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हंस में आना

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यह बात लगभग दो हज़ार छह-सात के आस पास की रही होगी, जब हमने ‘हंस’ को शिवाजी स्टेडियम पर अखबारों के साथ पत्रिकाओं के बीच देखा। प्रेमचंद ने इस नाम से पत्रिका निकालना शुरू किया था, यह पता था, लेकिन यह नहीं पता था, सन् 86 से राजेन्द्र यादव इस पत्रिका का पुनर्प्रकाशन और सम्पादन कर रहे हैं। तब हम लोग ग्रेजुएशन के आखिरी साल में थे। यह तय नहीं था, आगे क्या करेंगे। बस दो साल के लिए एम ए हिंदी में चले आये। तब लगता, पढ़ेंगे नहीं तो लिख कैसे पाएंगे। क्या लिखेंगे, कैसे लिखेंगे कुछ नहीं पता था। बस एक ही ख़याल था, लिखेंगे।  वह कुछ वक्त भी ऐसा था, जब मन किये रहता, लिखो और उसे कहीं छपने के लिए भेज दो। शायद अपने लिखे हुए को सबके साथ बाँटने की इच्छा तब बहुत रही होगी। फिर जैसा होता है, जो पढ़ता, जिस विधा में पढ़ता वैसा ही लिखने के लिए सोच कर कुछ दिन लगा देता। एक डायरी में कविताओं के ख़ाके बनाये, आज वह पता नहीं कहाँ होगी। वह कहीं खो गयी । उसे कभी ढूँढने की कोशिश नहीं की। एक कहानी लिखकर किसी पत्रिका के द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में भेजी। वहां से जवाबी खत में सदस्यता लेने को कहा गया। कहानी वहीं छूट गयी। फ

आठवीं सालगिरह

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पता नहीं क्यों आज लिखने का मन हो गया । जब से यहाँ आया हूँ, यहाँ ढलने और इस वक़्त को पकड़ने में बहुत सा वक़्त खर्च होने के बाद भी ज़्यादा कुछ समझ आया हो, कह नहीं सकता । यह दो दिन, एक पिछला और एक आज का, दोनों दिन मेरे अंदर इसी तरह उतरते से लगते हैं । मेरी पहली जगह, जहाँ सबके सामने कहने का सहूर सीख रहा था, अगर वहाँ लगातार कहता रहता तो आज आठ साल पूरे हो जाते और नवें साल में प्रवेश कर जाता । कितना तो कभी कह ही नहीं पाया । कहा भी क्या, ख़ुद को आईने के सामने रखकर कहने और ख़ुद को संभालने में ही सारे शब्द खर्च हो गए ।  आज सोचता हूँ, वह ताप कहाँ चला गया ? उसकी तासीर में कुछ ऐसा था, जिसमें कहने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नहीं था । नाम भी क्या ख़ूब था उस जगह का । करनी चापरकरन । कुल पाँच साल (2010-2015) वहाँ लगाए और जैसे होता है, हम बिन बताए कहीं के लिए निकल पड़ते हैं, मैं भी उसे छोड़कर आगे बढ़ गया । आज मैं उन वजहों को बहुत पास से महसूस करता हूँ तो लगता है ठीक ही था वहाँ से चले आना । क्या करता वहाँ रुके रहकर । मेरे लिए यह भावुकता आत्म प्रगल्भता का दिन भी है । कहाँ से लाता था कहने का कच्चा माल ? क्या

शहर और दुनिया के बीच

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शहर / शहर को कोई लड़का कैसे देखेगा? कौन सी उसकी स्मृतियाँ बनेंगी जो उसे एक लड़के की तरह शहर को उसके सामने प्याज की तरह उसकी तहें खोलता जाएगा ? क्या वह हाथ में लाख की लाल चूड़ियाँ पहने लड़की की कमर होगी या उसके स्तनों की वक्रता ? या उसकी आँखें उस लड़के को देख रही होंगी, जो उस लड़की को उसकी कलाइयों, हथेलियों और जहाँ चाहे वहाँ से पकड़ लेने की उसकी इच्छा को टटोलता हुआ कुछ अपने दिनों की तरफ़ लौट रहा होगा? शहर जितना बड़ा होगा, बाजार उतना ही घर से दूर होगा और पहचाने जाने का कोई भय या डर नहीं होगा । इस बात के पहले सिर्फ़ छू लेने का ऐसा चित्र उसके सामने कब घटित हुआ होगा, वह याद नहीं कर पाएगा । क्या उसके माता पिता उसके सामने कभी ऐसे आए होंगे या भौजाई के साथ भाई को कभी इस तरह इच्छाओं में सार्वजनिक रूप से तैरते हुए देखा होगा ? जितना इन बातों को पढ़ लेना अश्लील लग रहा है, क्या कभी शहर में चहलकदमी करते हुए उन हाथों, होंठों, बालों को कभी इसी तरह देखते हुए तब आप कुछ फ़र्क करते हुए चलते हैं ? क्या आपने इस लड़के में अपनी छवियाँ नहीं देखिन ? भले यहाँ लड़का लिखा है, क्या यहाँ लड़की लिखा होता, तब कुछ और प्रस्थान ब

