बेरंग बसंत

यह हिस्सा भले बसंत के हिस्से से यहाँ तक आया हो पर इसमें कुछ भी वैसा नहीं है. रंग तो जैसे उड़ गए हों. पीपल के पेड़ एक दम नंगे खड़े हैं. आम का पेड़ दो साल में एक बार बौर से भर जाता है. इस बार भी भर गया है. आगे कितने सालों तक ऐसा हो पायेगा, कहा नहीं जा सकता. उसकी जड़ें कंक्रीट से घिर चुकी हैं. यह बहुत साल पहले की बात है. अब इस साल तो वह कटने से बच गया, इसी की खैर मना रहा होगा. दुःख का रंग नहीं होता वह बेरंग होता है. यह महिना ही कुछ ऐसा है. 

वह जब अपना सामान बांध रहे होंगे और उन्हें पता है, कभी वापस लौट पाना नहीं होगा, उनके मनों में यह वासंती हवा किस तरह हिलोरे मार रही होगी. उनकी आँखें शांत हैं. वह कुछ बोलते भी हैं, तो लगता है, जैसे झूठ बोल रहे हों. जहाँ जीवन के सबसे खुशनुमा साल बिताये हों, वहाँ से अचानक जाने के सवाल को वह सुलझा लेने की कोशिश कर रहे हैं. उनके हिस्से कुल एक कमरा था. एक ऐबस्टस की टीन थी. दिन थे गुज़र रहे थे. वही दिन साल भी बने होंगे और इतनी जमा पूँजी में कितनी ही यादें सबने अपनी जेबों में भर-भर रख ली होंगी. 

जा वह रहे हैं. सिर्फ़ कमरा खाली नहीं हो रहा, खाली हम सब हो रहे हैं. उसमें उन जगहों में वह भरे हुए थे, वहाँ अब कोई नहीं भरेगा. पता नहीं कैसी-कैसी कल्पनों से भर गया हूँ. जगह वह सबसे पहली चीज़ है, जहाँ हम ख़ुद को रखते हैं. वह उसी जगह से ख़ुद को अनुपस्थित कर लेने के लिए बाध्य हैं. उनकी अनुपस्थिति को हम किस तरह से अपने मन में दिल में अपने रोज़ गुजरने वाले रोज़ाना में रख पाएंगे, यह कहना बहुत मुश्किल सवाल है. यह जितना मुश्किल हमारे हिस्से है, उससे कहीं ज़्यादा उनके हिस्से में होगा. यह एहसास अपने आप में किसी मार्मिकता की अतिरिक्त माँग नहीं करता. यह अपने आप में मर्मान्तक है.

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