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फ़रवरी, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आज की तारीख, उनतीस फरवरी

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आज उनतीस फरवरी है। यह दिन भी और दिनों की तरफ बीत रहा है। इसमें ऐसा कुछ भी खास नहीं है, जिससे कल और आज में कुछ मूलभूत अंतर दिख रहा हो। बस एक तारीख है, जो चार साल में एक बार आती है। कल से ही इस दिन की पिछली किश्तों में वापस लौट रहा था। कोई भी याद ऐसी नहीं जिसे कभी याद किया हो। चार साल पहले भी पढ़ रहा था आज भी पढ़ रहा हूँ। दुनिया न तब बेहतर थी न उससे पहले। यह दुनिया हम जैसे नकारा लोगों से भरती रही है। हद दर्जे के आलसी हैं। बस खुद को पहचानने में देर बहुत कर देते हैं, और कुछ नहीं। मैंने भी सोचा आज कुछ अलग 'फ़ील' करूँ। जैसे सब करने की करते हैं। कोशिश करके भी नहीं कर पा रहा। कुछ अलग-सा हो तो करूँ न। जब कुछ नहीं होता, तब ऐसे ही बैठा होता हूँ। मौसम गरम होता जा रहा है। पीपल के पत्ते पैरों में चमरौन्धे जूते का एहसास दिला रहे हैं। सुबह की ठंड शाम तक आते-आते दोबारा गुलाबी होने की कोशिश में लगी रहती है, पर हो नहीं पाती। रात होगी, और पहर बीतते-बीतते कुछ रजाई के हट जाने से हवा लगने तक पता ही नहीं चलता। सोच रहा हूँ आज के दिन में क्या खास है, जिसे दुनिया अपने पास रख लेना चाहती है। उन्नीस सौ

उँगलियाँ नाखून नहीं होती

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पता नहीं यह क्या है, यह इस हफ़्ते तीसरी या चौथी बार है। हर बार अपने आप को किन्हीं और लोगों में उनके जितना महसूस करने लगा जैसे। शायद यह इंसान बनने की प्रक्रिया में अगला कदम है या कुछ और..? कह नहीं सकता। न ही इसका कोई दावा मेरे पास है। बस, पता नहीं क्यों उनके दुखों में हिस्सेदार बन जाना चाहता हूँ। फ़िर भी, यह जैसा है, उसे कह देना चाहता हूँ। यह जो महसूस कर रहा हूँ, आप को भी करवा पाऊँ। पर देखते हैं कितना.. सोमवार। एक कमरा। दरवाजे पर कुंडी लगी हुई है। दरवाजा बंद है। उसपर एक चिट चिपकी हुई है। लिखा है, 'रिकवरी रूम'। उसी चिट में उनका नाम देखकर हम थम गए। हम दोनों के मन में पता नहीं किन-किन अनिष्टों की कल्पना बिजली की तरह कौंध गयी। पर हम दोनों ने बड़ी चालाकी से यह बात आपस में नहीं बताई। चुप थे, थोड़ा और चुप होकर, सहम गए। दोनों ने सहमति से 'रिसेप्शन' पर वापस लौटकर सही और पूरी जानकारी लेने का मन बनाया। हम सीढ़ी से उतर रहे थे। मानो हमारा दिल गहरे अँधेरे तल में डूबता जा रहा था। हम चीखना चाहते, पर चीख नहीं पाये। नीचे 'रिसेप्शन' पर बैठी वह लड़की नहीं जानती होगी, इन दिनों