टूटने से पहले

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कभी-कभी तो मुझे लगता है, किसी को भी कुछ कहने की ज़रूरत ही क्यों आन पड़ी है ? क्या जो कहा जाना है, वह उनके भीतर खुद कभी नहीं उतरेगा ? उसे, उस कहने को किसी सहारे की क्या ज़रूरत ? क्या ऐसे आने में वह स्वाभाविकता थोड़ी स्थगित नहीं हो जाएगी ? तब अगले ही क्षण यह भी महसूस होने लगता है, कोई किसी को कितना भी कह ले, वह तभी लिख पाएगा, जब कोई बात उसके अंदर बेचैन होती हुई अपने आप उगने लगेगी । अभी अगर देखूँ, तब पिछली बातें चाहते न चाहते किसे लिखी गयी हैं, वह बहुत साफ़ तौर पर दिख रहा है । एक लड़का है, जो वह लिख सकता है, जैसा लिख पाने की इच्छा को उसमें देखता हूँ, उसके बाद भी वह कागज़ के बाहर कह पाने में एक अजीब तरह के दबाव को महसूस करता प्रतीत होता है । यह सामाजिक बंधन हैं या उन अकथित अनुभवों के बाहर आ जाने के बाद अपनी छवि के टूट जाने का डर, इसे वह मुझसे अधिक जानता होगा । यह उसे तय करना है, कब और कैसे उन अकथित ब्यौरों को सबके सामने आना चाहिए । मैं उन पंक्तियों के लिखते हुए भी बराबर यह बात महसूस कर रहा था, कि एक लड़का अगर इस तरह से अपने मन को नहीं बता पा रहा तब उस स्थिति में क्या होता, जब उसकी जगह को

याद रखने वाली बात

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एक बार एक चाँद था । उसकी रौशनी में बैठा वह कुछ सोच रहा था । उसे लगा, बारिश की बूंदों के साथ अगर वह नीचे आ पाता तो कितना खूब होता । इस कल्पना से वह बहुत रोमांचित हो उठता । वह बैठा है और इसी के ख़याल में डूबा हुआ है । जैसे रेल के डिब्बे में खिड़की खोलकर वह इन्हीं हवाओं में हिचकोले खा रहा हो । वह किसी से कुछ कहता नहीं है । बस बैठा रहता है । उसे कभी तो कोई प्रेम पत्र भी लिखना होगा । तब तक के लिए उसे कभी छुआ ज़रूर होगा । छूकर ही वह धड़कनों का अंदाज़ लगाना चाहता है । अगर कुछ सुन नहीं पाया फ़िर भी नब्ज़ मिल गयी, तब उनका यह साथ बहुत दूर तक चलता हुआ दिख जाएगा । वह तब भी मुझे कुछ नहीं बताएगा । उसे लगेगा, इस स्पर्श को कह देने वाली भाषा का उसके पास अभाव है । या कुछ ऐसा जो उसने महसूस किया है, वह भाषा में आते ही या तो टूट जाएगा या उसका एहसास कुछ कम होता जाएगा । वह कहता है, वर्जनाएं वह भी कहना चाहता है । कहता नहीं है । कोई कैसे अपने मन में भीतर की बात नहीं कह पाता, उसे इस पर भी कुछ कह लेना चाहिए । वह अभी जानता है, चाह कर भी न कह पाना उसे अंदर से कैसा कर जाता है । एक बार वह इससे बाहर आ गया, तब उन गले म

उस कविता के बाद

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यह बहुत अजीब बात है । इस लिखने का ख़याल मेरे भीतर घटित हो जाने के बाद भी वह क्षण कहीं दर्ज नहीं हैं। कहीं कोई निशान तक नहीं है। अगर है, तो मेरे मन में पड़ी कुछ रेखाएं हैं, जिन्हें दोबारा या तो कहकर या लिखकर ही सबको दिखा पाउँगा। इसके अलावे वह क्या होगा, कैसा होगा, कुछ नहीं पता। मन में बहुत सी ऐसी बातें हैं । हरदम उनके तकाज़े हैं। किस तरह यह जगह जब नहीं थी, तब भी यह प्रक्रिया इसी तरह स्थगित थी, जैसे पिछले दिनों से यहाँ सब बंद है। अपने दोस्त को उस कविता में लाने के बाद उसका कुछ कम दोस्त रह गया शायद। वह धागा अपने अंदर मैंने ही तोड़ दिया। मिलने पर उन्हीं बातों को दोहराए जाने के पलों में उसी तरह साथ छोड़ देना मुझे बेहतर लगा। हम दोनों के लिए यह ठीक ही रह होगा। कितने साल का साथ रहा, यह कोई बड़ी बात नहीं है। ज़रूरी बात यह है, वह साथ कैसा रहा? वह उम्र में मुझसे कुछ बड़ा है। उसके सपने मुझसे पुराने और ज़्यादा आवाज़ वाले रहे होंगे। उनकी गूंज और प्रतिध्वनि मैंने भी उसके साथ सुनी हैं । वह जिस तरह बाहर की तरफ़ जाता है लगता है, उससे कई गुना तेज़ रफ़्तार से वह अपने अंदर सिमटता रहा । वह पंक्तियाँ इस स्थगन काल म

