियाँ होती हैं. उसका ताप कम होता जाता है. नए दिनों में वह पुराने दिन दबते जाते हैं. जैसे सरकारी दफ़्तरों में फ़ाइलों के नीचे मेज़ बाद जाती होगी. वहाँ धूल भी है. सीलन की गंध भी. रौशनी का नाम नहीं है. इतना होने पर भी वहाँ रहने का एहसास सबसे ज़्यादा है. सब अन्दर से कितने भर गए हैं. कोई है, जो उनकी ज़िन्दगी में शामिल होने आया है. इसी बहाने वह उन दिनों को कुछ और उत्साह से जियेंगे. सबकी आँखें चमकने लगती हैं. सब साथ बैठ जाने को कहते हैं. कहते कुछ नहीं हैं. बस बैठे रहते हैं. मैं भी कुछ नहीं कहता. बस पास बैठा सब देखता रहता हूँ. उनके उन पलों में से कुछ पल मेरी आँखों के सामने बीतने लगते हैं.सब थम सा जाता है. शायद वह चाहते भी यही होंगे. कोई उनके बाहर हो, जो उनके

डायरी से..

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मौसम हमेशा बदलता रहता है. आज लगा, इतने दिनों में सबसे ज्यादा गरम रहा होगा. सबने अपने गरम कपड़े बक्सों में रखने का मन बना लिया होगा. रातें ठीक हैं. ठंडी हैं. दिन थोड़े बड़े होने लगे हैं. छह बजे के बाद भी उजाला रहने लगा है. मैं इन परिवर्तनों को कहने वाला कोई ठीक व्यक्ति नहीं हूँ. फिर भी लिखने की आदत है, कहाँ जायेगी? यहीं है. कभी-कभी तो मन करता है, भाग जाओ. कहाँ जाना है, नहीं पता. पर ऊब कर कहीं तो जाया ही जाता होगा. देखता हूँ, बाबा अभी भी पूरा दिन कुर्सी पर बैठे रहते हैं. कल थोड़ा पेट खराब लगा तो रात का खाना नहीं खाया. छोटे भाई ने एक वृद्ध व्यक्ति को देखकर नमस्ते कहा. बाद में बताया, इनसे हमेशा जय रामजी की कर लेनी चाहिए. काने हैं न. एक आँख से दिखाई देता है. पता नहीं हम कौन से काम पर जा रहे हों और काम बिगड़ जाए. यह अतिरिक्त सावधानी उसे ठीक लगती है. कईयों को लगती होगी. मुझे कल एक ठेलिया को ढकेलते हुए वापस लाना था. शाम हो चुकी थी. सात बज गए होंगे, सड़क पर गाड़ियाँ बढ़ गयीं थी और उसमें ब्रेक भी नहीं थे. मैं वहीं बड़ी देर तक सोचता रहा कैसे उसे इतनी दूर ले जाऊंगा? यह 'सड़क' जिसे सब च

अभिनय

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हम हमेशा किसी न किसी कहानी में होते हैं. कोई होता है, जिसके मुताबिक़ हम अपने अभिनय को करने की मंशा से वह सब काम किये जाते हैं, जो हमें करने को कहे जाते हैं. यह पठकथा हम भी लिख सकते हैं और किसी दूसरे की कथा में शामिल होने की गरज से भी कर सकते हैं. अक्सर हम शामिल होना चाहते नहीं हैं, पर हम अकेले में कोई कहानी कह नहीं सकते इसलिए सब कुछ गड्ड-मड्ड होता रहता है. कब, कौन, किसकी कथा में अपनी उपकथाओं की संभावनाओं को टटोल रहा हो, कहा नहीं जा सकता. यह कोई जोर ज़बरदस्ती का हिसाब किताब नहीं है. अगर हम अपनी असमर्थता जताएंगे, तब हम कैसे अभिनय करेंगे, कहा नहीं जा सकता.  वह भी इसी उधेड़बुन में ऐसी कहानी का शांत सा चरित्र होना चाह रहा था, जहाँ उसकी मर्ज़ी चलती हो. चलना वह उन पेड़ों के नीचे भी चाहता था, जहाँ छाया थी. थोड़ी ओस की बूँदें थीं. वहीं लोग हग भी गए थे. उसकी एक अजीब सी गंध भी रही होगी. जुखाम होना, तभी वह अपने लिए सबसे अच्छी नेमत मानता होगा. किसी ऐसी जगह का आकर्षण कौन छोड़ सकता है, जहाँ सरसों के खेत की मेढ़ हो और उन पीले-पीले फूलों पर भिनभिनाती हुई सैकड़ों मक्खियों की आवाज़ अपनी तरफ खींच लेती हों