बेतरतीब दिल

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पता नहीं वह कौन-सी बात रही होगी जो सोने से पहले सोने नहीं दे रही थी। मैं बहुत-सी बातें कहना चाहता होऊंगा। पर नहीं कह पाया। पैर चल-चल कर थक गए थे। थक कर भी सोचने में जो छटपटाहट है, वह कुछ भी करके कहकर सो जाता तो इतनी सुबह उठकर लिखता नहीं। मौसम में गर्मी बढ़ गयी है। इसी हफ़्ते इस साल की पहली ततइया दिखी। ढूँढ़ रही थी कोई ऐसी जगह जहाँ ठंडीयां आने तक अपना छत्ता बना सके। बाहर ज़मीन पर बोगनवेलिया दोबारा बिखरे दिख रहे हैं। पता नहीं यह कैसा क्रम है, बसंत जैसे-जैसे बीत रहा है, पेड़ पत्ते छोड़ रहे हैं। जैसे यह अलविदा का मौसम बनकर हमारी यादों में बार-बार घूम जाता है। याद नहीं भी करते, फ़िर भी उन अनुभवों की सघनता उन सबको हमारी आँखों के सामने दोबारा लाने लगते हैं। हम इन यादों के मामले में कितने पुराने हैं। यह मौसम के साथ वापस लौट आती हैं।  हम सबका मन इन दिनों की तरह हमारे अंदर बिखरने लगता है। उनमें कहीं खाली पड़े बेंच हैं। उन उखड़ी पड़ी पटरियों के बीच लड़ती मैना की आवाज़ें हैं। कोई वहीं प्लेटफ़ॉर्म पर आखिरी बार मिलकर लौट जाने के लिए बैठी है। शादी की बात बताए नहीं बताए, यही सोच रही है। वह उसे नहीं

ज्ञान का मिथक

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उस दिन वीकेआरवी राव हॉस्टल की कैंटीन से निकलते वक़्त हमारी चर्चा बिलकुल चरम पर थी। संदीप हम सबसे पूछ रहा था, कुर्सी हमारे ज्ञान का हिस्सा कैसे बनेगी? हम सब अपने अपने अर्थों में कुर्सी को पारिभाषित करते आए हैं। चार पैर। बैठने के उपयोग में आने वाली संरचना। यह लकड़ी, धातु से भी बन सकती है। लेकिन इन सारी सूचनाओं का उपयोग करते हुए जब हम अपने अनुभवों से होते हुए स्मृति में जाएँगे और वहाँ कहीं इसे चिन्हित कर पायेंगे, तब जाकर यह हमारे ‘ज्ञान’ का हिस्सा बन सकेगी। जितनी सरलता से हम यह समझ गए, क्या उन लोगों को यह समझ नहीं आ रहा होगा, जब वह सब मिलकर विश्वविद्यालय में ज्ञान की देवी का मंदिर बनाने की योजना बना रहे होंगे? तब उनकी संकल्पना में कितना पुराना इतिहास मिथक बनकर सामने दौड़ने लगेगा? पता नहीं। उन प्रतीकों में प्राचीनता है, लेकिन वह संदिग्ध है। यह कैसे हुआ कि समान रूप से विविध परिस्थितियों वाले समाजों संस्कृतियों में ‘ज्ञान’ का संरक्षण स्त्रियों के हिस्से तो आया पर कहीं भी उनके द्वारा रचित एक भी ग्रंथ का उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा क्यों हुआ, यह सवाल भी वहाँ कहीं नहीं है। जब कभी होगा, तब

ये जो देस है

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आज पूरा दिन बैठे बैठे निकल गया। कुछ ख़ास किया हो ऐसा नहीं कह सकता। पर दिमाग को लग रहा है तो बहुत कुछ उसके हिस्से का न दिखते हुए भी हुआ होगा। कल 'रेवेनांट' देखने के बाद 'तमाशा' देखी। कहानी हमारे मन में हो और हम उससे अलग दिखने की अपनी ज़िद पूरी करना चाहते हों तो सामने चलते दृश्य अंदर चलने लगते हैं। चलते-चलते रुक जाते हैं। जिस वक़्त मैं यह फिल्म देख रहा था उसी वक़्त, बिलकुल उसी वक़्त दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में रवीश कुमार का 'प्राइम टाइम' चल रहा था। यह ख़बर सूचना की तरह फ़ेसबुक पर लगातार तैरती रही। हस्तक्षेप का तरीका और आपातकाल से तुलना भी साथ-साथ होती रही। बिलकुल वैसे ही जैसे हम लगातार देश का हिस्सा होते हुए उसे अपने अंदर गढ़ रहे होते हैं। वह चूँकि हमारे भीतर भी है इसलिए उसका कुछ हिस्सा इधर हम सबके अंदर दरक रहा होगा। सिर्फ़ काले-सफ़ेद में देखने लायक नज़र इसके पार देख पाने में अक्षम है। जो देशभक्त नहीं हैं, वह देशद्रोही हैं। दर्शन की कोई शाखा हमें यह ताकत नहीं दे पायी कि हम इन दोनों के बीच के रंगों को कोई नाम भी दे सकें। यह हमारे यहाँ की वाचिक परंपरा का स्खलन काल है। हम

