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गाँव से: वाया फेसबुक

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1. यहाँ गाँव में आए हुए तीन दिन हो गए हैं। हमारी स्मृतियों में यह बिलकुल भी नहीं बदला है बल्कि उनमें एक चित्र रुककर थम गया है। आज जब हम उससे मिलान करते हैं, तब खीज जाते हैं। बिजली,टेलीविजन, सड़क, रेलगाड़ी सब मिलकर इस जगह में सयास-अनायास जो भी कर रहे हैं, उनमें यह क्या होकर रहेगा; दिखाई नहीं देता। बल्कि यह सवाल उठता है कि हम कभी यही सब, शहर से नहीं पूछते।  (May 15 at 7:34am) 2. यह जो सुबह लिखा है, उसमें कोई नई बात नहीं है। बात पुरानी ही है। बस देखने वाली बात यह है कि यह परिवर्तन किस तरह इस जगह को बदल रहे हैं। यह स्वाभाविक हैं? इन परिवर्तनों को कोई रोक नहीं सकता था, तथा इनके होने से जीवन में कोई गुणात्मक सुधार हुआ है? इन सभी सवालों के जवाब खोजने होंगे, तभी कुछ कहा जा सकता है।  (May 15 at 9:13am) 3. यह जो बिजली वाला सवाल है, एक बार इसे देखिए। शहर एक दम से जगमगाने नहीं लगे होंगे। न अपने आप आज के चरित्र को प्राप्त हुए हैं। फिर जो हम हैं, दिक्कत वहाँ है। हम जिस शहर से आए, तब वह एक विशेष आकृति में ढल चुके थे। गाँव वैसे बिलकुल नहीं थे। हमारे अंदर यही छवि दरक रही है, तब

इधर चार दिन..

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मैं बहुत छोटी-छोटी चीज़ों में उलझा हुआ इंसान हूँ। इनसे निकलने की हैसियत होती तो इन्हें लिख नहीं रहा होता। अब तक निकल चुका होता। कहते वहीं हैं, जिनके पास कुछ कहने के लिए नहीं होता। मैं भी इन्हीं में से हूँ। हम जताते बहुत हैं पर हमारे पास होता कुछ नहीं है। न होना, टोह लेना है। दिल्ली लौटकर इसी काम में लग गया हूँ। इस शहर की नहीं अपनी तहों में लौटकर वापस आने तक इसी में लिपटे रहेंगे। शहर कहने को भीड़ होते हैं। असल में होते नहीं हैं। हमें भीड़ में शामिल होकर उसका हिस्सा बनना पड़ता है। जो नहीं बनता उसके लिए यहाँ कोई जगह नहीं। बस यह एक कमरा है। कूलर के पानी में अजीब-सी गंध है। जैसे कई दिन हुए उस रुके हुए पानी में कोई उम्मीद रही होगी। उस घास में घूम आने की मर्ज़ी रही होगी। हमने मछलियाँ कभी नहीं पाली। पर लगता है, यह पानी उसकी याद में कहीं डूब गया है। सदियों पहले किन्हीं अनाम छोटी-छोटी मछलियों को अपने अन्दर समाये हुए यह किस बड़ी जल राशि का हिस्सा रहा होगा, आज अंदाजा लगाना भी संभव नहीं है। हम भी ऐसे ही बिलकुल ऐसे ही खो गए हैं। पानी की तरह अपने अनदेखे अतीत को फ़िर से छूने की ज़िद हमें इस तरह पानी ब

गाँव से आने के बाद

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गाँव से आये चार दिन हो गए हैं और कुछ भी कह नहीं रहा हूँ। बिलकुल चुप हूँ। जितना जाने से पहले सोचा था, उसमें क्या हासिल हुआ कोई हिसाब नहीं। दो साल बाद वापस जाना कितने अजीब तरह से हमारे अन्दर घर कर गया उसे कहने के बजाये अंदर-ही-अंदर उधेड़बुन में खो गया जैसे। जैसे अभी भी सब सामने चल रहा हो। बिलकुल सामने।  हमारी इच्छाएँ कभी मरती नहीं। उसी में एक मासूम-सी इच्छा रही, सब वहीं के वहीं थम जाएँ जैसे हम उन्हें छोड़ कर आ रहे हैं। इन बीते दिनों में लगा इसमें अधूरापन है। इसे कैसे कम करता? बस इसमें एक इच्छा और जोड़े दे रहा हूँ। कि वहाँ उनकी सीमा से निकलते ही इधर हम भी थम से जाएँ। जब-जब हम आमने-सामने हों बिलकुल वहीं उसी बिंदु से सब दोबारा शुरू हो जाया करे। हम एक-दूसरे की नज़रों से ओझल होते ही ‘फ्रीज़’ हो जाया करें तो कितना अच्छा होता। होता न? अन्दर ऐसा क्या घटित हो रहा है(?) जिसे कह नहीं पा रहा समझ नहीं पाया अब तक। वहाँ तो शुरू के तीन दिन हर शाम कुछ कुछ वर्ड फ़ाइल में टाइप करके रखता रहा। अब उन्हें साझा करने का मन नहीं है।  आज भी पूरे दिन क्या किया? यह इन चार दिनों में पहली बार है ज

