ये मौसम

हमने इन मौसमों के हिसाब से ख़ुद को ढालने की कोशिश की होगी. अगर कोशिश न की होती तब हम आज तक जिन्दा कैसे हैं, कोई नहीं जान पाता. बचे रहना क्यों ज़रूरी है? शायद इसे पूछना ज़रूरी नहीं है. हम ऐसे ही इन ठन्डे दिनों में होते गए होंगे. यह सर्दियाँ ही हैं जो हमें समेट देती हैं. हम कछुए बने रजाई में बैठे हैं. रजाई कछुआ बनने के लिए ज़रूरी नहीं है. जिनके पास रजाई नहीं वह भी इसी आकार में ख़ुद को ढाल लेते हैं. यह सिकुड़ जाना हमने एक दिन या एक सप्ताह में नहीं सीखा होगा. यह हमारे साझे ज्ञान का हिस्सा रहा होगा, जिसमें हमने ख़ुद को इस तरह करते जाने पर अपनी सहमति दी होगी. यह हमारी साझी वास्तविकता लगते हुए भी हमारी निजी समझ है. इसमें हमने लगातार चीज़े जोड़ी होंगी और ग़ैर ज़रूरी सामान को खिड़की से बाहर फैंक दिया होगा. 

इसी मौसम में कोई होगा जो अपनी डायरी में कमरे के एकांत को लिखता हुआ चुपचाप किसी खो गयी धुन को सुन रहा होगा. उसने भी सपनों में अपने सपने बुने होंगे. पर जैसे ही वह खिड़की के बाहर झाँकता उसे कोहरे की चादर से ढके कश्मीर में अपनी मंजिलें खोती हुई मालुम पड़ती. वह रोने को होता. पर आँसू जमकर बर्फ़ हो गए होंगे. बर्फ़ असल में पत्थर ही होती है. आँसू नहीं होती.

ऊपर लिखी इन बनावटी भावविहीन पंक्तियों को लिखकर पता नहीं कैसा अजीब सा लग रहा है. लग रहा है जैसे कुछ भी अन्दर से निकलने को राजी नहीं है. मैं ऐसा कब से हो गया? अनमने यह कौन-सी बातें कहने लगा? जिनका मुझसे कोई लेना देना नहीं, वह कही भी नहीं जानी चाहिए, ऐसा नहीं है. फ़िर भी उन्हें कहीं भीतर से बाहर आने के लिए फुरसत की दरकार होगी. यह नकलीपन ऊपर से चिपक गयी परत जैसा है. इस मौसम की इन शामों को चाह कर भी न लिख पाने की कोई वजह अभी तक नज़र नहीं आ रही इसलिए थोड़ा रुक जाते हैं. देखते हैं आसपास वह कौन सी बातें हैं जो उन्हें आने नहीं दे रही हैं. ऐसा पहले कभी हुआ, उसे भी याद करने की कोशिशों में देखना होगा, लिखना ऐसे कब बन जाता है. यह अनायास ही है कि लिखने में मौसम ख़ुद को स्थित कर ले.

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