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हिंदी छापेखाने की दुनिया

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इन दिनों कई सवाल मेरे मन में अचानक घर नहीं कर गए हैं, बस वह थोड़ा अधिक तीव्रता से दिमाग में चल रहे हैं । बस अगले कुछ मिनट इन्हीं सवालों से दो-चार होता हुआ कुछ बातें याद करते हुए लिख रहा हूँ । कोई उन्हें अन्यथा लेना चाहे, वह उन्हें वैसा लेने के लिए स्वतंत्र है । बात तब की है, जब हम दिल्ली विश्वविद्यालय से लगभग चौदह पंद्रह साल पहले एमए (हिन्दी) करने आए, तब जैसा कि होना चाहिए, उसका कोई निर्धारित पाठ्यक्रम था । उसमें निर्धारित पुस्तकों को किन्हीं लेखकों ने लिखा था और वह किसी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित थी । यह पाठ्यक्रम उन किताबों तक पहुँचने का पहला जरिया बना । वहीं अगर यह पाठ्यक्रम न होते तो कितने प्रकाशन गृहों का क्या होता, कुछ समझ नहीं आता । उनकी आमदनी का बहुत बड़ा जरिया यह बीए, एमए में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं, जो अंततः ग्राहक या उपभोक्ता बन कर रह जाते हैं । प्रकाशक सीधे ‘ग्राहक’ कहेगा, थोड़ा अच्छा नहीं लगता, इसलिए उसे ‘पाठक’ संज्ञा दे दी जाती है । वही उसका एकमात्र ‘विशेषण’ बनकर रह जाता है । अब आप इस प्रक्रिया के दूसरी तरफ़ चलकर देखते हैं । जिसमें छोटे-छोटे दो तीन प्रश्न हैं । पहला

बेतरतीब

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किसी भी तरह तो इस वक़्त को कह नहीं पा रह हूँ । अंदर ही अंदर कितना कुछ बीतते हुए यह महसूस न होना कि भाषा भी साथ नहीं देती । लगातार कोशिशों से उसे इस लायक बनाया जा सकता था । एक अभ्यास जो हरदम किए जाने की माँग करता है, उसमें पीछे छूट जाने या किसी से आगे निकल जाने का कोई सवाल नहीं है । बात सिर्फ इतनी सी है, जहाँ से हम चीजों को देख सकते हैं, वह क्यों देख कर वैसी नहीं कही गई ? यह कभी-कभी तो मुझे ऐसा समय लगता है, जहाँ जो जैसा है, उसे वैसा कह पाना भी बहुत मुश्किल है । यह जो 'अभिधा' में न कह पाना है या ऐसे दबाव से घिर जाना है, जो प्रकट रूप से दिख भी रहा है और कुछ कह न पाने की कमजोरी में उसे छिपा ले जाने की चालाकी भर बनकर रह जाता है । इसे चालाकी के अलावे क्या कह सकते हैं? यह जो न लिख पाना है, इसे भी दर्ज किया जाना चाहिए । दर्ज इसलिए के जब यह साल बीत जाएँगे, तब हमारे पास एक याद की तरह कुछ सबूत होंगे । एक दिन, एक शाम, एक पल ऐसा भी था, जब हम भीतर-ही-भीतर कुढ़ रहे थे । जो कहना था, उसे न कहकर बहुत कुछ ऐसी भूमिका को बनाने में खर्च कर चुके थे, जिसकी कोई ज़रूरत भी नहीं थी । इसे किस तरह तो

आबू रोड, 2007

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बहुत पुरानी बात है । हम आबू रोड रेलवे स्टेशन पर गरीब नवाज़ एक्सप्रेस का इंतज़ार कर रहे हैं । रात बारह बजे के लगभग रेलगाड़ी को आना है । हम तीन लोग लगभग सात बजे से ही प्लेटफॉर्म पर तैनात हैं । हमारी टिकट कनफर्म नहीं है । न स्लीपर है न वेटिंग । हम सोच रहे हैं आबू घूम लिए अब यहाँ से आगे चले जाएँगे । बताने वाले बताते रह गए । हम अंबाजी नहीं गए । हम अजमेर जा रहे हैं या वहाँ से होकर आए हैं, यह याद नहीं कर पा रहा हूँ । हम हिमेश रेशमिया की एक खराब फ़िल्म अजमेर में देख चुके हैं या वहाँ पहुँचकर देखने वाले हैं, यह भी अब भूल चुका हूँ । बस यह याद है, इस सबमें हमारा ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ रह गया है । फिर इधर जहाँ अभी हम हैं, वह प्लेटफॉर्म नंबर एक है । प्लेटफॉर्म जहाँ ख़त्म हो रहा है, उस तरफ़ एक वेटिंग रूम है । उसमें एक परिवार है । पति पत्नी और उनके दो बच्चे । एक लड़का, एक लड़की । उन दिनों ट्रकों और टेम्पो के पीछे लिखे हुए वाक्य की तरह दिखाई देने वाला यह आदर्श परिवार कितने गर्भपात के बाद संभव हो पाया, यह आज तक एक प्रश्न की तरह बना हुआ है । बहरहाल । वह लड़का जो अपनी बहन से छोटा है, कान में हेडफ़ोन लगाए, पैरों से

बाबा

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तीन दिन तक डायरी में पैन ऐसे ही पड़ा रहा । कुछ लिखते न बना । लिख जाने से भी वह दुख कम हो जाता, ऐसा कह नहीं सकता । यह तब से रिस रहा है । इतवार की सुबह थी । साल का पहला इतवार । पाँच जनवरी । ठीक से साढ़े नौ भी नहीं बजे थे । फोन बजा । बाबा नहीं रहे । इस वाक्य को सुन लेने के बाद कुछ नहीं सूझा । दिमाग शून्य या मृत्युबोध से भर गया हो ऐसा भी नहीं है । हमारे बाबा अब इस दुनिया में नहीं हैं । इसके बाद कुछ चल ही नहीं पाया । अतीत की जैसी भी स्मृतियाँ हमारे पास हों वह इतनी घुली मिली होती हैं, उसमें से किसी पात्र के लिए आप कुछ अलगा पाएँ, ऐसा तुरंत हो पाना तो बिलकुल भी संभव नहीं है । अभी भी ऐसा कुछ कर जाऊंगा, लगता नहीं है । बाबा के साथ के सभी लोग, जैसा सब कह रहे हैं, उनसे छोटे उनसे बड़े, यहाँ तक आते-आते (कबके) उनसे छूट गए इसका कोई ब्यौरा मेरे पास नहीं है । वही बता रहे हैं, कोई नहीं बचा । सब एक-एक करके चले गए । आगरा होते हुए हम पहले लखनऊ पहुंचे । फिर लखनऊ से बहराइच । अभी सुबह हुई नहीं है । साढ़े तीन बज रहे हैं । सब एक तसले में लकड़ी जलाए उसे घेर कर बैठे हुए हैं । सब मतलब दो बड़े भाई । उनके पिता । हमारे ताऊ