हासिल
एक संख्या अभी कुछ घंटों के फासले पर साल भर की दूरी बन जाएगी। जब भी हम याद करेंगे कहेंगे, पिछले साल की बात है। आज की नहीं है। यह जो व्यवस्था है, इसी में हम सब ख़ुद को समेट लेते हैं। मैं भी इन बीते दिनों का हासिल जान लेने की गरज से बैठ गया हूँ। इन तीन सौ पैंसठ दिनों में जो बारह महीने बिखरे हुए हैं उनमें से कौन-कौन से दिन, कौन से पल, कौन से क्षणों को अपने कल के लिए ले साथ चलूँगा। यह जितना अंकों में विभाजित लगता है, उतना है नहीं। सब जोड़ रहे होंगे। उनके दुखों के अनुपात में सुख कितने रहे? कौन सी इच्छा अभी तक सिर्फ़ इच्छा ही बनी रह गयी? कितने सपनों को वह देख पाये, जो उँगलियों से भी आगे जमा होते रहे? मेरे पास इन सब विचारों के बीच कौन सी अनुभूतियाँ हैं, जिनमें यह साल बिखरा हुआ है? यह एक सपाट साल होता। अगर मैं पत्थर होता। कई सारी चीजों को तय किया था। ख़ूब लिखना है। उससे भी ज़्यादा पढ़ना है। कई बड़ी जगहों पर अपने लिखे हुए पर्चे, शोध से संबन्धित लेख भेजने हैं। हो सके तो थोड़ा-बहुत घूमना है। गाँव जाना है। वहाँ पीएचडी का डेटा इकट्ठा करना है। इन सबमें फरवरी वहीं था। गाँव में। चाचा एकदम ठीक हैं। ढाबली पर