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दोनों

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जबसे लौटा हूँ, तुम दोनों पर लिखना टाल रहा हूँ। पता नहीं ऐसा क्या कह देना चाहता हूँ, जो कहा नहीं जा रहा? कोई बहुत बड़ी बात नहीं होगी । बहुत सारी छोटी-छोटी बातें होंगी । वह उस गाँव की तरह ठहरी होंगी, जहाँ इन दिनों तुम रह रहे हो । उसे उदासी नहीं कहूँगा । वह उदासी के करीब तो है, पर उदास नहीं है । वह एकांत जैसा कुछ है । तुम जब बाहर होते हो, तब वह घर के अंदर ही नहीं अपने अंदर उन सवालों को ढूँढ रही होती हैं । मैं इन अंदर जाती साँसों को पहले इतना नहीं महसूस कर पाता । जब अकेला था, तब तो बिलकुल भी नहीं । जब हम दो हुए तब मुझे समझ आया, जितना हम दोनों बाहर दिखते हैं, उससे अनुपात में कई गुना अपने अंदर खुद को बुन रहे होते हैं । इसमें धागा न चिटक जाए, इसका ध्यान रखना होता है । बहरहाल । कोई एक-दूसरे में कितना डूब सकता है, यह पहली बार मैंने अपने इतनी पास देखा । इसे तुम्हारे शादी के साल तो बिलकुल भी महसूस नहीं कर सकता था । यह भी एक गुण है । धीरे-धीरे हमारे अंदर विकसित होता है । वक़्त लगता है । पर हो जाता है । मेरे मन में तो था, इस बार हमारी न हो पायी बातों पर लिखता । पर नहीं । जब तुम घर पर नहीं थे ।

दिन तुम्हारा

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जन्मदिन किसी का भी हो, उसकी सबसे कोमलतम स्मृतियाँ माँ के पास होती हैं । वह जो हमें नौ महीने गर्भ में रखती है । एक-एक क्षण अंदर पल रहे बच्चे के गर्भ से बाहर आने का इंतज़ार कर रही होती है । इस प्रतीक्षा में गेहूँ की सुनहरी होती बालियों की दमक भी है और उसे छूने की लालसा भी । आज तुम कितने साल के हो गए कल पूछ नहीं पाया ? तुमने बस इतना कहा, कल गायब रहना चाहता हूँ । तभी आज कोई बात नहीं की है । बस हमने तुम्हारे गायब होने में मदद की है । तुम्हारी यह इच्छा पता नहीं मुझे कैसा कर गयी है ? अँधेरा शाम ढलने के बाद छत पर बिखर गया है । कोई दिख नहीं रहा है । मैं बस इस क्षण में तुम्हारे बनने के सालों को याद कर लेना चाहता होऊंगा । बहुत सारी बातें एक साथ ऊपर गले तक आकर बाहर आ जाना चाहती होंगी । पता नहीं यह कैसा भाव है ? इसमें भावुकता भी है या नहीं कह नहीं सकता? तुमसे तुम्हारे घर के छोटे-छोटे किस्से सुनते रहना चाहता हूँ । ख़ुद उन मुलाक़ातों में चुप रहने की इच्छा को अभी पास नहीं धरा है पर तुमसे कुछ कहलवाने के लिए उन किस्सों की तरफ तुम्हें जाते हुए देखना अच्छा लगता है । कोई है, जिसमें भावुकता बची हुई है

हत्या

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मुझे एक हत्या पर क्या लिखना चाहिए ? यह हत्या जिनकी एवज़ में की जाती है, जिन्हें ढाल बनाकर किसी को मारा जाता है, वह इस पर क्या कहना चाहेंगे ? यह दो तरह की दुनिया का टकराना है या जिस खोल से हत्यारे निकल कर आए हैं, उसे दुनिया कहा जा सकता है ? वह जो डर गए हैं, उनका डर स्वाभाविक है । उन्हें पता है, कोई ऐसा प्रति विचार भी है, जो उनकी आस्था के समानान्तर चल रहा है और एक शाम ऐसी भी आ सकती है, जब उनकी यह दुनिया भरभरा का गिर भी सकती है । कहीं कोई बारिश नहीं होगी । कोई बिजली भी नहीं गिरेगी । बस दीमक लग चुकी हैं । वह नहीं चाहते कि कोई उस दुनिया पर अपने तफ़सरे कहे । उन पर की गयी व्यक्तिगत टिप्पणियाँ एक ख़तरा हैं । वह किसी संभावित भविष्य में ऐसा नहीं होने देना चाहते । मुझे लगता है, अगर वह किसी युक्ति से हमारे अतीत में पीछे जा सकते, तब यह उन सबकी हत्या की इच्छा से भर जाते, जो इनके मुताबिक ठीक नहीं होता । मुझे यह भी पता है, उनके पास पीछे जाने के कई तरीके हैं । तभी हमें इसी क्षण से आगामी अतीत में होने वाली संभावित हत्याओं का इतिहास लिखना शुरू कर देना चाहिए । वह किसी की भी हत्या कर सकते हैं । वह कर

