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शहर होना

शहर अपने आप को चुम्बक समझता है. हम अपने शरीर में मौजूद सारे लोहे को इकठ्ठा कर उससे चिपके रहते हैं.

देखो

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बिन कपड़े वाली नंगी लड़कियों को देखो. उनके शरीर पर भी वही खाल है. उसके नीचे नसों में बिलकुल उसी तरह खून बहता है. नीचे उनका रंग लाल है. उनके भी फेफड़े हमारी तरह साँस लेते हुए हवा से भर जाते हैं. एक दिल उनके पास भी है. मूलतः हम एक ही हैं. फ़िर भी हम उन्हें देखने की इच्छाओं से भर गए हैं. इसे ख़ुद से एक सवाल की तरह पूछना चाहता हूँ. क्यों हम उनके स्तनों और नितम्भों को देखना चाहते हैं? उनकी फिसलती सी लगती पीठ पर क्यों फिसलना चाहते हैं. उनकी बिन बाल वाली काँखों में झाँककर दुनिया देखने का सपना हम कहाँ से लेते आये हैं. उनकी नंगी जाँघों पर सिर रखकर लेटे रहने की कामना हम कैसे अपने अन्दर बेल की तरह उगने देते हैं? उनकी महकदार बाँहों पर अपनी खुरदरी उँगलियों से क्या लिख लेना चाहते हैं? शायद हम उपभोक्ता बन गए समय में एक खिड़की के सामने बैठे उन्हें देख रहे हैं. मैंने नहीं देखी हैं, उनके आँखों में भूख. भूख जैसे ही सारी बातों में शामिल होती है. बात बात न रहकर कुछ और बन जाती है. उस दबाव में हम अपने चेहरे बचाने लगते हैं और उन परतों के नीचे कई महत्वपूर्ण सवाल सवाल की तरह बचे रह जाते हैं. मैं इन पंक्तियों को स

अनुपस्थित

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मैंने कई जगहों से ख़ुद को अनुपस्थित कर लिया है. मेरे जैसे कई लोग और भी होंगे, जो कभी-न-कभी ऐसा किया करते होंगे. यह गायब कर लेना, किसी भी तरह से पलायन नहीं माना जाना चाहिए. यह गायब हो जाना इस समय की सबसे बड़ी चालाकी है. वह सूरज भी तो हर शाम ढलने का बहाना बनाकर अनुपस्थित हो जाता है.  कोई उससे तो नहीं पूछता. वह कहाँ चला जाता है.उसके जाने पर ही हम रात होते-होते चाँद को देख पाते हैं. तारें भी आसमान में बिखर जाते हैं. एक का जाना हमें असहज करता है पर प्रकृति में वह एक क्रम है. एक ऐसी व्यवस्था, जहाँ सब एक के बाद एक होने के लिए अपनी तय्यारियों में लगे रहते हैं. सोचता हूँ, तब बहुत सी जगहों पर अब लौटने का मन नहीं करता. एक मन यह भी होता है. इस जगह पर भी आना अब बंद कर देना चाहिए. कोई भी तो नहीं है, जिसके लिए आया जाए. मन एकदम जहर हो गया है इधर. किसी को भी नहीं छोड़ रहा. एक एक कर सबसे बदला लेने के ख़याल से भर जाने के बाद ऐसा होना सहज ही माना जाएगा. किसी ने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं है. कौन किसी का कुछ बिगाड़ पाया है. पर फिर भी मन, उसे ऐसे ही होना है. बेसिर पैर के ख्यालों में डुबोते रहना. तैर मैं कभी नहीं

पहला सफ़ेद बाल

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बात हर बार रह जाती है. मैं इस बात को पिछले साल से दर्ज कर लेना चाहता हूँ. ड्राफ्ट में तारीख है, उनतीस अगस्त. दो हज़ार सोलह. तब से यह बढ़े नहीं हैं. दो ही हैं. यह दोनों मेरी उम्र बढ़ने के संकेत नहीं हैं. शायद यह उन बिताये दिनों के स्मृति चिह्न हैं, जिन्हें मैं भूलना नहीं चाहता. शायद हम सब अपने बिताये दिन भुलाना नहीं चाहते. कुछ होंगे, जो उम्र के साथ भूल गए होंगे, तब उनके सिर पर खिचड़ी बाल इकठ्ठा होकर उन्हें उनकी यादों में वापस ले जाते होंगे.  सब अपनी अपनी तरह से समझते है, यह मुझे इसी तरह समझ आ रहे हैं. सुबह नहाकर आता हूँ और आईने के सामने कंघी करते वक़्त यह दिख जाते हैं. चाँदी के तार की तरह. अभी तक मैंने किसी को बताया नहीं है. बस एक दिन यहीं बैठे-बैठे तुमने इन्हें खोज लिया था. इनकी खोज कहीं किसी के सामान्य ज्ञान को बढ़ाने में कोई योगदान नहीं देती इसलिए इस बात को किसी को बताना ज़रूरी भी नहीं था. फिर मैं किसी तरह दशरथ भी नहीं हूँ, जिनके कान के बालों को देख तुलसीदास भविष्य की कथा कहने लग जाते. यह चुपके से मामूली आदमी के जीवन में घटित होने वाली उससे भी मामूली घटना थी. इसे बाकियों द्वारा सिरे से