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विषय का चयन

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लिखते हुए यह भी गौर करने लायक बात है, हम अक्सर किन विषयों पर लिखते हैं। यह चुनने से अधिक हमारे परिवेश पर निर्भर करता है, ऐसा कुछ भी कहना नहीं चाहता। एक हद तक यह एक महत्वपूर्ण कारक ज़रूर है। जब यह सवाल खुद से पूछता हूँ, तब लगता है, इस पर कभी बैठकर व्यवस्थित चिंतन नहीं किया। पहली नज़र में मुझे जो चीज़ लिखने के लिए सबसे ज़्यादा मजबूर करती है, वह बहुत सारे अतिरेकी क्षण हैं, जिनसे घिर जाने पर कह देना ही एक मात्र विकल्प बचता है। यह किसी भी तरह से कह देना है। जो भाव जैसा मेरे अंदर उतर रहा होता है, उसे उसके सबसे करीब जाकर कह देने में जो चुनौती है, वही मुझे सबसे अधिक प्रिय है। दूसरे शब्दों में कहूँ, तब यह कुछ-कुछ वैसा ही है, जिसमें हम इस पल जिन भावों, अनुभूतियों से गुज़र रहे हैं, पढ़ने वाले को भी उन्हीं के पास लेकर आ पाने में जो संतुष्टि है, वह मुझे ऐसा बनाती रही है। जो मुझे पढ़ते हैं, लगातार लंबे समय से पढ़ते रहे हैं, वह भी ऐसा महसूस करते होंगे। अगर आपको ऐसा नहीं लगता है, तब आप किसी भी पिछले पन्ने पर जाकर इस दलील की जाँच कर सकते हैं। लोग इस आत्मपरकता को दोष की तरह देखते हैं। जिस तरह के समय में हम

भाषा का सवाल

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कभी-कभी मुझे यह एहसास होता है, जिन शब्दों या वाक्यों को अपनी बातें कहने के लिए इस्तेमाल करता हूँ,उनमें एक तरह की कृत्रिमता या बनावटीपन है। दरअसल यहाँ मैं अपनी भाषा पर थोड़ी देर बात करना चाहता हूँ। जिस भाषा का प्रयोग करता हूँ, वह कैसी है? इसकी प्रकृति को अगर थोड़े खुलासे की ज़रूरत है, तब इसे किस तरह से देख पाऊँगा? एक तरह से मुझे यह लगने लगा है, यह जिस-जिस जगह मुझसे दूर होती जाती है, वहाँ इसमें औपचारिकता प्रवेश कर जाती होगी। जैसे, जब, जिन जगहों पर यह संवाद करना चाहती है, वहाँ एक तरह का दंभ या अहंकार इसमें समा जाता होगा। यह एक ऐसी जगह पहुँच जाती है, जहाँ उन शब्दों में यह भाव इस कदर घुस जाता है, के लगने लगता है, वह जो दूसरी तरफ़ है, उसका अनुभव संसार, उन कहे जा रहे वाक्यों में वर्णित घटनाओं, दृश्यों, क्षणों से बिलकुल अनभिज्ञ या अपरिचित है।  आत्मपरकता भी एक स्तर पर इसका निर्माण करती होगी। जिस तरह से कहने का तरीका है, वहाँ मुझे जैसा लग रहा है, यह भाव ऐसे हावी हो जाता है, जहाँ बाकी सब गौण या नगण्य हो जाता है। कहने के तरीकों और मेरे अतीत के हवालों में यह उतना अधिक नहीं दिख पाता, जितना कभी

