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जून, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ख़राब पोस्ट का रफ़ ड्राफ़्ट

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वक़्त बस गुज़र रहा है. इसमें हमारी कोई भूमिका नहीं है. अगर कोई भूमिका खोजना चाहे, तब वह सिर्फ़ इतना ही खोज पायेगा कि इतिहास के किसी क्षण में किसी भूगोलविद ने इस समय की संकल्पना को रचा होगा. वह खगोलविद् भी कहला सकता है. यह विषयों के विकासक्रम में ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात है. चूँकि हम न तो भूगोल कभी पढ़े हैं न खगोलविद्या से हमारा को लेना देना है इसलिए हम ज़रा इन सबसे बचकर रहते हैं. फ़िर भी महिना भर हुआ फ़िर से कलाई घड़ी पहनने की आदत डाल ली है. घड़ी पहनने से कुछ नहीं होता. वक़्त ऐसे ही बीतता रहता है. जैसे ठहरी हुई नदी का पानी.  इन सभी बातों में एक अजीब क़िस्म का भटकाव है. जो दिख नहीं रहा. देखेगा भी नहीं. क्योंकि वह सतह पर नहीं, मेरे मन के भीतर है. कल पता नहीं वह क्या था कि आलोक और मेरे, हम दोनों अपने-अपने अचेतन में किस तरह एक-दूसरे का कोई अलग ही नाम ले रहे थे. पहले उससे हुआ, फ़िर मुझसे. इसे समझा नहीं जा सकता. हमें इसे समझने के लिए कोई दमदार तर्क ज़रूर चाहिए. ऐसा क्यों हुआ होगा? इसका एक जवाब यह हो सकता है कि हम दोनों अपनी नींद को वक़्त से पहले छोड़कर बिस्तर से चले आये हों. वह तो खैर रात

दिल, किस्सा, कलाई

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यह इस शहर के मौसम में ही संभव हो सकता था कि घण्टों से यह पंखा चलता रहे और हवा का एक झोंका भी मुझे न लगे. मुझे क्या, जो-जो इस गरमी उमस और बारिश के इंतज़ार में इन छत पंखों के नीचे बैठे हैं, वह सब इसी मनोदशा से गुज़र रहे होंगे. बीती रात की बात   को इसी का विस्तार समझा जाना चाहिए. दिमाग कैसे ठिकाने पर रह सकता है? चालीस डिग्री की इस भट्ठी को हमने घर का नाम दे दिया है. कुछ इसे दिल्ली के नाम से जानते समझते रहे हैं. कोई मच्छर है हरामी साला काटकर अभी चला गया. बिलबिलाने के पहले की सारी हरकतें वह पहले भी कर चुका है. एक सपने से लौट आने के बाद इन पिघलती शामों में कहीं कोई एक पेड़ की छाव भी मयस्सर नहीं होती. नौकरी एक ठौर होती. उसे सबकी नज़र लग गयी. नज़र दूर से उसे घूर रही थी. जिसे घूर लो वह कभी पास नहीं आती.  वह भी कहीं अरझ गयी.  अरझ असल में मैं गया हूँ. इन रवायतों में. चलन जैसा है उसमें. ख़ुद को साबित किये बिना कोई नहीं देखता, कौन हैं हम? हमारा भी मन होता है. कभी-कभी मन नहीं होता है. तब दिल दुखता है. कोई नहीं सुनता तब इन धड़कनों की मद्धम लय. कोई लय होती भी नहीं हैं कहीं.  न दिन में न रात में.

मन करता है, मर जाऊं

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कभी कहीं अपनी ही लिखी पंक्ति दोहराने लगा हूँ इधर. मन नहीं होता अब. अब ठहरकर कुछ देर देखना है. थोड़ा आराम करना है. मेरे आसपास जितने भी दोस्त, संगी-साथी हैं, वह कभी जान भी नहीं पायेंगे, मेरे अन्दर क्या चल रहा है? यह कोई अस्वाभाविक इच्छा नहीं है. हम सब कभी-न-कभी ऐसा सोचते होंगे. पलायन करने का यह बेहतर और उन्नत तरीका है. एक दिन मेरी इस इच्छा को कोई वैज्ञानिक खोज का नाम दे देगा और हम सब अचेतन में जाने के लिए आतुर हो उठेंगे. कोर्ट इसे इच्छा मृत्यु का संशोधित संस्करण कहकर ऐसा करने की अनुमति दे दिया करेंगे. पर यह आगे आने वाले कई साल बाद का परिवर्तन है. तब तक मैं क्या करूँ? पता नहीं. बस छटपटाता रहूँ? ज़िन्दगी के इस उबड़खाबड़ में अपनी कोई मंजिल दिख नहीं रही. सब धुँधला है. कोहरे की तरह. ऐसा लिखना बिलकुल भी नहीं चाहता, पर क्या करूँ? जब चीज़ें संभाले नहीं सँभलती, तब-तब लिख कर उसे जाने देता हूँ. कहीं जादा देर अपने अन्दर रख लिया तो इसका ज़हर मेरे सारे अस्तित्व में फ़ैल जाएगा. मैं तब तक मर जाना चाहता हूँ, जब तक मेरी दुनिया मेरे मन की न हो जाये.मेरे मन की. मेरे मन की परछाई जैसे. पता नहीं तुम्हारी दु