गाँव: अधूरे दिन

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दिन वही हम यहाँ हैं. चाचा चाची के यहाँ. रात पौने एक बजे कैसरबाग़ से चली बस सुबह चार बजे बहराइच पहुँच गयी. रोड़वेज़ से मल्हीपुर बसस्टैंड के ढाई सौ रुपये. जितने में ढाई लोग एक सौ बीस किलोमीटर का सफ़र करके इस स्टैंड पर सुबह-सुबह खड़े हो सकते हैं, उतने में चार किलोमीटर का डीज़ल फूँकने जा रहा हो जैसे. यहाँ सुबह से सोते रहे. रात जगने के बाद सोने का ही काम बचा रह गया था. यहीं लोहे की टीन के नीचे तख़्त पर लेट गए. पता नहीं कहाँ से बाहर निकलने का मन नहीं हुआ. मन न होने के कई कारण हो सकते हैं. जैसे गरमी बहुत रही होगी. अभी सोने का मन रहा होगा. खाना खाकर वैसे भी सोने से बड़ा कोई काम नहीं बचता. आराम कर लेते हैं तब निकलेंगे शाम को. कुल मिलाकर यही दिख रहा है. मन में वही बात घूमती रही. जहाँ से हमने सबको छोड़ा था वहीँ से सब शुरू होता तो कितना अच्छा होता. मैं इस बात को हर बार याद किया करूँगा. पता नहीं क्यों. दो साल बाद जब हम यहाँ आये हैं तब न सुरेस के दादा, हमारे बाबा हैं न गुड्डू की अम्मा, हमारी दादी हैं. दोनों चले गए. दादी उसी साल जब हम आये थे. बाबा तब जब हम नहीं आये थे. इन दोनों से फ़िर कभी न मि

दिल्ली से लखनऊ, गोमती एक्सप्रेस

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कहाँ से लिखना शुरू करूँ? जब से ट्रेन में बैठे हैं तब से या बिलकुल उस बिंदु से जब हम बड़े-बड़े झोलों के साथ प्लेटफ़ॉर्म पर अपने कन्धों के साथ जूझ रहे थे। भीड़ हमारी ही तरह नहीं होती। हम इत्मीनान से थे। वह बेसबर थे। हमारा टिकट चेयरकार में था। गरमी का क्या, वहाँ इंसानों का भी आना मना था। हवा भी वहाँ आ जा नहीं पा रही थी। घुटन तो नहीं पर अगर सिर के ऊपर का पंखा भी न चले, तब ऐसा एहसास होना, कोई बड़ी बात नहीं। अन्दर सब अपनी अपनी सीटों पर बैठे हैं। कोई किसी सीमा का अतिक्रमण नहीं कर रहा है। कम से कम यहाँ बैठे सब लोग अपने साथ दो का संग आपस में लाये होंगे, तब इस दस घंटे के लिए तय्यार हुए होंगे। यह ‘दूसरा’ किसी के लिए दोस्त, भाई-बहन, बीवी, मोबाइल, किताब या फ़िर थक हारकर अँधेरा न होने तक खिड़की तो ज़रूर होगी। एक लड़की के पैरों में अभी भी मेहँदी लगी हुई थी। नयी-नयी शादी हुई होगी। हफ़्ते से भी कम वक़्त हुआ होगा। कुली के इंतज़ार में उसके नए नवेले पति ने एक झोला भी नहीं उठाने दिया उसे। सुकवार हैं या यह सब लोग इंसान ही नहीं हैं, कभी-कभी समझ नहीं पाता। पास ही एक सफ़ेद चिकनकारी वाले कुरते में चाचा

गाँव निकलने से थोड़ी पहले..

