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दिनांक

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बचपन से हर दिन को हमने किसी ख़ास संख्या से जाना. स्कूल जाने का सबसे बड़ा फ़ायदा यही होता है. आप समझने लग जाते हैं. यह कितने दिनों का महिना है. साल में कितने महीने होते हैं. यह गणितीय विभाजन सिखाने की सबसे सरल युक्तियों में से एक है. पर हमें किसी अध्यापक ने इस तरह नहीं समझाया. समझाया तो किसी भूगोल के मास्टर ने भी नहीं कि हम जाने-अनजाने इस पृथ्वी पर रहते हुए एक साल में सूर्य की परिक्रमा पूरी कर लेते हैं. यह साल अपने इस कैलेण्डर का दो हज़ार सत्रहवाँ चक्कर लगाने में इस बार एक सेकेण्ड की देरी करने जा रहा है. ऐसा किन्हीं वैज्ञानिकों के हवाले से किसी अखबार ने बताया. इतिहास हमें बताता है, साल सत्रह सौ बावन से यह (संशोधित) ग्रेगोरियन कैलेण्डर अंग्रेज़ों द्वारा उपयोग में लाना शुरू किया. तब उनके पुराने कैलेण्डर से ग्यारह दिन गायब हो गए थे. हम सन् उन्नीस सौ सैंतालिस से पहले तक उन्हीं के उपनिवेश रहे. हम भी अपने सार्वजनिक जीवन में इन्हीं तारीखों को व्यवहार में लाते हैं. हमारे पास अपने दिनों का हिसाब-किताब रखने की जो तकनीकें रही होंगी, उनका क्या हुआ(?) उन्हें भी इतिहास की कोई  किताब अपने अन्दर सहेज कर

असगर

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असगर को मैंने कभी पढ़ाया था. यह मेरी स्मृति का इतना भर हिस्सा कब तक रहता, कह नहीं सकता था. उसके होने से जितना फ़र्क एक अध्यापक को होना चाहिए, उस छात्र के विद्यालय से निकल जाने के बाद वह उतने ही क्षणिक स्मृति कोश का हिस्सा होता. कभी नाम याद आता. तब याद आता. कोई असगर अली नाम का लड़का था. किसी बात को आसानी से नहीं मानने वाला. अपने दिमाग में बिठाने के लिए उसके सवालों से गुज़रते हुए देखता, वह सच में कहीं आगे जाकर उन प्रश्नों से एक बेहतर दुनिया बुन सकता है. यह संभावनाएँ अपने अन्दर बनाए रखने के लिए उसके प्रश्नों को सिर्फ़ ध्यान से सुनता ही नहीं उनके अपनी समझ से उत्तर देने की कोशिश भी किया करता.  असगर अब नहीं है. याद नहीं आ रहा पिछले साल का कोई दिन रहा होगा या इसी साल के किसी दिन की बात है. पता चला जब तक सब उसे राम मनोहर लोहिया अस्पताल पहुँचाते, उसी मृत्यु हो चुकी थी. मुआयने के बाद डॉक्टरों ने बताया, ब्रेन हैमरेज. दिमाग की नस फटने से उसकी मौत अकस्मात् हो गयी. उमर ही कितनी थी उसकी? अट्ठारह-उन्नीस साल का लड़का. जो साल भर हुए बारहवीं पास करने के बाद इस दुनिया को अपनी नज़रों से देखने निकला था. शा