हम सपने से वापस लौट आये हैं

बिजली और गाँव

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नींद में था. अभी भी उबासी आ रही है. लेटने से पहले बस यही सोच रहा था कि हम ही लोग तो थे, जो यहाँ आते थे, तब ‘लाइट-लाइट’ चिल्लाते थे. आज जब यही लाइट यहाँ गाँव में रहने वाले सभी लोगों को हमारे मुताबिक नहीं ढाल रही, तब परेशानी हो रही है. परेशानी लाइट की प्रकृति में नहीं है, वह तो मूलभूत रूप से वैज्ञानिक उपकरणों को चलाये रखने वाली उर्जा है. परेशानी है, इसके पूँजीवादी चरित्र में. यह बिजली इन सबको बड़े महीन तरीके से उपभोक्ता में तब्दील कर रही है. इसे सीधे-सीधे कहना बहुत कुछ न कहने जैसा है. हमें यहाँ पलभर से कुछ जादा ही ठहरना होगा और समझना होगा कि बिजली के इनकी ज़िन्दगी में आने पर इनके कौन-कौन से कामों में गुणात्मक परिवर्तन आया होगा? हमें उसकी गंभीरता से सूची बनानी होगी. पहले कौन से काम बिलकुल भी नहीं हो पा रहे थे या उनमें जो ‘अमानवीयता’ के गुण थे, वह बिजली के आने पर बिलकुल नेपथ्य में चले गए. दूसरी तरफ़ उन कामों, ज़रूरतों, अनावश्यक इच्छाओं में वृद्धि हुई, जिससे इनके जीवन से सहजता चली गयी. यहाँ ख़ुद से महत्वपूर्ण सवाल यह पूछा जा सकता है कि ऐसी सूची का निर्माण हम गाँव के सन्दर्भ में ही क्

इस बार कोई तस्वीर भी नहीं खींचीं

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कहते हैं, जब वक़्त गहराता है, तब बात कुछ और होती है. दोस्ती में कब हम इस कदर दोस्त बन जाएँ कि दिल्ली आने पर एक बार भी वक़्त न निकाल पायें, तब इसे कैसे समझना चाहिए यही सोच रहा हूँ? सोच रहा हूँ और अभी भी इसी प्रक्रिया में लगा हुआ हूँ इसीलिए राकेश के बुधवार वापस छिंदवाड़ा चले जाने के तीन दिन बाद कह रहा हूँ. पता नहीं इस बार को किस तरह लिखना चाहिए? यह संबंधों में शायद शिथिलता है या कुछ और? वैसे इसे समझने के लिए कुछ ख़ास औजारों की ज़रूरत नहीं है. हम जान जाते हैं कि दिल्ली की दुपहरों का बढ़ता तापमान हमारे मिलने जुलने में एक वायवीय दूरी का सृजन करता है लेकिन मानसिक दूरी नहीं है, ऐसा दिखाने के प्रयास भी साथ-साथ होते रहते हैं. इस बार यही कोशिशें नहीं हुईं. सिर्फ़ अपनी तस्वीर की जगह काले धब्बे लगाकर कुछ दुःख के सागर की अथाह गहराईयों को नापते हुए वास्को डिगामा हो गए, किन्हीं को दक्षिणपंथी होने से कोई परहेज़ नहीं रहा. यह सीधे-सीधे उन तमाम तरह के आरोपों की स्थापना करने जैसा है. ऐसा बहुत पहले कर लिया जाना चाहिए था. वह अपने खोल में इस कदर सिमट गया है कि उसे पता भी नहीं चल रहा कि बाहर की दुनिया उसक

गाँव का बदलना

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इस बार दो साल बाद आने पर भी कल से न जाने अपने मन के अंदर कितनी बार और मन से कितनी बार बाहर दोहरा चुका हूँ कि इस बार बारह दिन जो लेकर आये हैं, लग रहा है कितने जादा दिन हैं. यह भी कहता फ़िर रहा हूँ कि मन करता है जैसे कल का ही टिकट होता तो कितना अच्छा होता. पता नहीं यह क्या है? पर यह ऐसा ही है. ऐसा नहीं है, गरमी इस बार कुछ अलग है या इस गरमी से डर लगता है. अभी भी जब इधर पंखे से दूर इस मेज़ पर लिखने बैठा हूँ तो पसीने से तरबतर हूँ और कोई ख़ास फ़रक नहीं पड़ रहा. पर फ़िर भी यह जताना कि दो साल पर आने के बावजूद कुछ चीज़ें हैं जो छूटी हुई लग रही हैं. अजीब नहीं है. लग रहा है, हमारे मन में जो गाँव था, उसकी दरकती हुई ज़मीन कुछ रास नहीं आ रही. सतह पर तो नहीं पर कहीं अन्दर उसकी चोट गहरी है. चोट ऐसी जो किसी को नहीं दिख रही. दर्द की बात तो जाने दो. निम्बू पानी को यह लोग नहीं बचा पाए. घरों में फ्रिज़ का आना ख़ुद को कम ग्रामीण बनाता होगा पर हम मूल्यों से भी बदल रहे हैं. कल जैसे ही मास्टर जी ठंडा खरीद कर लाये और उनका लाना उन्हें इतना सहज लग रहा था उन्हें कि बस उसका कोई जवाब नहीं. गाँव अब पुराने वाले गाँव न