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जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इश्तिहार वाली औरत

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वह खुद नहीं लिखतीं पर अपने पति के लिखे हुए को इश्तिहार की तरह सब दीवारों पर चिपका आती हैं । इससे एक बात तो तय है, वह लिखे हुए को नज़रअंदाज़ नहीं कर पाती हैं जब वह उनके पति द्वारा लिखा गया होता है। इधर वह लिख भी ख़ूब रहे हैं । जिस तरह से हम बीत रहे समय को अपनी नज़र से गुज़रता हुआ देख रहे हैं, तब उनकी योग्यता बिल्ली या चमगादड़ की तरह जान पड़ती है। वह व्याख्या कर रहे हैं । विश्लेषण में कितने ही तरह के दोहरावों के बाद भी पीछे हट नहीं रहे। वह सामाजिक रूप से चेतस व्यक्ति की तरह बर्ताव करना चाहते हैं । बोलते भी उसी तरह हैं । इसमें दिखता है, वह एक आले दर्ज़े के मर्मज्ञ हैं । इस सबमें अब हम उन्हें अपने समाज में स्थित करने की कोशिश करते हैं, जो समूची वैचारिक प्रक्रिया में अनुपस्थित हैं । यह नेपथ्य किस तरह से उन्हें रच रहा है? अगर हम यहाँ इन जैसे अनलिखे प्रश्नों को देखें, तब हमें क्या मिलता है? रेत। रेत से साने हाथ। क्या हाथ कुछ भी नहीं लगता । ऐसा नहीं है । उस उम्र में जब वह युवती रही होंगी और यह लेखक पति उस ओर आकर्षण महसूस करता होगा, तब के क्षणों को हम अपनी कल्पना से रच सकते हैं? तब एक तय जगह

अनकहा

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बहुत दिन हो गए कुछ लिखा नहीं गया । सोच रहा हूँ यह लिखना ज़रूरी क्यों है ? क्यों कोई लिखता रहे? इस लिखने में क्या सारी चीज़ें समा सकती हैं? सारी चीजों से अभी मेरा मतलब सिर्फ़ उस स्वाद से है, जब बहुत साल पहले हम नानी घर में थे और नानी के बुलाने पर सीढ़ियों से उतरते हुए अरहर की बटुली चूल्हे पर चुर रही थी । दाल बनने वाली थी और वह चावल धो रही थीं। उस तरह की दाल मैंने कभी नहीं खाई । इसे मैं कैसे लिख सकता हूँ, मुझे यही समझ नहीं आ रहा है । कोई हो जानकार, जो मुझे यह समझा सके कि कल रात से जब पापा गाजर का हलवा कड़ाही में छौंक लगा रहे थे, तबसे तीन बार पूछ चुके हैं, हलुआ खाया । इस पूछने में क्या है, जिसे लिख नहीं पा रहा? वह मुझसे क्या जान लेना चाहते होंगे? मुझे पता नहीं चल पा रहा । इतने सालों से मम्मी जो बैंगन का भरता बना रही हैं, उनके हाथों की रोटियों की मोटाई और उसके गले के अंदर जाते हुए भाव को कैसे किसी भाषा में लिख सकता हूँ ? यह जो रोजाना तुम रसोई में कुछ-कुछ बना रही होगी, उसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है, यही सब मुझे उलझाये हुए है । जो चटनी उस दिन मैंने सिल बट्टे पर पीसी थी, उसे भी नहीं कह

टूटते रहना

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कभी-कभी थक जाना भी ज़रूरी है । थक कर सिर्फ़ सोया नहीं जाता । थोड़ा सोचा भी जाता है । यही वह अवकाश है, जब हम अपने आप को सबसे ज़्यादा महसूस करते हैं । हम शरीर में वह जगह टटोलते हैं, जहाँ से हम सबसे ज़्यादा परेशान होते हैं । इस जगह जहाँ अभी लिख रहा हूँ, काफ़ी लंबा अरसा गुज़र गया है । लगभग सात साल या कुछ उससे भी ज़्यादा । हर दिन की निरंतरता लिखने में भले न रही हो पर मन में लिखने की इच्छा कभी कम तो कभी ज़्यादा, कमोबेश हमेशा बनी रही । दिमाग इन बीते दिनों में सबसे ज़्यादा यहीं खपत करता रहा है । इसमें एक ऐसा वक़्त आता है, जब हम कह नहीं पाते । दूसरे शब्दों में, एक विधा हमारी सभी बातों को समेट नहीं पाती, तब क्या करें? शायद यह इसके भी बाहर की बात हो । मतलब यह सिर्फ़ फ़ॉर्म या रूपाकार की बात भी न हो । तब क्या करें? थोड़ा रुक जाएँ या चलते रहें? लगता है, थोड़ा थम गया हूँ । असल में इस थम जाने में भी मन रुका नहीं है । वह भाग रहा है । इसे विचलित होना नहीं कहेंगे पर यह इसी के आसपास है । मैं जो कहना चाहता हूँ, अब इस तरह कहना नहीं चाहता, जैसे अब तक कहता आया हूँ । इसमें सिर्फ़ दोहराव की बात नहीं है । मुझे बातें दोहरा

दिन पहला

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कोहरा है। ठंड है। दिन लगभग ढल चुका है। मैं यहाँ कमरे में बैठकर सोच रहा हूँ। इस साल के बँटवारे में जो मेरे मन में बहुत सारी इच्छाएं हैं, उनका क्या होगा? वह पिछले कैलेंडर से इस दिन तक मेरे साथ चली आई हैं। आगे भी इन्हीं के इर्दगिर्द अपने सपनों को बुन रहा होऊंगा। इनमें थोड़ी सी मेरे आस पास की दुनिया होगी और बहुत सारी मेरे अंदर से बाहर आ रही होगी। यह स्वार्थी होना भले लगे पर यह ऐसा ही है, मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता। दिन इससे पहले इतने बेकार कभी नहीं थे। नींद बहुत आती है। उठा नहीं जाता। सूरज खिड़की से अंदर आने लगता है, तब तो आँख खुलती है। सुबह जल्दी उठने से दिन बहुत बड़ा हो सकता है, अभी जो सुबह ग्यारह के बाद मेज़ पर आ पाता हूँ उसे सात और आठ के बीच ले आना बहुत बड़ी बात होगी। जो किताबों के ढेर से मेज़ अटी पड़ी है, उनमें से कुछ जिल्दों को पढ़ने के लिए फुर्सत से बैठने की इच्छा सिर्फ़ बनी न रहे, कई-कई घंटे बैठे हुए उन्हें पढ़ भी सकूँ। और मैं क्या चाहता हूँ? यह तो बहुत ही सतह पर तैर रही हैं। उन्हीं में से बहुत को कह दूंगा और बहुत सी छिपा ले जाऊंगा। एक किताब, एक नौकरी की टेक पर पिछला पूरा साल बीत ग