यहाँ होना

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मेरे दिमाग में कुछ ज्यादा चीजें नहीं चल रही हैं. चलने लगेंगी तो तो शायद परेशान हो जाउं. जहाँ अभी हूँ, वहाँ ख़ुद को मौजूद रखने की ज़द्दोजहद में कई सारी चीजों को यहाँ सामने नहीं आने देना चाहता. शायद वह यहाँ दिख भी नहीं रही होंगी. हर जगह की अपनी तासीर होती होगी. उनके यहाँ आ जाने से कुछ बदलने वाला नहीं है. पता नहीं क्यों ख़ुद को ऐसे व्यक्ति के रूप देखने लगा हूँ जो किसी से कुछ ख़ास कहता नहीं है. ख़ुश होता हूँ, तब भी सामने जताता नहीं हूँ. नाराज़गी किसी पर ज़ाहिर करने का कोई मतलब नहीं. शादी के बाद वह सिर्फ़ एक पर ज़ाहिर की जा सकती है. वहीं कभी-कभी होती भी होगी.  इस वक़्त. बिलकुल इस वक़्त दो बजने में चार मिनट बचे हैं. फ़ोन रोमिंग पर है. एयरटेल वाले मिनट पर सवा एक रुपये काट रहे हैं. दिल्ली से ही सत्तासी रुपये का रोमिंग पैक डलवा लिया था. एक सौ अस्सी दिन बाहर बिना किसी पैसा कटे, फोन कॉल उठा सकता हूँ. वोडाफ़ोन वाले यह सुविधा बिना कोई पैसा अदा किये दे रहे हैं. अभी पचास एमबी थ्रीजी डेटा भी दिया था. उनकी सर्विस यहाँ ठीक है. एयरटेल पिछड़ गया. आईडिया से मिलने से पहले वह ऐसा कर पा रहे हैं, जब मिल जायेंगे, तब

उनका हिस्सा

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हम जब ख़ुद को बहुत पढ़ी लिखी जगह पर स्थित करते हैं, तब ख़ुद में किन तरहों के भावों को गिरा हुआ पाते हैं? हमें अपने चारों तरफ अपने जैसे लोग दिखाई देते होंगे. प्राथमिक स्तर पर हमारी बातों में एक सहमति होती होगी. इसके सामानांतर कल्पना कीजिये, लगभग उसी समय हम ख़ुद को उस जगह देखते हैं, जहाँ पढना लिखना मूल्य की तरह अपनी अपनी जड़ें नहीं बना पाया है. इसे उस समाज के बचे रहेने की तरह भी देखा जा सकता है. वह पढ़ाई को बहुत ज़रूरी चीज़ नहीं मानते. जितनी समझ ज़िन्दगी जीने के लिए काफी है, उतनी वह अनौपचारिक कहीं जाने वाली संस्थाओं से प्राप्त कर लेते हैं. वहाँ हमें कैसा लगेगा? हम तो एकदम से उनके दायरे में कहीं बाहर की दुनिया से आये हुए व्यक्ति होंगे. इन दिनों ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ. कभी न कभी हम सबको ऐसा महसूस करना चाहिए. ठीक रहता है. यहाँ शिक्षा की संस्थाएं अभी जीवन का महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है. सरकारें प्रयास कर रही हैं. वर्दी, वजीफे, खाना सब दे रही हैं, फिर भी जो पढ़ा रहे हैं, उनकी आस्था अगर है भी तो सरकारी व्यवस्थाओं पर बिलकुल भी नहीं है. वह निजी स्कूलों की तरफ़ झुके हुए हैं. फिर यह वह लोग हैं, जिनके प