तुमसे चुराई घड़ी..

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हमें एक हफ़्ते पहले ही उस देश की नागरिकता मिली है। आज हम दोनों चाँद पर हैं। नासा ने हमें वहाँ अपने पैसे पर भेजा है। हम चाँद पर पहुँच गए हैं, फ़िर भी नागरिक हैं। उसने इस बार रॉकेट पर पैसे ख़र्च नहीं किए। एफ़-सोलह लड़ाकू विमान पंद्रह मिनट पहले हमें छोड़ गया है। सबसे पहले हमने पहला कदम रखा और दूसरे से पहले ही भागकर इस स्टूडिओ आकर तस्वीर खिंचवाने दौड़ पड़े। वह भी हमें देखकर हैरान हैं। हम वहाँ कैसे? गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी से हम दोनों की ज़ेबों में थोड़ा-सा छिप कर आ गया और यहाँ बसंत पृथ्वी पर आने के आठ दस दिन बाद हवा की तरह बिखर गया है। हम हैरान इस बात पर नहीं हैं। बल्कि हम तो यह सोच रहे हैं कि कैसे इस मिट्टी में गोले के तेल की महक घुल गयी है? हमने हवा से, उस घूमते आसमान से, ठहरी हवा से, वहाँ गायब हो चुकी नमी से और न जाने किस-किस से पूछा, कोई नहीं बता पाया। यह क्या है? मैंने भी तुम्हारी तरह अब दिमाग लगाना अब छोड़ दिया है और मैं खो गया हूँ कि कैसे अब अपने दिल को संभाल कर हलक से नीचे धकेल दूँ। दिमाग में तो बस यही एक ख़याल है। मेरा चाँद तो तुम हो। मैं तुम तक पहुँचना चाहता हूँ। अब दो-दो चाँद हो गए इस

थक कर मन मेरा

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थक कर लोग क्या-क्या करते हैं, इसकी कोई फेहरिस्त नहीं बनाने जा रहा। बस ऐसे ही सोच रहा था। थकना कैसी क्रिया है? इसके लिए कोई प्रयास किया जाना चाहिए या यह स्वतः हो जाने वाली परिघटना की तरह घटित होने लायक कोई ऐतिहासिक अन्तरक्रिया से उत्पन्न घटक का प्रदर्शित रूप है? इतनी बातों को समझने के लिए किसी भी तरह की कोशिश करना बेवकूफी है। इन्हें समझने के तरीके भी उतने ही अपने होंगे, जितने कि आपकी परछाईं। रातें हमेशा बल्ब की रौशनी में हों यह मुमकिन नहीं है। वहाँ कैसी होती होंगी, जहाँ समुद्र की लहरों की आवाज़ों से आसमान फटा जाता होगा। और वहाँ, जहाँ ढबरी की झिलमिल-झिलमिल करती लौ में कोई लेटा, धुएँ में अपने कल की गंध लेता मसेहरी में धँसा चला जाता होगा। उसके सपनों में भी आवाज़ें नहीं होंगी। वहाँ रील काले-सफ़ेद रंगों से दृश्यों को रंग रही होंगी। उसे काले घोड़े के सफ़ेद फ़र वाले मुलायम बाल बहुत पसंद थे। ऐसा उसने कभी बताया था मुझे। नानपारा में एक पान की आकृति वाला पक्का तालाब भी है। देखना कभी। सपने में कहीं भी जाने की टिकट नहीं लगती। बिलकुल ऐसी ही बातें कहीं किसी दिमाग में दर्ज़ नहीं होंगी। वह लड़की जो यह सब