सपने

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१. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के आस पास एक मस्जिद है। तालाब हैं। कई सारे। लड़कियां खेल रही है। पुलिस लगी है। सुरक्षा के लिए। तभी एक पुलिस वाला एक तालाब के पास भगा। उधर से एक महिला पुलिस आती दिखी। वह अपनी क़मीज़ खोल देती है। उसने कुछ नहीं पहना। सब दिख रहा है। पता नहीं मैं कहाँ से यह सब देख रहा हूँ । उसे ऐसा करते देख, मैं दूसरी तरफ दखने लगता हूं। वह अचानक से कूद गई। बच्ची नहीं मिली। वह दरअसल पति-पत्नी हैं। कहानी वहीं सपने में चली जाती है। २. पुल। पानी घुटनों से नीचे है। बह रहा है। हम जंगल में चले जाते हैं । शाम हुई। आसमान नीले से बैंगनी हो गया । लौटते वक़्त पानी कमर से ऊपर है। बहाव बहुत तेज़ है। पुल घाटी जैसी जगह में है। पानी का मटमैला विस्तार दिख रहा है। उस पार जाना चाहता हूं। पानी बहुत बढ़ गया है। मैं संभल नहीं पाता। एक कदम रखा। पानी ले जाने लगा। दूसरा रखा। वह दिखा । उसने चट्टान पर खड़े होकर हाथ पकड़ लिया। वह इस बहाव में भी पुल की न दिखने वाली सतह में डूब चुकने के बाद भी उसी पर दौड़ता हुआ दूसरी तरफ निकल आया। यह बोलता गया, देखा, प्रताप ब्राह्मण होने का ! ३ . पता नहीं इसमे

राकेश दिल्ली आया था

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कहने के लिए मेरे पास बहुत सारी बातें इकठ्ठा हो गयी हैं । कहाँ था इतने दिन ? क्या करता रहा ? क्यों कभी यहाँ वापस लौट कर लिखने का मन नहीं हुआ ? कभी हुआ भी होगा, तब क्यों नहीं आ पाया कुछ भी कहने ? इनमें कोई सिलसिला नहीं है । आपस में एकमेक, गुत्थम गुत्था होती बातें हैं । किसी सिरे से हम कहीं भी जाने को स्वतंत्र हैं । वह कहीं भी पहुँचा देंगी । जैसे कहाँ से शुरू करूँ, कुछ समझ नहीं पा रहा । इधर राकेश दिल्ली आया । एक रात रुका । हम फ़िर अपने पुराने दिनों में घिरते रहे । उसे अपनी लिखी कुछ कविताओं को पढ़वाया । वह भी लिख रहा है । कभी किसी को दिखाये बिना । जैसे एक लिखी है उसने, स्कूल पर । जहां वह पढ़ाता है । उसने कहा था, ड्राफ़्ट भेजूँगा । देखना, कितनी तो काँटछाँट करते हुए किसी एक पंक्ति पर मुकम्मल रुक पाता हूँ । इंतज़ार कर रहा हूँ । वह भेजेगा ज़रूर । कभी-कभी तो लगता है, छिन्दवाडा उसे उकता रहा है । जैसा हमारा राकेश है, उसे वह जगह अपने अंदर समा नहीं पा रही । क्या आप कुछ-कुछ समझते है, हम कभी क्यों पहचान में नहीं आना चाहते ? वह छोटा सा शहर, उसमें राकेश दूर से भी दिख जाएगा । वहाँ कोई दूसरा राकेश नहीं है

वे दिन

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बहुत सारी बातें मन में एक साथ चलने लगी हैं । यह इधर होता नहीं था, कैसे आज हो गया, समझ नहीं पा रहा । बहुत दिनों बाद अपने पुराने ब्लॉग पर गया तो एकदम ठहर गया । कैसा समय था । लिखने वाला समय । कुछ भी लिखने वाला समय । बहुत पुराने दोस्तों को पढ़ते हुए लिखने का समय । यह समय इधर स्थगित हो गया है । मन में कुछ भी कौंधता नहीं हो जैसे । कैसे दिन रहे होंगे । सब कुछ कह देने की इच्छा से भरे हुए दिन । इन दिनों को क्या हो गया ? कैसे यह हथेली से रेत की तरह फिसल गए ? सब कुछ तो था, जिसकी वजह से लिखा देते थे । बेचैनी, जल्दबाज़ी, मन को खोलकर रख देने की ज़िद, उदासी, अकेलापन, कमरा, छत, किताबें, शाम, रातें, वैसी ही बोझिल सुबहें । कहीं से लौटकर थक गयी पीठ, पैर, पंजे । अकड़ गयी कमर, न मुड़ रही गर्दन । सब वहीं का वहीं थम गया हो जैसे । जैसे सब वहीं पीछे रह गया हो । पीछे पलटते हुए अब लगता है, उस वक़्त में कुछ तो रहा होगा, जो इन सबके अलावे कह देने की आवृत्ति को बढ़ा देता होगा । हम बेसबर रहते । जो मन में जिस पल आया, उस पल ही कह देने की छटपटाहट क्या होती है, उन्हीं दिनों जाना । क्या है, जो मुझमें या उस दौर के किसी दोस्त