कागज पर लौटकर

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इन दिनों मैं डायरी पर वापस आया हूँ । अच्छा लग रहा है । कागज़ पर यहाँ लिखने जैसी तकनीकी सुलभता नहीं है, फिर वहाँ लिखना अपने आप में चुनौती भरा अनुभव है । आप तरतीब से नहीं लिखते । लिखते हुए बस लिख रहे होते हैं । पता नहीं आपने यह अनुभव किया है या नहीं पर मेरे साथ यही होता है । जब मैं लिख रहा होता हूँ तो वह शब्द अंदर दोहरा रहा होता हूँ । उसे चुपचाप बोल रहा होता हूँ । इन शब्दों को सुनने में जो धैर्य है, वह यहीं महसूस किया जा सकता है । डायरी पर एक छूट है । यहाँ भी एक छूट है । दोनों दो तरह की छूटें हैं । एक में मन को थोड़ा अवकाश मिलता है । यहाँ हमें स्याही न भरने की आज़ादी है । वहाँ और भी कई बन्दिशें हैं लेकिन खयाल को कहने में जितनी दूर धागे जा सकते हैं, वह जाते हैं । यहाँ भाषा में कृत्रिमता तो नहीं पर एक तरह की दूरी का खयाल रख़ता हूँ । जो कह रहा हूँ उसके क्या-क्या मायने जा सकते हैं ? जब तक मेरे मन में है, वह किसी भी तरह रहे पर जब उसे बाहर आना है, एक तरह की सतर्कता बगल में बैठ जाती है । इसे सचेत हो जाना नहीं कह सकता क्योंकि वह ऐसा भाव नहीं है । फ़िर पता नहीं जो मैं यह सब कह रहा हूँ, उसको सही

इधर

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अगर मैं चित्रकार होता, तब अभी तक चाँद को घेरे हुए बादलों को दर्ज़ कर चुका होता। वह छितरे हुए हैं मगर चाँद छिप सा गया है। आसमान में रौशनी छनछन कर इस तरफ़ आ रही है। यह फ्रेम मुझे अपनी तरफ़ खींच रहा है। क्या मैं भी कभी किसी को इसी तरह नज़र आता होऊंगा? मुझसे रौशनी आर-पार नहीं हो सकती। पर कहने के लिए ऐसे ही कह जाता। सितंबर की इन गरम होती रातों में इस मौसम को हमें इसी तरह लिखे जाने की कोशिश करनी चाहिए। इन कोशिशों में जो ब्योरे इकट्ठा होंगे, उन सबको मैं कभी ऐसी ही किसी रात को पढ़ जाऊँगा। जब मुझे पता नहीं चलेगा, बाबा पिछले हफ़्ते किसी दिन पिछवाड़े जाते हुए गिर गए। जहाँ गिरे हैं, वहाँ से कोई नहीं बताता, कितनी चोट लगी है। इसी गिरने के बाद उनकी भूख शायद कहीं चली गयी है। तीन दिन तक वह खाना नहीं खाते हैं। यह बादलों के उन बिखरे टुकड़ों की तरह हैं। इनमें कोई क्रम नहीं है। बेज़ार होना इसी को कहा गया है। दिल में कई बातें एक साथ अखर रही हैं। उनका अखरना काँटों की तरह चुभ रहा है। कितनी बातों को यहाँ कहा जा सकता है, उससे ज़्यादा ज़रूरी सवाल है, कितनी बातों को यहाँ नहीं कहा जा सकता। कहने के लिए लबादों की ज़रूरत हो