इन दिनों

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दिन बेदम हैं. उनकी जान ठण्ड निकाले दे रही है. वह काम करने लायक नहीं रहे हैं. अभी आज का सूरज पांच बजकर इकतीस मिनट पर डूब जाएगा. फ़िर हम कमरे में ट्यूबलाइट जलाकर बैठ जायेंगे. फ़िर कुछ करेंगे? नहीं. अपने अगल-बगल देखता हूँ, तब दिख पड़ता है, करने के लिए बहुत कुछ है. कल साल के आख़िरी इतवार को ख़रीदे हिंदी अंग्रेज़ी के आठ अखबार हैं. पिछले सात दिनों में घर आई कम से कम इतनी ही पत्रिकाएँ हैं. इन दिनों पर कुछ डायरी में लिखा जा सकता है. तद्भव के नए अंक में राहुल सिंह का लम्बा आलेख ‘कला, आधुनिकता और इतिहासदृष्टि’ पढ़ा जा सकता है. कुछ नहीं तो वेंडी डोनिगर की किताब ‘हिन्दू मिथ्स’ और देवदत्त पटनायक की हिन्दू आख्यानों को समझने के प्रयास में लिखी ‘मिथक’ में साम्य देखा जा सकता है. कुल मिलकर बहुत काम हैं. पर हो कोई एक भी नहीं रहा है. इसे काहिली कहते हैं या सच में हिलाल हो गया हूँ? नहीं जानता. पर इतना पता है, लोग इससे भी मुश्किल कामों में ख़ुद को रात दिन झोंके हुए हैं. हमने ख़ुद को कहाँ झोंक दिया. यह सवाल पूछा जाना चाहिए.  क्या ‘पेपर बोट’ की पैक की हुई दस रुपये चिक्की को देख कर कुछ याद आया हो? मालुम नहीं

पढ़ना

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पहली बार वह कौन होगा, जिसने पढ़ने से पहले उसके लिखने वाले को जाकर बताया होगा कि वह उसके लिखे गए शब्दों को पढ़ने जा रहा है? इस वाक्य संरचना में वह सम्भवतः पुरुष है, परंतु वह कोई स्त्री भी हो सकती है, जिसने अपनी किसी सहेली के लिखे खत को, उसकी किताब पढ़ी हो और उसे बताया हो. वह कैसा लिखती है. यहाँ सवाल अभी किसी बहस का नहीं है. सवाल सिर्फ़ इतना है, इस बड़ी गोल-सी दुनिया में जब कहीं कोई कहता है, वह हमें पढ़ने जा रहा है, तब हमें किस भाव से भर जाना चाहिए? यह अपने आप में किन एहसासों को हमारे अन्दर भर देता होगा? पढ़ना सिर्फ़ शब्दों से गुज़ारना नहीं है, अपने अंदर एक समूची दुनिया को उतरने देना है. यह उतरना सायास नहीं है. हम कोई कोशिश नहीं करते, बस नीचे उतरते जाते हैं. पर अभी पढ़ने की प्रक्रिया पर नहीं कहने वाला. यह लिखने और उस लिखे गए अंश को किसी के द्वारा पढ़े जाने की सूचना के बाद उपजी कोई ऐसी चीज़ है, जिन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहा. हम सब किसी ख़ास भाषा में किसी ख़ास क्षण में लिखने के लिए बैठते हैं. जब हम लिख रहे होते हैं, उस समय को कोई दूर से देखता होगा तब उसे कैसा लगता होगा? इसे कल्पना में द

ये मौसम

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हमने इन मौसमों के हिसाब से ख़ुद को ढालने की कोशिश की होगी. अगर कोशिश न की होती तब हम आज तक जिन्दा कैसे हैं, कोई नहीं जान पाता. बचे रहना क्यों ज़रूरी है? शायद इसे पूछना ज़रूरी नहीं है. हम ऐसे ही इन ठन्डे दिनों में होते गए होंगे. यह सर्दियाँ ही हैं जो हमें समेट देती हैं. हम कछुए बने रजाई में बैठे हैं. रजाई कछुआ बनने के लिए ज़रूरी नहीं है. जिनके पास रजाई नहीं वह भी इसी आकार में ख़ुद को ढाल लेते हैं. यह सिकुड़ जाना हमने एक दिन या एक सप्ताह में नहीं सीखा होगा. यह हमारे साझे ज्ञान का हिस्सा रहा होगा, जिसमें हमने ख़ुद को इस तरह करते जाने पर अपनी सहमति दी होगी. यह हमारी साझी वास्तविकता लगते हुए भी हमारी निजी समझ है. इसमें हमने लगातार चीज़े जोड़ी होंगी और ग़ैर ज़रूरी सामान को खिड़की से बाहर फैंक दिया होगा.  इसी मौसम में कोई होगा जो अपनी डायरी में कमरे के एकांत को लिखता हुआ चुपचाप किसी खो गयी धुन को सुन रहा होगा. उसने भी सपनों में अपने सपने बुने होंगे. पर जैसे ही वह खिड़की के बाहर झाँकता उसे कोहरे की चादर से ढके कश्मीर में अपनी मंजिलें खोती हुई मालुम पड़ती. वह रोने को होता. पर आँसू जमकर बर्फ़ हो गए हों