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दिन बीतते जाते हैं और एक दिन आता है, जब हम यहाँ से चल पड़ते हैं। यह देखते-देखते इतनी तेज़ी से इतनी पास आ पहुँचते हैं। कि लगता है हमसे टकरा जायेंगे। हम भी बचना नहीं चाहते। फ़िर ऐसा लगता है तुम इतनी जल्दी क्यों आ गए? यह प्रक्रिया सामान रूप से दोनों तरफ़ से होती है। एक बार यहाँ से चलते वक़्त, दूसरी बार वहाँ से आते हुए। दोनों ही बारियों में उस वर्तमान जगह से कहीं जाने का मन नहीं करता। अनमना हो जाना ऐसा ही है। या शायद यह दोनों जगहों से ऐसी जगह पहुँच जाने का न दिखने वाला अनिश्चय भाव होता होगा, जहाँ हम ख़ुद को देख नहीं पा रहे होते हैं।  भले हम कितने ही कल्पनाजीवी हों, नहीं बता सकते उन आने वाले दिनों में हम वहाँ क्या करने वाले हैं। एक तो यहाँ की बनी बनाई अव्यवस्थित दिनचर्या से ऊब और भाग लेने के निश्चय भी होते रहते हैं लेकिन जब ऐसा करने का समय आता है, तब हम धीरे-धीरे पीछे हट जाना चाहते हैं। पर यह भाव हमारे अन्दर बहुत थोड़ी देर के लिए होता है। हम इसे अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। हम जाने की तययारी मन मार कर नहीं करते। पर पता नहीं यह कैसा भाव उस ख़ास चलने वाले दिन ख़ुद पर तारी होने लगता है? फ़िर तो

गाँव की तरफ़..

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दो दिन बाद हम गाड़ी में होंगे। गाड़ी हमें गाँव ले जा रही होगी। गाँव नहीं, गाँव की तरफ़। यह गाड़ी कभी हमने भाप वाले इंजनों से भी चलती देखी हैं। धुआं भी था। पानी भी। हम बहुत छोटे रहे होंगे। चौथी पाँचवीं तक। छुटपन की याद क्यों रह गयी कभी-कभी समझ नहीं पाता। इतने अन्दर तक उनका धँसे रहना। हम शहर के भीतर अपने भीतर खाली जगहें इसी से भरते रहे। भरना हवा की तरह तरह दिखता नहीं है फ़िर भी वहीं होता है। इस गरम होते दिन में उन स्मृतियों तक चले जाना भावुकता का सवाल नहीं है। दरअसल यह कोई सवाल ही नहीं है। हम लगता कहीं से यहाँ छिटक पड़े। मन बेसबर होता रहता। ऊब, कमरे में बंद रहने, बाहर न निकलने की ज़िद किस तरह हमें गढ़ती रही, कोई नहीं बता सकता। हमने यहाँ से दूर एक जगह खोजी और उसे नाम दिया, गाँव। बाबा-दादी से लेकर हमारी सारी यादों का पिटारा। बक्सा। मसेहरी। हम अपने आपको वहाँ खो देते। ताकि ऐसी चीज़ों तक पहुँच सकें, जहाँ गुम हुए बिना पहुँचना आसान नहीं रहता। यह हमारे लिए ख़ुद को जानने के मौके होते। जो हम यहाँ कभी सोच भी नहीं पाते, उस तक चले जाने के बहाने खोजते। अपनी सीमाओं को खींचकर उन कोनों में ले जाते। वहाँ

पेज नंबर 38, नई डायरी

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दरअसल यह सब झूठ है। यहाँ लिखा हुआ मेरे अंदर से नहीं, बाहर से थोपा हुआ लगता है। एकदम नकली सा। कितना उन्हीं बातों को दोहराता रहूँ। मन नहीं करता। बस मन खाली नहीं है इसलिए लिख जाता हूँ। वरना कुछ ख़ास बचा नहीं रह गया। पिछले पन्नों पर कुछ सिलवटें हैं। यहाँ उन्हीं को कहना नहीं चाहता। असल में यह किसी तरह कुछ टूटने से बचने की एक तरकीब होगी। बचे रहना इसी को कहते हैं। मैं भी बच रहा हूँ। उसी तरह पुराने ढर्रे पर नहीं जाना चाहता। डायरी भी कहीं पीछे छूटती लग रही है। कहीं लिखने की सघनता ताप में तब्दील नहीं हो पाती। बस, लगता है कहने के लिए कहे जा रहा हूँ। वरना उलझनें मन में पतंग के धागे की तरह हो गयी हैं। इतनी उलझी कि सुलझाने बैठो तो वक़्त की कितनी किश्तें उसमें ख़र्च हो जाएँ। यह सामना न करना छिप जाना है। आड़ से उस वक़्त को छिपकर बीत जाने का इंतज़ार करते रहना। जब तक वह चला न जाये, तब तक छिपे रहना। इसे ख़ुद को घसीटना भी कहते हैं। लिथरना भी इसी तरह होता होगा। मैं उस अखरोट की तरह हो जाता हूँ, जो अंदर से खोखला है। जिसमें कीड़े लग गए हैं। कभी- कभी इन बिम्बों के अर्थ डराते हैं। इन्हें लिखकर जब दोबारा इन प