नये शेखर की जीवनी : कुछ शुरवाती नोट्स

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असद ज़ैदी द्वारा संपादित 'जलसा', अंक चार (साल २०१५) में जब पहली बार अविनाश के गद्य के रूप में 'नए शेखर की जीवनी' के कुछ हिस्से प्रकाशित हुए, तब उन्हें वहाँ 'आत्मकथात्मक' कहा गया था । वहां पढ़ने वाले को वह किसी युवा कवि की डायरी के हिस्से लगे होंगे । मुझे नहीं पता था, यह किसी उपन्यास कही जाने वाली विधा के हिस्से होने जा रहे थे । जैसे कि अविनाश इसे एक प्रयोग मान रहे हैं, इसकी आलोचना या समीक्षा के लिए भी हमें नए प्रयोगों को करने की ज़रूरत है । ऐसा नहीं है, डायरी शैली में पहले उपन्यास नहीं लिखे गए होंगे । अगर उनसे इस विधा को समझने के सूत्र मिलते हैं, हमें उनका लाभ उठाना चाहिए । यहाँ जो भी बात मेरे हिस्से से कही जा रही है, उसे एक समकालीन कवि पर कही टिप्पणी ज़्यादा माना जाये । मैं सिर्फ़ पाठक की हैसियत से अपनी बात कहना चाहता हूँ । इससे अधिक मानने वाले इसे कुछ भी मान सकते हैं । सतही । उथली । अपरिपक्व । दृष्टिहीन । मारक । तीक्ष्ण । सहज । सरल । कुछ भी । इस कृति को पढ़ते हुए लगता है, यह डायरी में कही गयी एक जीवनी है । जो जीवनीकार है, उसके पास इतना अवकाश नहीं है कि वह फुर्

उसने कहा था

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यह भी क्या बात हुई, उसने नाम नहीं लिया पर मेरी बातों पर अपनी बातें कह गयी । नाम लेना ज़रूरी भी नहीं है । नाम से हम एक दायरे में सिमट जाते हैं । वह नाम लेती तो कहते अच्छा तो इसके बारे में बात कर रही थी । अब सही है । यह सीमातीत होकर बचे रहना है । कोई आप तक नहीं पहुँच पाएगा । एक जगह लिख दिया, तुम उतना ही कहा करो, जितना तुम्हारा सच है । क्यों ऐसा एहसास होने देती हो, कि लगे वह सब तुम्हारे साथ घटित हुआ या तुम उसकी साक्षी हो । मैं तुमसे बस एक बार मिला । कोई बात हुई भी नहीं कि चलने का वक़्त हो गया । तुम ही तो लगती रही, कोई मिली है जो सब कह देती है । यह बात भी शायद इसी रौ में कह गया होऊंगा । सोचा नहीं था, तुम उन बातों पर इतना गौर करोगी ।  यह बात बहुत पते की है, अगर अपने लिखे में एक पंक्ति भी सच की कह पायी तो लिखना सध जाये । कभी एक झूठ को छिपाने के लिए एक परिचित सा संसार रचना पड़ता है । इस पर तो कुछ कहते नहीं बन पा रहा । यह दोनों बातें जब से सुनी है, डूब गया हूँ । यह भी हो सकता है, इस संभावना को ख़ारिज नहीं कर रहा, तुमने इन्हें कहते हुए बस कह दिया हो । मेरी बात का कोई हवाला कभी लिया ही न

कवि की बात

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कभी तो सोचता हूँ, कवि कौन होते होंगे? वह कविता की किस परिभाषा से खुद को संचालित करते होंगे । पूर्व में घटित अनुभव या किसी बीती बात का मूल्य ऐसी किसी स्थिति में फँस जाने के बाद पता चलता है । शायद सब जानना चाहते हैं या आलोचकों और समीक्षकों के कहने पर हम सब कवियों के गद्य में डूब जाने की गरज से भर जाते हैं । यह गद्य कवि की कसौटी के रूप में कब सबसे पहले उभर कर सामने आया होगा ? देखता हूँ, कवि भी इससे बहुत भयभीत या संचालित होते रहते हैं । वह सबकी नज़र में इस कदर बने रहते हैं, जैसे हवा में दो छोरों से बंधी एक रस्सी है और उस पर उन सबका चलना तय किया गया है । जो निबंधकार हैं, कहानियाँ लिखा करते हैं, डायरी लिखते हैं, या संस्मरण में अपनी स्मृतियों का अन्वेषण करते हैं, उनसे कुछ अतिरिक्त की माँग कभी नहीं की जाती । वह इस सुविधा का उपभोग क्यों करते हैं और कवि बेचारे ख़ुद को साबित करने या कुछ ज़्यादा बताने के फ़ेर में पड़ जाते हैं । अगर भविष्य में मुझे भी अपनी कविताओं के लिए, जो दरअसल बहुत हड़बड़ाहट में इकट्ठी करनी पड़ रही हैं, उन्हें सबके सामने लाना पड़ा, तब मैं ख़ुद को इस अतिरिक्त विशेषता से ख़ुद को मुक्त