चलती हुई ठण्ड

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दिन अचानक आकर डूब जाता है. जैसे सूरज कहीं डूब गया हो. इस सूरज के डूबने उतरने के समय आहिस्ते से अँधेरे के छोटे-छोटे कण इकट्ठे होकर इतने सघन हो जाते कि अँधेरा हो आता. इस अँधेरे में हमारी आँखें नहीं देखतीं. ऐसा नहीं है. वह इसी अँधेरे को एकटक देखती रहती. इसका भी किसी भाषा में कोई मतलब होगा. शायद एक रंग में कई रंग छिपे हुए होंगे. जैसे इन ठंडी हो गयी शामों को ऐसे ही न जाने कितने ख़याल आकर ठिठक जाते. पर कभी उनका लिखना नहीं हो पाता. दोस्त दूर से याद करते हों जैसे. पास आने के लिए पैसों की ज़रूरत पड़ती है. समानुपात में ज़रूरत पैसों के पास आने की भी पड़ती होगी. ज़रूरत रजाई की भी उतनी ही पड़ती है. जब हवा पैरों के पास चुपके से लगने लगे. कम्बल उघड जाये. तब हमेशा रात के ढाई और तीन के बीच घड़ी क्यों होती है, कभी पता नहीं चल पाया. हमेशा नींद पैरों के ठन्डे हो जाने पर टूटती और टूटता कोई बिखरा हुआ सपना. ठण्ड में दिमाग भी ठंडा पड़ जाता होगा शायद. इन बेखायलों में से कुछ कतरों को इन डायरियों में लिख जाने की फुरसतों से खाली होकर छत पर घूमने की बारी कभी आती ही नहीं. जैसे नहीं आती हवा में अदरक की चाय की महक. उन छज्

एक कतरा

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यह बात बहुत बचकानी लग सकती है. पर कहना ज़रूरी है. इसलिए देर से सही पर एक सही बात कहने की कोशिश कर रहा हूँ. हो सकता है, यह कोई नयी बात न हो. हम सब इसे पहले से जानते हों. पर कभी-कभी होता है, हम देर से महसूस करते हैं. उसी को कह रहा हूँ. हम जब इसे बना रहे थे, तब हम सब अपनी अपनी दुनियाओं से निकल कर एक नयी दुनिया का सपना बनाने चले थे. हम आये अपनी दुनिया से थे, जो हमारे अन्दर बन रही थी. आकार ले रही थी. वह कहीं अभी भी अन्दर हम बुन रहे हैं. इसी एक बात को हमें भूलना नहीं चाहिए था. यह भाव अब दोबारा सतह पर है. दिन पर दिन यह भाव बोझ बनकर दिल को तोड़ रहा है. हम यह कैसे नहीं समझे कि हम सब एकसाथ होते हुए भी अपनी अपनी दुनियाओं से आ रहे थे. हम उनके प्रतिनिधि थे. यह हमारे मनस में यह दुनिया कैसी भी हो, हम उसे टूटते हुए नहीं देख सकते. यही वह क्षण था, जब हम इस समूह के बाकी अपने से बाहर हर किसी के लिए सबसे निर्मम होकर सामने आये. हम यह नहीं समझे कि उनकी की भी अपनी दुनिया है, वह भी उस दुनिया को अपने मन में बुन रही होगी. उनके के मन में हो सकता है, उसका कोई और नक्शा हो. उन्हें कैसा लग रहा होगा कि हम इतने अड़