आज नवा है

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सुबह ही चाचा ने कह दिया है, शाम यहीं खाना खाना है. कल की तरह वहीं नहीं रुक जाना. हियाँ उरद, भात, बरिया बनी. यह लोक में व्याप्त अपनी तरह का पर्व होगा, जो अभी भी यहाँ पंचांग में तिथि देखकर मना लिया जाता है. शहर में किसे पड़ी है, ऐसी तारीखें याद रखने की. यह यहाँ की देशज परंपरा होगी. नया अनाज आया होगा. उसे पहली बार घर की रसोई में बनाया जायेगा. चाचा जिस तरह से रोक रहे हैं, उसका कुछ और अर्थ भी होगा. शायद कल सीमा कह रही थी, इससे बरकत आती है. बरकत मलतब समृद्धि. धन-धान्य से घर भर जाने की कामना जैसे. कौन होगा, जो समृद्ध नहीं हो जाना चाहता होगा. हम जिन विपन्न समाजों में ख़ुद को पाते हैं, वहाँ धन सिर्फ़ पैसा नहीं है. यह प्रकृति हमें जिस तरह हर मौसम में फसलें देती है, उसी अनुपात में यह उसे याद करने का स्मृति दिवस है. एक दिन उन दिनों को याद करना जब उसका इंतज़ार किया था. अभी कल ही ख़याल आया. यह ठण्ड हमारे लिए नहीं सरसों और गेहूँ के लिए है. हमें इसके मुताबिक ख़ुद को ढालना होगा. आज के समय को देख कर लगता नहीं, हम इस तरह झुकने के अभ्यस्त समाज हैं. हम उन इच्छाओं से भर गए हैं, जो हमारी प्रकृति के अनुरूप

जैसे कहानियाँ

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ठण्ड है. खाना खाने के बाद नींद सी आने लगी है. उम्र यहाँ आकर लगता है जैसे हर पड़ाव पर थम सी गयी है. लगता है, किसी में कहीं पहुँचने की कोई जल्दबाजी नहीं होगी. आहिस्ते-आहिस्ते गेहूँ के पौधों को बड़ा होते देखने वाले लोगों में बहुत धीरज होगा. यह इंतज़ार को कोई ख़राब चीज़ नहीं मानते होंगे. सुबह बारिश हो गयी तो सब सोचने लगे, मौसम ठीक नहीं है. पर अभी बाहर निकला तो ठीक-ठाक धूप है. मैं यहाँ शहर कही जाने वाली संरचना से बीस किलोमीटर दूर सड़क किनारे एक टीन के नीचे पड़े तखत पर बैठा हुआ हूँ. मैं इससे ज्यादा ख़ुद को कहीं स्थित नहीं करना चाहता. ज्यादा हुआ तो एक तस्वीर खींच कर लगा दूँगा. इन पांच दिनों में मैंने कुछ ख़ास काम नहीं किया है. बस आस पास की आवाजों के वक़्त को अपने मन में दर्ज करता जा रहा हूँ. रात ग्यारह बजे इस चक्की के चलने की आवाज़ नहीं आती. घड़ी उस सन्नाटे को चीरती हुई कानों में घुस जाती है. कभी कोई खाली ट्रॉली खड़बड़ाते हुए गुज़र जाती है. कुत्ते हमेशा सतर्क रहते हैं. मेमनों की आवाज़ कभी-कभी सुन लेता हूँ. यहाँ गाय नहीं है. होगी तो सड़क से दूर कहीं किसी ने बांध रखी होगी. ऐसी फ़िज़ूल लगती बातों से यहाँ

एक कुत्ते की मौत

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निजामुद्दीन, दिल्ली से चली ट्रेन गोंडा तीन घंटे देरी से पहुँची. देर कोहरे की वजह से हुई. लखनऊ से धीमे-धीमे चलती रही और साढ़े दस बजे प्लेटफॉर्म नंबर दो पर पहुँच गयी. यहाँ से आगे का सफ़र बस से किया जाना तय हुआ. जो वैकल्पिक साधन हो सकता था, वह अभी साल, डेढ़ साल स्थगन के दौर में है. छोटी लाइन से बड़ी लाइन हो रही है इसलिए गोंडा से बहराइच तक रेलगाड़ी नहीं चल रही है. रेल वाले सब यात्री अब बस से ही जाते होंगे. गोंडा जंक्शन पर उसी छोटी लाइन पर चलने वाले एक इंजन को उन पुराने दिनों की स्मृति में खड़ा कर दिया गया है. उसे देखो और अपने अतीत में डूब जाओ. नहीं डूब पाए तो कोयले के धुंए में आँख लाल की जा सकती हैं. अब जिस सड़क से बहराइच तक जाना है, वह सड़क इंसानों ने बनायी है. उस पर किसी और जानवर की कोई ज़रूरत नहीं है. वह ख़ुद किसी जानवर से कम नहीं है. यह पहले शब्द हैं, जो यहाँ से लिख रहा हूँ. यह सड़क गोंडा से बहराइच की तरफ़ आ रही है. जिस दिशा में जा रही है, वापस भी उसी दिशा से आ रही है. इसे देखकर लगता है, जो इसके आस-पास बसे हुए हैं या जिनके घर इस सड़क के किनारे हैं, वह भी इन सड़कों से घबराते होंगे. घबराना बता