सहूलियत

जो हमारे लिए आज सहूलियत है, वह कब हमारे लिए सहूलियत नहीं रहेगी कोई कह नहीं सकता. हम जिसे सहूलियत कह रहे हैं, उसे भी जाँचा जाना चाहिए. हम किन्हीं औजारों को सहूलियत कह रहे हैं या विचारों तक पहुँच जाने की लड़ाई को? या यह औज़ार ही हमारे लिए सहूलियत पैदा करते हैं? इसे समझना कतई गणित के सूत्रों जितना कठिन नहीं रहा है. हम बर्बर से सभ्य होने के नाटक में अभी तुरंत इसे पलक झपकते समझ सकते हैं. कुछ को तो आज इक्कीसवीं सदी में औज़ार शब्द से ही कोफ़्त होती होगी. हमें नहीं है. यह भाषा भी एक मारक औज़ार ही है. इसी में हमने अपने इतिहास को बुना है. उसकी अतीत हो चुकी घटनाओं को पुनर्सृजित किया है. इसी ऐतिहासिक कालक्रम में हम उन विचारों को भी सहेजते हुए चलते रहे, जिनसे इस दुनिया में कई चीज़ों को तय किया जाना बाकी था. आज तक हम इन्हीं से चीज़ों को समझने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि यह अकेले कुछ कर पाए हैं. इन्हें इनसे और बर्बर औजारों की ज़रूरत बराबर पड़ती रहती है. समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं. एक देश है, जो समझता है हमारे यहाँ की शासन प्रणाली दुनिया की सबसे बेहतरीन प्रणाली है. सभी देशों को इसे अपना लेना चाहिए.

यह समझना सिर्फ़ शासन प्रणाली का हिस्सा नहीं, उसके भीतर उत्पादन प्रणाली, व्यवहार, मूल्य, इतिहास बोध से लेकर सांस्कृतिक विमर्श आदि तक दख़ल चाहने की इच्छा है. हम सब भी कहीं न कहीं इन विचारों से ग्रस्त रहते हुए इन्हीं के बीच अपने रोज़ाना को रचते हैं. कोई हमसे बेहतर कैसे रह सकता है, इस समय ने इस भाव को प्रतिस्पर्धा में तब्दील कर दिया है. वह उसे अनपढ़ कहने की ताकत रखता है. वह उसे अनपढ़ कह भी देता है, जबकि वह जिसे अनपढ़ कह रहा है, उस अनपढ़ की भाषा को वह अनपढ़ कहने वाला समानुपात में बिलकुल भी नहीं जानता. पर अनपढ़ किसी एक को ही कहा जा रहा है, यह विभेदीकरण दुनिया की पूरी तस्वीर को बदल कर रख देता है.

जिसे हम साधन कह रहे हैं और जिसकी सहायता से हम किसी दूसरे पर वरीयता प्राप्त कर रहे हैं यदि वह कुछ ही लोगों के पास है, तब हमें समझना होगा यह एक विसंगतियों से भरी दुनिया का एक छोटा सा हिस्सा भर है. साथ ही हम भी उन विसंगतियों के उतने ही उत्पादक हैं, जितने कि हमें दूसरे नज़र आते हैं. होता बस यह है कि दूसरों को दोष देने के उपक्रम में हम ख़ुद को इतने व्यस्त कर लेते हैं कि नज़र कभी ख़ुद पर पड़ती ही नहीं है. और कुछ नहीं.

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