सहूलियत

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जो हमारे लिए आज सहूलियत है, वह कब हमारे लिए सहूलियत नहीं रहेगी कोई कह नहीं सकता. हम जिसे सहूलियत कह रहे हैं, उसे भी जाँचा जाना चाहिए. हम किन्हीं औजारों को सहूलियत कह रहे हैं या विचारों तक पहुँच जाने की लड़ाई को? या यह औज़ार ही हमारे लिए सहूलियत पैदा करते हैं? इसे समझना कतई गणित के सूत्रों जितना कठिन नहीं रहा है. हम बर्बर से सभ्य होने के नाटक में अभी तुरंत इसे पलक झपकते समझ सकते हैं. कुछ को तो आज इक्कीसवीं सदी में औज़ार शब्द से ही कोफ़्त होती होगी. हमें नहीं है. यह भाषा भी एक मारक औज़ार ही है. इसी में हमने अपने इतिहास को बुना है. उसकी अतीत हो चुकी घटनाओं को पुनर्सृजित किया है. इसी ऐतिहासिक कालक्रम में हम उन विचारों को भी सहेजते हुए चलते रहे, जिनसे इस दुनिया में कई चीज़ों को तय किया जाना बाकी था. आज तक हम इन्हीं से चीज़ों को समझने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि यह अकेले कुछ कर पाए हैं. इन्हें इनसे और बर्बर औजारों की ज़रूरत बराबर पड़ती रहती है. समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं. एक देश है, जो समझता है हमारे यहाँ की शासन प्रणाली दुनिया की सबसे बेहतरीन प्रणाली है. सभी देशों को इसे अपना

बीते हुए शहर में

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कभी कोई सोचता होगा, कैसे एक शहर के बीच दूसरा शहर रह सकता है. इसे एक दूसरे में समाया हुआ भी कह सकते हैं. जैसे हवा हमारे आसपास बह रही होती है, वैसे ही कितने शहर हमारे साथ चलते रहते होंगे. पर हम इस तरह सोचने के आदी ही नहीं होते. सब हमारे सामने बिखरा पड़ा रहता है. फ़िर भी नहीं. यही बीते हुए शहर कहीं हमारे हमारे वर्तमान का अतीत है. इसी तरह उस दुपहरी हम एक मामूली से लोहे के दरवाज़े को पार करके उस शहर में दाख़िल हुए, जो अब सिर्फ़ चार चारदीवारी के भीतर बचा रह गया है. जिस शहर में हम आज रहते हैं, उसकी चारदीवारी इन आँखों से दिखती नहीं है. शायद दिख ही नहीं सकती. जिस शहर में हम कुछ देर पहले दाख़िल हुए हैं, उसमें हमारे आज का शहर दाख़िल न हो जाये, इसलिए इसकी चारदीवारी एक सीमा रेखा की तरह वहाँ मौज़ूद है. चारदीवारें हमेशा से इस काम को ख़ूब मन लगाकर करती आ रही हैं. वह हमें इस आवाजाही को रोकने का सबसे कारगर हथियार लगती है. कहने को इस शहर में अब कोई नहीं रहता. कोई इन खण्डहरों में रहकर क्या करेगा? इस बचे हुए शहर की जिम्मेदारी एक सरकारी पहरेदार पर है, जो शाम को शायद ताला लगाकर किसी और मुलाजिम को रखवाली का काम

कोटला तक..

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मैं बिन घड़ी, बिन मोबाइल स्टैंड पर खड़ा रहा. भीड़ मेरे इर्दगिर्द पैदल चलती रही. कुछ भीड़ से निकलकर बसों में खुद को भरते हुए सीलमपुर, कश्मीरी गेट की तरफ़ ले जाते रहे. कुछ वहीं भीड़ में अटके रहे. मैं भी उस भीड़ का एक हिस्सा हूँ और ख़ुद को भी इस तरह देख सकता हूँ. पर नहीं देख रहा. यह मेरा नहीं उन सबका काम है, जो मुझे वहाँ खड़ा देख रहे हैं. जैसे उनके बारे में सोच रहा हूँ, वह भी मेरे बारे में उन ख्यालों से भर गए होंगे. यहाँ हम सब मिलकर उस भीड़ का हिस्सा थे, जो सड़क पर बिखर गयी थी. यह सड़क एक शहर का हिस्सा है और इस तरह यह भीड़, अपने आप में शहर का प्रतिनिधित्व कर रही है. भीड़ में अगर हम अपनी आँखों से देखे हुए चेहरे नहीं भूलते, तब यह बहुत मुश्किल काम होता कि आप ऐसे लोगों से घिरे हुए हैं, जिनमें से अधिकाँश के चेहरे आपको याद हैं और आप जिसका इंतज़ार कर रहे हैं, वह चेहरा अभी तक दिख नहीं रहा है. भीड़ तभी तक भीड़ है, जबतक हम उन सबसे अनजान हैं. अगर चेहरे से जान रहे होते, तब कोई-न-कोई किसी-न-किसी से बात कर रहा होता और हम उसे नहीं देख पाते, जिसके इंतज़ार में वहाँ पंद्रह मिनट से खड़े हैं. खैर,इसी भीड़ में बराबर आग