लौटते हुए..

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बहुत दिनों बाद जब आप कोशिश करते हुए वापस लिखने पर लौटते हैं, तब लगता है, कितना तो सब पीछे छूट गया । कैसे उसे कह पाऊँगा ? जिन दिनों नहीं लिख रहा था, तब भी बहुत कुछ अंदर घटित हो रहा होगा । इन्हें उन्हीं गर्मी के दिनों की भेंट नहीं चढ़ाना चाहता । अभी बस इतना ही कह पाऊँगा, जो ख़ुद छटपटा रहा था, उसी को किसी और तरह कहने में लगा हुआ था । यह सिर्फ़ सतह पर घटित नहीं हुआ । उसकी कई सारी परते हैं, जिन्हें उघाड़ते हुए हम वहाँ पहुँच सकते हैं, जहां से यह बात कह रहा हूँ । एक बार उदय प्रकाश ने कभी कहा, यह दुनिया जिस तेज़ी से बदल रही है, अगर कोई उसका गढ़ा संश्लिष्ट ब्यौरा ही कह पाये तो यह उस भाषा और लेखक के रूप में उसकी उपलब्धि होगी । यह वाक्य लगता जितना आसान है, उतना सामने घटित हो रही घटनाओं को समझ पाना और उन्हें एक कहने लायक ढाँचे में लाना सतत अभ्यास की माँग करता है । जिस तरह से कला रूपों ने हमारे यथार्थ को प्रकट या अभिव्यक्त करने के अवसर दिये हैं, उस अनुपात में उन्हें समझने के नए औज़ार हम अभी तक नहीं बना पाये हैं । वह किस तरह वास्तविकताओं को समझते हैं, उन्हें रचते हैं, इन दोनों पहलुओं को समझने और उसमे

आलोक की किताब

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आलोक को उसके यात्रा वृतांत 'सियाहत' के लिए भारतीय ज्ञानपीठ का 13 वां नवलेखन पुरस्कार दिया गया है। जितनी औपचारिक यह पिछली पंक्ति है, इतनी औपचारिकता आगे कहीं नहीं है । सब चौदह मई के समारोह के बाद लेखक के रूप में आलोक में संभावनाओं को अपने अपने अर्थों में टटोल रहे होंगे । उन्हें वह एक लेखक के रूप में ही मिला होगा । मित्रों और साथियों को छोड़कर सबके लिए हम हमेशा ऐसे ही उपलब्ध होते हैं । यह यात्राओं की पुस्तक जिस समय प्रकाशित होकर आई है, यह कौन सा क्षण है, इसके विषय में कुछ भी कहना नहीं चाहता । हमारी पिछले दो तीन साल पहले की बातों में इसके किसी न किसी ख़ाके की बात हमेशा रहती । कहता, एक किताब तो अब आ जानी चाहिए । तुम सुदूर दक्षिण में हो किसी हिन्दी भाषी को इतना समय एस साथ रहने का अवसर नहीं मिला है । इसका उपयोग करना चाहिए । आलोक ने इस समय का उपयोग इन यात्राओं के लिए किया । वह समय कुछ और था, जब उसने अपनी यात्रा को शुरू किया । उसका प्रेम में होना होना उसके चेहरे पर साफ़ दिख जाता । वह यात्राओं पर भले निकलता अकेले हो पर यहाँ बैठे कुछ दोस्त और दोस्त से बढ़कर कुछ साथियों को उसके कहीं ज्ञात

