कोटला तक..

मैं बिन घड़ी, बिन मोबाइल स्टैंड पर खड़ा रहा. भीड़ मेरे इर्दगिर्द पैदल चलती रही. कुछ भीड़ से निकलकर बसों में खुद को भरते हुए सीलमपुर, कश्मीरी गेट की तरफ़ ले जाते रहे. कुछ वहीं भीड़ में अटके रहे. मैं भी उस भीड़ का एक हिस्सा हूँ और ख़ुद को भी इस तरह देख सकता हूँ. पर नहीं देख रहा. यह मेरा नहीं उन सबका काम है, जो मुझे वहाँ खड़ा देख रहे हैं. जैसे उनके बारे में सोच रहा हूँ, वह भी मेरे बारे में उन ख्यालों से भर गए होंगे. यहाँ हम सब मिलकर उस भीड़ का हिस्सा थे, जो सड़क पर बिखर गयी थी. यह सड़क एक शहर का हिस्सा है और इस तरह यह भीड़, अपने आप में शहर का प्रतिनिधित्व कर रही है.

भीड़ में अगर हम अपनी आँखों से देखे हुए चेहरे नहीं भूलते, तब यह बहुत मुश्किल काम होता कि आप ऐसे लोगों से घिरे हुए हैं, जिनमें से अधिकाँश के चेहरे आपको याद हैं और आप जिसका इंतज़ार कर रहे हैं, वह चेहरा अभी तक दिख नहीं रहा है. भीड़ तभी तक भीड़ है, जबतक हम उन सबसे अनजान हैं. अगर चेहरे से जान रहे होते, तब कोई-न-कोई किसी-न-किसी से बात कर रहा होता और हम उसे नहीं देख पाते, जिसके इंतज़ार में वहाँ पंद्रह मिनट से खड़े हैं. खैर,इसी भीड़ में बराबर आगे पीछे नज़रे घुमाता रहा तभी पीछे की तरफ़ से देवेश जाता हुआ दिखा. चश्मा पहने हुए कभी जिसे न देखा हो, उसे पहचाना और भी मुश्किल काम है. पर आख़िरकार वह मिल गया.

हमने अब इसी भीड़ के साथ-साथ चलना शुरू किया. जामा मस्जिद की तरफ़ नहीं, दिल्ली गेट की तरफ़. यह काम थोड़ा और मुश्किल होता अगर हम इतने लोगों के साथ चलते हुए पहले चाँदनी चौक पहुँचते, फ़िर ग़ालिब की हवेली तक हम चलते रहते. मुश्किल तो दिल्ली गेट की तरफ़ की मंजिल भी थी पर हमने फ़िरोज़शाह कोटला जाने का मन बनाया. वहाँ कुछ देर आराम से बैठा तो जा सकेगा. बातें कर सकेंगे. थोड़ी फुरसत तो होगी.

हम जिन खण्डहरों की तरफ़ हम बढ़ रहे थे, वहीं कभी फ़िरोज़शाह तुगलक़ (शासन काल 1351-88) ने अपना फ़िरोज़ाबाद बसाया था. तारीख़ में यह पाँचवी दिल्ली थी. शाजहनाबाद से निकलते हुए तुगलक के शहर. हमें इसमें कुछ भी अजीब नहीं लग रहा था. लेकिन तथ्यात्मक रूप से हम एक इतिहास से निकलकर दूसरे इतिहास में दाख़िल होने वाले थे. हमारा एक पैर अतीत और वर्तमान दोनों में एक साथ मौज़ूद था. दूसरा पैर तेज़ी के साथ एक तीसरे अतीत में जाने के लिए बढ़ रहा था. हम एक लोहे के दरवाज़े से शहर में दाख़िल होने वाले थे.

मेरी जेब के सारे रुपये उन किताब वालों ने ले लिए थे, जिन्होंने बदले में मेरी पसंद की किताबें, अपनी दुकानों से अपने साथ ले जाने दी थीं. पंद्रह रुपये की दो टिकट देवेश ने खरीदी. हमने टिकट दिखाई और हम उन पत्थरों के बीच में थे. चलते-चलते हम दोनों ही थक चुके थे. कहीं बैठना चाह रहे थे. धूप में नहीं. पेड़ की छाव में. एक तरफ़ बड़ा सा पेड़ दिखा, उसकी उतनी ही बड़ी छाया में उसके नीचे बिछी घास पर बैठ गए. बैठकर देखने लग गए शहर की परछाई.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बाबा

खिड़की का छज्जा

उदास शाम का लड़का

बेतरतीब

हिंदी छापेखाने की दुनिया

आबू रोड, 2007

मोहन राकेश की डायरी