एकांत सा

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हम अपना एकांत कब बुनते हैं? शायद तब जबकि हम इसकी कोई छवि अपने मन के भीतर बनाते होंगे. यह तस्वीर दूसरे से मेल कर भी जाये, तब भी उसके मानी मिल जाएँ, यह इतना आसान नहीं है. सतह पर एकांत ख़ुद को अकेले कर लेने की प्रक्रिया लगती है. पर ऐसा है नहीं. जैसे अगर मुझे बड़ी सी दुनिया के किसी ख़ास कोने में यह मिलने लग जाये, तब मैं उसके लिए कोशिश करने लगूँगा. तब भी मैं अकेला हूँ, इसका कोई प्रमाण मेरे पास नहीं होगा. क्योंकि असल में यह हमारा और सिर्फ़ हमारा मानना है कि अब हम अकेले हैं और यह हमारा बनाया हुआ एकांत है. हम उन चीज़ों का क्या करेंगे, जो वहाँ हमसे पहले भी मौज़ूद थीं. वह खाली लगता कमरा, जिसमें हम समां जाने वाले हैं, उस कमरे का भी अपना एकांत होगा, जो हमारे आने से भंग हुआ होगा. कोई सोचे, वह वहीं खिड़की के किनारे मेज़ पर पूरा दिन लिखता रहेगा और वह अपने समय को उन पन्नों पर दर्ज़ करता चलेगा. सामने कोई भी अनचाही चीज़ प्रकट नहीं होगी, तब वह उसका एकांत है. वह जो चाहे, वहाँ करने के लिए स्वतंत्र है. उसे लगता है, वह अकेला है, पर कलम उसके साथ है. वह किताब, जो वह वहाँ पढ़ने वाला है, वह भी अब अकेली कहाँ रह गयी है.

आज दिन

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कभी-कभी कोई दिन ऐसा भी होता होगा, जब हम घड़ी भी अपने साथ नहीं ले जा पाते होंगे. यह भूलना नहीं है. ख़ुद जानबूझकर छोड़ देना है. यह मेरी मर्ज़ी नहीं थी कि इस भीड़भाड़ वाले दिन, मैं जमा मस्जिद से एक स्टैंड पहले खड़ा था और मेरे पास न तो घड़ी थी न मोबाइल. इसे ही उस दिन एक परिचर्चा में एक अमेरिकन समाजशास्त्री हमारा 'सेकेण्ड सेल्फ़' कह रही थीं. हमने इस तकनीकी यंत्र पर अपने 'आत्म' का आरोप इस कदर कर दिया है कि हमारी दुनिया इसके बिना अधूरी-सी लगने लगती है. तब यह उसे बना ही नहीं रहा होता बल्कि उसे नियंत्रित भी कर रहा होता है. पर आगे आने वाले समय में कहीं ऐसी किश्तें भी होंगी, जब हम हफ़्ते में दो दिन, इन मशीनों के चंगुल से निकलने के लिए अपनी मर्ज़ी से इन्हें तालाबंद लॉकर में रखकर इस दुनिया में शामिल होने निकल जायेंगे. भले दुनिया में यह विचार तबतक अपनी पकड़ न बना पाया हो, तब भी हमें अपनी दुनिया में ऐसा करना होगा. मेरे लिए यह काम नवोदय विद्यालय समिति कर चुकी थी. उसकी दुनिया में कुछ भी लेकर नहीं जाना था. बस पहचान के लिए पहचानपत्र से काम चल जाने वाला था और एक रेनॉल्ड्स का नीली स्याही वाला पैन उ