विषय का चयन

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लिखते हुए यह भी गौर करने लायक बात है, हम अक्सर किन विषयों पर लिखते हैं। यह चुनने से अधिक हमारे परिवेश पर निर्भर करता है, ऐसा कुछ भी कहना नहीं चाहता। एक हद तक यह एक महत्वपूर्ण कारक ज़रूर है। जब यह सवाल खुद से पूछता हूँ, तब लगता है, इस पर कभी बैठकर व्यवस्थित चिंतन नहीं किया। पहली नज़र में मुझे जो चीज़ लिखने के लिए सबसे ज़्यादा मजबूर करती है, वह बहुत सारे अतिरेकी क्षण हैं, जिनसे घिर जाने पर कह देना ही एक मात्र विकल्प बचता है। यह किसी भी तरह से कह देना है। जो भाव जैसा मेरे अंदर उतर रहा होता है, उसे उसके सबसे करीब जाकर कह देने में जो चुनौती है, वही मुझे सबसे अधिक प्रिय है। दूसरे शब्दों में कहूँ, तब यह कुछ-कुछ वैसा ही है, जिसमें हम इस पल जिन भावों, अनुभूतियों से गुज़र रहे हैं, पढ़ने वाले को भी उन्हीं के पास लेकर आ पाने में जो संतुष्टि है, वह मुझे ऐसा बनाती रही है। जो मुझे पढ़ते हैं, लगातार लंबे समय से पढ़ते रहे हैं, वह भी ऐसा महसूस करते होंगे। अगर आपको ऐसा नहीं लगता है, तब आप किसी भी पिछले पन्ने पर जाकर इस दलील की जाँच कर सकते हैं। लोग इस आत्मपरकता को दोष की तरह देखते हैं। जिस तरह के समय में हम

भाषा का सवाल

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कभी-कभी मुझे यह एहसास होता है, जिन शब्दों या वाक्यों को अपनी बातें कहने के लिए इस्तेमाल करता हूँ,उनमें एक तरह की कृत्रिमता या बनावटीपन है। दरअसल यहाँ मैं अपनी भाषा पर थोड़ी देर बात करना चाहता हूँ। जिस भाषा का प्रयोग करता हूँ, वह कैसी है? इसकी प्रकृति को अगर थोड़े खुलासे की ज़रूरत है, तब इसे किस तरह से देख पाऊँगा? एक तरह से मुझे यह लगने लगा है, यह जिस-जिस जगह मुझसे दूर होती जाती है, वहाँ इसमें औपचारिकता प्रवेश कर जाती होगी। जैसे, जब, जिन जगहों पर यह संवाद करना चाहती है, वहाँ एक तरह का दंभ या अहंकार इसमें समा जाता होगा। यह एक ऐसी जगह पहुँच जाती है, जहाँ उन शब्दों में यह भाव इस कदर घुस जाता है, के लगने लगता है, वह जो दूसरी तरफ़ है, उसका अनुभव संसार, उन कहे जा रहे वाक्यों में वर्णित घटनाओं, दृश्यों, क्षणों से बिलकुल अनभिज्ञ या अपरिचित है।  आत्मपरकता भी एक स्तर पर इसका निर्माण करती होगी। जिस तरह से कहने का तरीका है, वहाँ मुझे जैसा लग रहा है, यह भाव ऐसे हावी हो जाता है, जहाँ बाकी सब गौण या नगण्य हो जाता है। कहने के तरीकों और मेरे अतीत के हवालों में यह उतना अधिक नहीं दिख पाता, जितना कभी

ज़िंदगी दोबारा

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यह किसी गीत की पंक्तियों का हिस्सा नहीं हैं। एक छोटी सी इच्छा है। मुझे बाबा का बचपन देखना है। दादी कैसे उस घर में पहली बार आई होंगी। तब घर कैसा रहा होगा। आजी खाना ख़ूब बनती थीं। खा कर देखता। देखता,  हर हफ़्ते सड़क किनारे चुपचाप चलते हुए नाना नानी के साथ खुटेहना बाज़ार जाते हुए कैसे लगते होंगे। मामा के पास साइकिल होती थी, तब भी वह पीछे सामान लादे साथ पैदल चल रहे हैं। दरअसल, मैं हर वह पल देख लेना चाहता हूँ, जो मेरी अनुपस्थिति में घटित हुआ होगा। जिन स्मृतियों को सिर्फ़ सुना है, उन्हें अपने सामने बीतते हुए महसूस करता। मौसी, जिनकी कोई तस्वीर नहीं है, मेरे बचपन की किसी याद में वह नहीं हैं, इतना छोटा रहा होऊंगा, कुछ ध्यान नहीं है। उन्हें भी एक बार छू लेता। एक स्तर पर इन इच्छाओं को मानसिक व्याधि कहा जा सकता है। जो अपने वर्तमान में न रहकर बार बार अतीत में लौटने के लिए व्याकुल है। कभी-कभी तो यही समझ नहीं आता, यह क्या है? ऐसा होते जाने की वजह क्या रही होंगी? क्यों इस आज में वह नहीं है, जो कल में मुझे बराबर खींचता रहा है? इसका एक जवाब यह हो सकता है, शायद उन सब घटनाओं को होते हुए देखते रहने