उसके पास कुछ नहीं था

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उसके पास भाषा का जादू नहीं था। उसने कभी दूसरों के लिए कुछ भी नहीं लिखा। एक शब्द भी नहीं। जोभी कुछ निकलता उसमें दिल से निकली कालिख़ होती। कभी उनमें राल के थक्के होते। कभी धूल होती। एक बड़ी-सी मेज़ पर किताबों का ढ़ेर उसे ढ़के रहता। शब्द भी कितने कमज़ोर से होते। जैसे उन्हें भी खाना खाने की ज़रूरत होती। कमज़ोर भाषा में से वह कुछ शब्द निकालता। वह कभी समझ नहीं पाया भाषा कमज़ोर नहीं थी। उसकी भाषा कमज़ोर थी। वह इसी उलझन में रहता। कुछ नहीं कहता। जो नहीं कहता, उसे कुछ और शब्दों में कहना चाहता। यह चाहने की इच्छा हम सबमें भी हो सकती है। होती भी है। पर हम हीरे की अँगूठी नहीं ख़रीदते। जो कमज़ोर होते हैं, वह खरीदते हैं। उसने खरीद ली। जेब में रख ली। किसी को जैसे कुछ न बताया। ख़ुद को भी नहीं। बताना अब ज़रूरी नहीं था। इस जगह ने उसके शब्दों को मढ़ दिया। उसकी भाषा जिसे तब्दील नहीं कर सकती थी, उसे सुनार ने बदल दिया। यही जादू बस उसे नहीं आया। उसे लगने लगा यह जादू भी वह सीख कर रहेगा। सीखना मुश्किल था। ऐसा नहीं है उसने सीखने के लिए उसका शागिर्द बन गया। उसने सोचा जो उसे आता है, वह वही करेगा। उसने अपने पसीने की कीमत तय

कुछ न कहना, कम कहना

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मेरे अन्दर काफ़ी कुछ बदल रहा है। यह दिखता नहीं। महसूस होता है। महसूस होना इस चवालीस डिग्री में बाहर घुमने से पैदा हुई ऊब और पसीने की गंध की तरह है। अब अपने बारे में लिखने का मन नहीं होता। बस ऐसे ही कुछ-कुछ फुटकर जगहों में कहने की आदत बहुत सही बन पड़ी है। किसी को अपने मन की थाह लगने न देने का हुनर भी बहुत मेहनत से सीखा है। कागज़ पर तो खैर, यह सब पता नहीं कहाँ पीछे छूटता जा रहा है? साल होने वाला है और इस दरमियान डेढ़ सौ पन्ने भी नहीं कह सका। कैसा लिखने वाला ठहरा? निहायत आलसी। निकम्मा। कामचोर। यही तो मेरी पहचान रह गयी है, मेरे अन्दर। कुछ भी न करने वाला, नाकारा। कल रात से बस यही सोचे जा रहा हूँ, यह चप्पल किस दिमागी उपज का हिस्सा रही होगी? आज जिन शक्लों में हम चप्पलों को देख रहे हैं, उन्होंने कितनी सदी पहले चलना शुरू किया होगा। चमड़ा किस जानवर का रहा होगा? धागे किस तरह धागे बने होंगे? वह सूई तलवार से काफ़ी पहले की रही होगी। चप्पलों का एक इतिहास सिर से भी तो जुड़ता है। जब किन्हीं का मन हो, तो चप्पल उठाकर पीटने दौड़ पड़ते हैं। हमारी भाषा के मुहावरों में इनका विशद वर्णन है। हम ऐसे समाजों में से ह