मान लेना

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कब कोई किसी की बात मानता होगा? इसे आज सवाल की तरह ही पूछा जाना चहिये. यह समय अपने भीतर इस मान लेने की कई कथाएं समाये हुए है. कोई कहता होगा कि उसकी बात मानने लायक है. उस मानी जाने वाली बात में यह मूल्य उसके भीतर से आये, तब उसे नैसर्गिक कहा जायेगा. जब बाहर से बताया जाये और वह बात ख़ुद अपनी स्वीकार्यता प्राप्त न कर पाए, तब हमें सोचना चाहिए, कोई क्यों उन न मानी जा रही बातों का प्रवक्ता बन बैठा है? अगर वह हम सबकी सहमति से निर्णय करने वाला है, तब उसे निर्णय करने से पहले पूछना चाहिए. अगर वह बाद में पूछ कर उस लिए गए निर्णय की वैधता को प्राप्त करना चाहता है, तब मुहावरों में हमने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं. अपनी भाषिक कुशलता का प्रयोग करते हुए वह सारे विशेषण, सर्वनाम और विकारी पद रेखांकित कीजिये, जिन्हें किसी व्याकरण के पुरोधा ने हमें नहीं बताया है. बल्कि हमने उसे गढ़ा है. और ध्यान से देखिये, वह अपनी बात मनवाने के लिए किन प्रतीकों, रूपकों, बिम्बों का इस्तेमाल कर रहा है? कहीं हमने चुप रहकर उसे इन सबका एकाधिकार तो नहीं दे दिया है. अगर हम आज चुप हैं, अपनी असहमति किसी तरीके से नहीं जता रहे

इच्छा

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इसे एक सरल वाक्य से शुरू करते हैं. हमें सबसे पहले किसी भी इच्छा के पहली बार स्त्री-पुरुष में उभरने और अंकुरित होने की प्रक्रिया को रेखांकित करना होगा. यह आसान काम नहीं है. हम बस अपना दृष्टिकोण रख सकते हैं, जिसे ऐतिहासिक सामाजिक अंतर्क्रिया के भीतर जाँचना होगा. उसकी तार्किक संगति ही उसकी वैधता को स्थापित करेगी. जबतक कि कोई दूसरा उस अधिसंरचना को तोड़कर सामने नहीं रख देता. तो हमारे सामने एक सवाल है, जिसे एक उत्तर से देखा जा सकता है. हमारी इच्छा तभी तक निजी है, जबतक कि उसकी सार्वजनिक उपस्थिति दर्ज़ नहीं की जाती. मतलब, जैसे ही उनका ‘सार्वजनिक उत्पादन’ शुरू होता है, वह ‘निजी’ तो बिलकुल भी नहीं रह जाती. इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है. जिसमें कई दूसरे तफसरे भी शामिल हो गए हैं. पर उन्हें कहा नहीं जाएगा. जैसे किसी स्त्री का काजल लगाने का निर्णय उसकी सामजिक-सांस्कृतिक परिवेश के भीतर बनी इच्छा का प्रतिफलन है. ऐसे ही यह इच्छा उसकी समकालीन स्त्रियों में भी पायी जा सकती है. लेकिन जैसे ही यह ‘काजल’ किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का उत्पाद बन जाता है और उसका बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू कर दे, तब

