मान लेना

कब कोई किसी की बात मानता होगा? इसे आज सवाल की तरह ही पूछा जाना चहिये. यह समय अपने भीतर इस मान लेने की कई कथाएं समाये हुए है. कोई कहता होगा कि उसकी बात मानने लायक है. उस मानी जाने वाली बात में यह मूल्य उसके भीतर से आये, तब उसे नैसर्गिक कहा जायेगा. जब बाहर से बताया जाये और वह बात ख़ुद अपनी स्वीकार्यता प्राप्त न कर पाए, तब हमें सोचना चाहिए, कोई क्यों उन न मानी जा रही बातों का प्रवक्ता बन बैठा है? अगर वह हम सबकी सहमति से निर्णय करने वाला है, तब उसे निर्णय करने से पहले पूछना चाहिए. अगर वह बाद में पूछ कर उस लिए गए निर्णय की वैधता को प्राप्त करना चाहता है, तब मुहावरों में हमने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं. अपनी भाषिक कुशलता का प्रयोग करते हुए वह सारे विशेषण, सर्वनाम और विकारी पद रेखांकित कीजिये, जिन्हें किसी व्याकरण के पुरोधा ने हमें नहीं बताया है. बल्कि हमने उसे गढ़ा है. और ध्यान से देखिये, वह अपनी बात मनवाने के लिए किन प्रतीकों, रूपकों, बिम्बों का इस्तेमाल कर रहा है? कहीं हमने चुप रहकर उसे इन सबका एकाधिकार तो नहीं दे दिया है. अगर हम आज चुप हैं, अपनी असहमति किसी तरीके से नहीं जता रहे हैं, तब हम उन भेड़ों की तरह है जो दूसरों के लिए अपनी पीठ पर ऊन उगा रही हैं. 

यह किसी कविता की पंक्ति हैं. कवि का नाम याद नहीं आ रहा. लेकिन यही क्षण है, जब हम सबको मिलकर खरगोश हो जाना होगा. और उस दिन का इंतज़ार करना होगा, जब एक दिन शेर खरगोश की बात मान लेगा.

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