कई चाँद थे सरे आसमां

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यह एक निजी पोस्ट है। इसलिए कुछ कहने से पहले सोचना ज़रूरी नहीं। इस डिस्क्लेमर के बाद कुछ भी कहना बाकी नहीं रह जाता। आज दोपहर इस फरवरी की किसी याद में मन कहीं खो गया। इधर मन कुछ ऐसे ही होने लगा है। अजीब-सा। हरदम इतना भरा लगता है, जैसे वक़्त नहीं मिलता। लिखना छूट न जाए इसलिए यहाँ दोबारा आ गया था। पर इसे बचा ले जाना मुश्किल लग रहा है। मुश्किल लिखने में नहीं, उस वक़्त को अपने पास बरक़रार रखने की जद्दोजहद में दिमाग का कचूमर निकल जाने में है। हम जिस दौर में लिख रहे हैं, वहाँ यह एक सकर्मक क्रिया है। यह ऐसा वक़्त है, जब लगता है, हम सबको एक साथ अलग-अलग भाषा में अपने-अपने हिस्से के अनुभवों को लिख कर रख लेना चाहिए। जो ऐसा नहीं कह रहे, वह चुप रहकर ख़ुद को दर्ज़ करने की किसी भी संभावना से हट रहे हैं। अभी शाम ऊपर गया, दोबारा डायरी उठाकर देखी। बहुत अजीब तरह से वह शब्द अपनी तरफ़ खींच रहे थे। पर उसे उठाकर लिख नहीं पाया। लेकिन एक घंटे से इधर एक चीज़ ख़ुद में देख रहा हूँ, जब से मेरा लिखना कम हुआ है या इसे इस तरह बेहतर समझ सकते हैं कि जबसे लिखने से बचने लगा हूँ, तबसे हर किसी से लिखने के लिए कहने लगा हूँ।

सिक्के जो चलते नहीं

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कहने को बहुत-सी बातें हैं, जो कहते-कहते हम नहीं कह पाते। उनका कहा जाना ज़रूरी है, इसलिए बार-बार इसके बहाने बनाए जाने चाहिए। लेकिन आज जो बात कहने जा रहा हूँ, उसमें कोई नयी बात नहीं है। इधर हम दूरदर्शन के दौर में वापस आ गए हैं। केबल वाला अपनी मनमर्ज़ी करने की हद पर था जब हमने उसके सेट बॉक्स को हटवाने का फ़ैसला लिया। साल ऐसे ही शुरू हुआ था। बिन टीवी के। इकतीस दिसंबर से लेकर लगभग एक हफ़्ता टीवी पर कर्फ़्यू। कोई हलचल नहीं। वह सारे धारावाहिक वहीं के वहीं बर्फ़ की तरह जमें रहेंगे। वह सारे दृश्य हमारे मनों में वहीं थम से गए हैं। यह ऐसा दौर है जहाँ इस माध्यम से समाज नेपथ्य में भी नहीं है। पूरा अनुपस्थित है। हम उन पर वापस नहीं लौटेंगे। बस यहाँ एक दिक्कत है, रवीश का एनडीटीवी नहीं आता, उसे कभी-कभी नौ बजे उनके कारण देख लिया करते थे। अब वो भी नही। पिछले चार-पाँच सालों से टेलीविज़न हमारे लिए सिर्फ़ ख़बर देखने तक सिमट गया था, उसकी जगह फ़ेसबुक लगातार मज़बूत भूमिका में उभर कर आया है। वहाँ हम सब एक-दूसरे के लिए पढ़ते हैं। जो हमें जहाँ से लगता है, उसे शेयर करते हैं। यह साझेदारी हमारे रुझानों, रुचियों, आग्