कम अश्लील पन्ना

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लड़कियाँ उस माल की तरह होती हैं, जिन्हें कभी लड़कों के द्वारा भोगा जाना है. यहाँ इस आपतिजनक शब्द की जगह कोई अधिक मानवीय, स्त्रैण शब्द का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. पर उससे इसके अर्थ में किसी प्रकार की तबदीली आएगी, कह नहीं सकता. इस दुनिया में, और शर्तिया यह मेरी या मेरे आसपास की दुनिया ही है, जहाँ से यह सब मैं कह पा रहा हूँ और इस बात को रोज़ अपने सामने घटित होता देखता हूँ. वह अपने मन में कब इस बिंदु पर पहुँचकर थम गयी होगी, कि होंठों को किसी चीज़ से रंगने पर वह कुछ और सुन्दर ‘लगने लगेगी’? यह ‘लगने का भाव’ ही किसी ‘बाहरी’ दबाव को रेखांकित करता है. हम सारी जिंदगी इस ‘लगने’ में गुज़ार देने के लिए ख़ुद को उन खाँचों में बंद करते रहते हैं. हम लड़के भी कभी इस तरह ‘मैनेज’ कर दिए गए होंगे? उनमें कैसे हम यह झाँकते हुए देखते हैं कि हम उन्हीं होंठों की तरफ़ झुके जा रहे हैं? इसका एक सीधा सा अर्थ है, कोई बाहर से हमें हमारे मानक गढ़ने में मदद कर रहा है. जिसे मैं ‘मदद’ कह रहा हूँ, उसे योजनाबद्ध तरीके से किसी गुप्त योजना का हिस्सा भी कहा जा सकता हैं. नाम लेने की ज़रूरत नहीं हैं. मैं अपने बगल में खड़ी लड़की के

सुनीता बुआ

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बड़े दिनों से बुआ पर लिखना टाल रहा हूँ. ऐसे ही पिछले महीने का कोई इतवार रहा होगा. पापा महरौली के किसी सरकारी अस्पताल में बुआ को देखने गए थे. सुनीता बुआ उनकी सगी बहन नहीं हैं. हमारी दादी की बहन, मतलब उनकी मौसी की लड़की हैं. दादी गाँव में थीं, उनकी बहन इस शहर में. एक शाम कपूर चाचा ने फ़ोन करके बताया, डॉक्टर कह रहे हैं, सुनीता अब बचेंगी नहीं. घर में कोई बात हुई होगी, तब मैं घर पर नहीं रहा होऊँगा. अधिकतर हम खाना खाते वक़्त ही घर पर होते हैं या ऊपर इस कमरे में. मम्मी पैर में दर्द के कारण ऊपर नहीं आतीं. पापा दफ़्तर में होते हैं. बात होती भी तो कब होती. वजह कुछ भी रही हो, नहीं जान पाया कि कौन सी बीमारी उन्हें है. पर शायद बहुत पहले हम सब मिलकर यह तय कर चुके हैं, वह कौन सी बीमारी है? अभी भी आप भोले बन रहे हैं, इसलिए कह देता हूँ. उनका लड़की होना ही सबसे बड़ी बीमारी है. लोग कहते हैं, गोरी लड़कियों को अच्छे घर मिल जाते हैं. लोग सिर्फ़ कहते हैं. मिलते नहीं हैं. उनकी शादी जिससे हुई थी, उनकी चाल में थोड़ी लचक थी. मैं लचक इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि स्मृति में वह बहुत धुंधले हैं. वरना उन्हें लंगड़ा लिखता.  

दो दिन मोरनी

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दो दिनों से हमारी छत पर एक मोरनी पीछे जंगल से आ जाती है. कल तो सुबह ग्यारह बजे आकर बैठ गयी और पूरी छत के न मालुम कितने चक्कर उसने लगाये होंगे. कभी कहीं बैठ जाती कभी कहीं. शाम अँधेरा हो गया होगा, जब मैं पानी भरकर ऊपर वापस आया, तब देखा तो वह जा चुकी थी. आज दोपहर फ़िर हम छत पर लौटे तो वह यहीं थी. उसे डर नहीं लग रहा. हम मोर नहीं हैं. हम उससे अलग दिखते हैं. फ़िर भी वह हमारे आसपास बनी रहती है. उसका मोर कहाँ है? पता नहीं. उसका मोर शायद वही होगा, जो कभी सुबह स्कूल की छत पर दिख जाता था. कभी-कभी वह अपने अधखुले पंखों से साथ मुंडेर पर घूमता रहता था. उसे कोई देखने वाला नहीं था. शायद वह किसी को दिखता भी नहीं होगा. हम ही सब चीज़ों को देखने लायक समझने लगते हैं. पर हम सब दो दिन से यही सोचे जा रहे हैं कि वह अगर यहाँ इस छत पर इतनी बेतकल्लुफ़ी से घूम रही है, तो उसे जंगल को ऐसा क्या हुआ होगा(?) जो वह अपने दिन के कई घंटे हमलोगों के साथ बिता रही है. उसका जंगल क्या जंगल से किसी और चीज़ में तब्दील हो रहा है? पता नहीं. हो सकता है, उसके व्यवहार में यह परिवर्तन हमसे मिलने के बाद आया हो. या कहीं उसने हमारी आँखों मे