जब मैं चुप हूँ

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इधर एकदम से सब घुट गया है। गला, मौसम, हवा, परछाईं। सब अपने अस्तित्व के सवालों में घिर गए हैं। इसमें एक मिट्टी ही है, जो थोड़ा बहुत ख़ुद को बचाए हुए है। मिट्टी ऐसा क्यों कर पायी, यह जानना बहुत मुश्किल नहीं है। वह सब सोख लेती है। हमारी त्वचा में भी यही गुण है। कभी-कभी वह इसके विपरीत व्यवहार करती है। कब? जब हम धूप में होते हैं और हमें पसीना आता है। तब वह अपने रोम छिद्रों को खोल देती है। उस क्षण मुझे एहसास होता है, हम एक ही काम दो तरह से कर सकते हैं। एक दूसरे अर्थ में, हम जिस काम को जैसे देखने के आदी होते हैं, वह उसके अलावे भी किसी और विधि से किया जा सकता है। इन दिनों, जब कुछ भी कहना मेरे अंदर ख़ुद को नहीं बुन रहा, तब यही सोच रहा हूँ। जो अनुभव संसार है, उसमें ऐसा क्या है, जिसे कहे बिना नहीं रहा जाएगा। इसलिए देखा होगा, कई बार अपने अंदर इस लिखने को टाल देता हूँ। कुछ तो इस बढ़ती गर्मी के कारण और कुछ उन अनुभूत हुए अनुभवों को अपने अंदर देर तक घुलने देने के अवसरों को बनाने के लिए। देखना चाहता हूँ, कब तक वह मेरे अंदर वैसे बने रहते हैं? अगर वह बने रह गए, तब समझूँगा, उन्हें कहा जाना ज़रूरी है। वरन

कल में न लौट पाना

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बीती रात लिखते हुए यही बात समझ आई। कल में न लौट पाना हमारे जीवन की धुरी है। हम इसी अक्ष पर अपने हर दिन को रचते हैं। इस सत्य को जानते हुए हम सब कल में रुके रहने की हिम्मत से भर जाते हैं। यह कल हमारी स्मृतियाँ बनता है। सब अपना भविष्य देखने की कल्पनाओं से भर जाते हैं। मेरे अंदर ऐसी कोई इच्छा नहीं है। ऐसा नहीं है, मैं अतीत में रुका हुआ हूँ और जो हस्तरेखा विशेषज्ञों से अपना भविष्य पढ़वा रहे हैं, वह बहुत ही प्रगतिशील मूल्यों से भरे हुए हैं। कतई नहीं। इन दोनों बातों में सिर्फ़ यही दोनों संबंध नहीं हैं। इस पर कई और कोणों से बात की जा सकती है। शायद आपने ख़ुद पिछले हफ्ते से इसमें से एक तरह के बिन्दुओं को उठाते हुए कई रेखांकित करने योग्य तथ्यों को पाया होगा। मेरी बात सेमर के पेड़ की रुई के फ़ाहे जितनी हल्की लग सकती है। लगने में क्या है। वह झूठ की तरह पारदर्शी बनी रहे। जैसे मन कहीं पीछे रुककर उन सारी स्मृतियों को लिख लेने की इच्छा से भर गया हो। एक एक बात को इस तरह से कहना चाहता हूँ, जैसे वह तब हमारे सामने बीत रही थी। उस लिखे हुए में वह एक पल, आज के एक पल जितना स्थान लेते हुए आगे बढ़ें। उन संवादों

इकहरापन

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यह जो एक ही तरह का लिखना या हर बार एक ही भाव में गुम होते जाना है, इसे समझ नहीं पा रहा। कभी होता है, सुलझाने बैठता हूँ, कुछ देर बाद कोई सिरा पकड़ में नहीं आता। अभी जब इस शाम बिन पंखा चलाये बैठा हूँ, तब मृत्यु के बारे में सोच रहा हूँ। यह किस तरह मुझे रच रही है? चाचा के नहीं रहने पर जैसा होता गया हूँ, यह क्या है? जितना लिखता जा रहा हूँ, उतना अंदर नहीं उतर रहा। यह अनसुलझा सा है। अनमना नहीं। पर कुछ वैसा ही। उनकी अनुपस्थिति में यह इसी तरफ़ धकेल लाया है। उन भावुक सी, कमज़ोर करती पंक्तियों से घिरा चुपचाप बैठा हुआ हूँ। क्या इसकी कोई और वजह भी है? या इसे ही एकमात्र सत्य की तरह मान लिया है? इसे दोहराव कह सकते हैं। इसमें कोई नयी बात नहीं है। कितनी ही बार तो पहले भी कह चुका हूँ। यह कोई नयी बात नहीं है। सवाल है, इससे एक दूरी किस तरह बनाई जा सकती है? अभी कागज पर लिख रहा था, हम जब पैदा हुए थे तभी से एक परिवार का हिस्सा हैं। यह परिवार एक वृत का निर्माण करता है। इस घेरे के बीच रहते हुए हम बड़े हो रहे थे और यह दूरी जिसमें हमारे पास उन सबके पास रहने के सीमित अवसर हैं, वहाँ हमारी स्मृतियाँ जो हमें अतीत