गुजरती रात

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रात सवा नौ बजे हैं और लिखने का मन कतई नहीं है. कुछ यादें हैं, जो बेतरह अन्दर चल रही हैं. कुछ अनकही सी. कुछ बीत गयी. पर एहसास है के यहीं आस-पास है. अभी कितना ही कुछ नहीं कहा है. जितना कहा है उसमें भी एक तरह के रंग भर दिये हैं जैसे. जो नहीं कहता वह भूलता जाता हूँ. जो कहीं लिख छोड़ा है, वह कौन सा दिमाग पर टंगा रहता है. पर एक दिन आएगा, जब हिसाब करते हुए उन बातों को भी लिखना होगा, जो अभी तक कहीं नहीं कही हैं. कितने कतरे ऐसे होंगे, जिन्हें अन्दर ही अन्दर दोहराते हुए चबा गया होऊँगा. कितनी कतरनें जेब में रखी बस टिकट की तरह पानी में धुल गयी होंगी. बची होंगी उनकी रंगत। पर सबसे पहले देखना होगा यह कौन है अन्दर जो बाँट देता है. किसे कैसे कहना है, किसे बिलकुल भी नहीं कहना है. वो मैसूर जाती रेलगाड़ी में बगल की सीट पर इनफ़ोसिस की किसी लाइब्रेरी की किताब पढता हुआ लड़का. इस नवम्बर में देहरादून जाती बस में किसी ऑनलाइन प्रोजेक्ट पर बात करते हुए दो दोस्त. हमारा जून में बैंगलोर जाना. वर्धा से लौटते हुए तस्वीरों में रह जाना. इधर ग्यारह साल बीत जाने के बाद दोबारा नानी के आधे बिक चुके घर को देखते हुए डूब

गुजरती शाम

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दिसंबर एक. साल दो हज़ार सोलह. तीस दिन बाद सब नए साल से उम्मीद लगायेंगे. लगा लो भाई. शायद कुछ हो ही जाये. पर फ़िलहाल अभी कुछ भारी भरकम कहने का मन नहीं है. कभी ‘बॉन्कर्स’ आती थी, उसके स्वाद की याद आ गयी. ऐसे ही ठन्डे दिन हुआ करते थे. शामें ढलने के बाद और ठंडी होती रहती थीं. हम जेब में कभी मूंगफली, कभी गजक, कभी कोई टॉफी लिए लिए डोलते रहते. इन यादों के कोई तयशुदा साल नहीं हैं, जैसे कई सालों बाद इन दिनों के कोई साल बचे नहीं रहेंगे. कभी मोज़ों के साथ पैरों को ठण्ड से बचाते हुए मिलेंगे. गले में मफ़लर डाले. कभी स्वेटर, कभी स्वेट शर्ट में ख़ुद को समेटे हुए. इधर कई महीनों बाद ख़ुद के लिए सपने दोबारा देखने शुरू किये हैं. सपने अधिकतर किसी को बताये नहीं जाते. मैं भी नहीं बताने वाला. चुपके से कहीं डायरी में लिख कर रख लूँगा. पर जब उस सपने से गुज़र रहा होऊँगा, उसके बाद मेरे पास कोई और सपना बचा होगा? हो सकता है, हम सब ऐसे ही छोटे-छोटे सपनों में अपनी बड़ी सी रंगीन दुनिया को बुन लेते हों. सच होने पर हम उन्हें छू भी पाते हैं और महसूस भी कर रहे होते हैं. पर पता नहीं जितना उस सपने तक पहुँचने का सफ़र याद रहता