टूटना

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इधर न जाने क्या हुआ है, अक्सर जब दिमाग खाली लगता है, जबकि वह होता नहीं है, तभी अचानक कुछ कौंध जाता है। इस चमक में कितनी सारी यादें झिलमिला जाती हैं। कभी ऐसा लगता है, जैसे कुछ नहीं बचा। सब शून्य में धँस गया है। यह खालीपन है या इसी खालीपन से भर गया हूँ। यह मेरी आदत के मुताबिक कहीं अटक जाने जैसा है। रुके रहो। तब तक रुके रहो, जब तक वह दीमक की तरह अंदर से खोखला न कर दे। तबसे सिमटता जाता हूँ। यह ख़ुद को दोहराने जैसा है। मैं उन सब जगहों को सिरे से याद कर रहा हूँ, जो चाचा के जाने से खाली हो गयी हैं। उस तस्वीर से लेकर उन सब स्मृतियों तक उन्हें छूकर लौट आने जैसा अनुभव कैसा है। हम रामनगर होते हुए गड़वा नौतला जा रहे हैं। मैं आगे साइकिल के डंडे पर लपेटे तौलिये पर बैठा हूँ और भाई पीछे कैरियर पर बैठा है। चाचा साइकिल चला रहे हैं। कितनी दुपहरों को हम ऐसे निकले होंगे, इसका कोई हिसाब नहीं। वह सिर्फ़ साइकिल तक ही पहुँच पाये। खड़खड़े से शुरू हुए, साइकिल पर खत्म। आज इस दिन में भी कुछ ऐसा नशा है, जिसमें हर इतवार गाँव की उन ढलती शामों में टेलीविज़न पर चार बजे वाली फ़िल्म का इंतज़ार पता नहीं कैसा कर जाता है।

आत्मपरकता

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इन दिनों बस यही हो रहा है। अपने में खोये खोये से रहो। कोई काम मत करो। सिर्फ़ उनके अपने आप हो जाने का इंतज़ार करो। मौसम और दुपहरों का गरम हो जाना कहाँ तक वजह हैं, नहीं जानता। बस यह बात समझ आई है, इसमें कई सारी चीज़ें छूट रही हैं। उनमें काम तो ख़ैर क्या ही होता, उनका बीत जाना सही लगता रहा। डायरी लिखना पिछले दिनों लगातार कम हो गया है। दरअसल इस मेज़ पर आकर बैठने और उन भावों को लिख न पाने की इच्छा का न होने से ऐसा है या अपने अंदर पेड़ से उतरता हुआ आलस घुस जाने से ऐसा हो रहा हो, कुछ तय नहीं कर पा रहा। पर नहीं। इन दिनों लगातार कई-कई फ़ोन मुझे उनके होते समय ध्यान नहीं रहते। ध्यान नहीं रहते का मतलब यह नहीं है, उन्हें सुन नहीं पा रहा। नहीं। उस दूसरे फ़ोन में लगे सिम पर आते कॉल लगता ही नहीं है, मेरे लिए आ रहे हैं। हर शाम लेटने से पहले स्क्रीन पर नज़र जाती है। किसी का फ़ोन आया था। कोई मेसेज़ कर रहा है। उनके वहाँ होने से कोई फ़र्क न पड़ना, किस तरह से कहा जा सकता है। क्या यह यही है, जिसे कहना चाहता हूँ। मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता? शायद यह चयन हो सकता है। जिसे शीर्षक में 'आत्मपरकता' कह आया हूँ। यह एक किस

मरीचिका

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जितनी दूर चाँद सितारे हैं, वह खुद को अपने लिखे से उतना ही दूर बताती है। क्या उसकी यह बात झूठ हो सकती है? वह इस पंक्ति को किसी और तरह से कहती तो उसकी तह में छिपी बात साफ़ देखी जा सकती थी। उसके मुताबिक वह अपनी दुनिया रचती है। उसमें जैसे किरदार बनते जाते हैं, वह कहती जाती है। हो सकता है, ऐसा करते हुए वह अपनी ज़िंदगी के खाली सफ़े भर रही हो। उसने ख़ुद न जिया हो, पर कह रही हो। अगर मुझे बिलकुल यही बात कहनी होती, तो किस तरह कहता। शायद यह सवाल मेरे लिए नहीं है। मेरे पास किरदार नहीं हैं। मैं ख़ुद किरदार हूँ। अगर कभी सीधे कहा जाना तय नहीं किया, तब बिना नाम दिये मेरा काम चल जाता है। हमेशा सामने रहने से जब ऊब होने लगे, तब यह तरीका अपनाया जा सकता है। वह जो अपने निकट के लोगों और सगे संबंधियों को लेकर इतनी चिंतित है, जिसमें उसे ऐसा कहना पड़ा, इसे समझना चाहता हूँ। वह तो यहाँ तक कहती है, उसका लिखा हुआ उसकी ज़िंदगी का आईना नहीं है। यह बात उसके बताने से काफ़ी पहले से जानता हूँ। वह जिस दुख को रचती है, वह उसके हिस्से का नहीं हैं। कुछ होगा, पर उस अनुपात में नहीं, जितना उसने कह दिया है। हम उस दुख का रूपाकार बद