ज़िंदगी दोबारा

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यह किसी गीत की पंक्तियों का हिस्सा नहीं हैं। एक छोटी सी इच्छा है। मुझे बाबा का बचपन देखना है। दादी कैसे उस घर में पहली बार आई होंगी। तब घर कैसा रहा होगा। आजी खाना ख़ूब बनती थीं। खा कर देखता। देखता,  हर हफ़्ते सड़क किनारे चुपचाप चलते हुए नाना नानी के साथ खुटेहना बाज़ार जाते हुए कैसे लगते होंगे। मामा के पास साइकिल होती थी, तब भी वह पीछे सामान लादे साथ पैदल चल रहे हैं। दरअसल, मैं हर वह पल देख लेना चाहता हूँ, जो मेरी अनुपस्थिति में घटित हुआ होगा। जिन स्मृतियों को सिर्फ़ सुना है, उन्हें अपने सामने बीतते हुए महसूस करता। मौसी, जिनकी कोई तस्वीर नहीं है, मेरे बचपन की किसी याद में वह नहीं हैं, इतना छोटा रहा होऊंगा, कुछ ध्यान नहीं है। उन्हें भी एक बार छू लेता। एक स्तर पर इन इच्छाओं को मानसिक व्याधि कहा जा सकता है। जो अपने वर्तमान में न रहकर बार बार अतीत में लौटने के लिए व्याकुल है। कभी-कभी तो यही समझ नहीं आता, यह क्या है? ऐसा होते जाने की वजह क्या रही होंगी? क्यों इस आज में वह नहीं है, जो कल में मुझे बराबर खींचता रहा है? इसका एक जवाब यह हो सकता है, शायद उन सब घटनाओं को होते हुए देखते रहने

जब मैं चुप हूँ

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इधर एकदम से सब घुट गया है। गला, मौसम, हवा, परछाईं। सब अपने अस्तित्व के सवालों में घिर गए हैं। इसमें एक मिट्टी ही है, जो थोड़ा बहुत ख़ुद को बचाए हुए है। मिट्टी ऐसा क्यों कर पायी, यह जानना बहुत मुश्किल नहीं है। वह सब सोख लेती है। हमारी त्वचा में भी यही गुण है। कभी-कभी वह इसके विपरीत व्यवहार करती है। कब? जब हम धूप में होते हैं और हमें पसीना आता है। तब वह अपने रोम छिद्रों को खोल देती है। उस क्षण मुझे एहसास होता है, हम एक ही काम दो तरह से कर सकते हैं। एक दूसरे अर्थ में, हम जिस काम को जैसे देखने के आदी होते हैं, वह उसके अलावे भी किसी और विधि से किया जा सकता है। इन दिनों, जब कुछ भी कहना मेरे अंदर ख़ुद को नहीं बुन रहा, तब यही सोच रहा हूँ। जो अनुभव संसार है, उसमें ऐसा क्या है, जिसे कहे बिना नहीं रहा जाएगा। इसलिए देखा होगा, कई बार अपने अंदर इस लिखने को टाल देता हूँ। कुछ तो इस बढ़ती गर्मी के कारण और कुछ उन अनुभूत हुए अनुभवों को अपने अंदर देर तक घुलने देने के अवसरों को बनाने के लिए। देखना चाहता हूँ, कब तक वह मेरे अंदर वैसे बने रहते हैं? अगर वह बने रह गए, तब समझूँगा, उन्हें कहा जाना ज़रूरी है। वरन

कल में न लौट पाना

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बीती रात लिखते हुए यही बात समझ आई। कल में न लौट पाना हमारे जीवन की धुरी है। हम इसी अक्ष पर अपने हर दिन को रचते हैं। इस सत्य को जानते हुए हम सब कल में रुके रहने की हिम्मत से भर जाते हैं। यह कल हमारी स्मृतियाँ बनता है। सब अपना भविष्य देखने की कल्पनाओं से भर जाते हैं। मेरे अंदर ऐसी कोई इच्छा नहीं है। ऐसा नहीं है, मैं अतीत में रुका हुआ हूँ और जो हस्तरेखा विशेषज्ञों से अपना भविष्य पढ़वा रहे हैं, वह बहुत ही प्रगतिशील मूल्यों से भरे हुए हैं। कतई नहीं। इन दोनों बातों में सिर्फ़ यही दोनों संबंध नहीं हैं। इस पर कई और कोणों से बात की जा सकती है। शायद आपने ख़ुद पिछले हफ्ते से इसमें से एक तरह के बिन्दुओं को उठाते हुए कई रेखांकित करने योग्य तथ्यों को पाया होगा। मेरी बात सेमर के पेड़ की रुई के फ़ाहे जितनी हल्की लग सकती है। लगने में क्या है। वह झूठ की तरह पारदर्शी बनी रहे। जैसे मन कहीं पीछे रुककर उन सारी स्मृतियों को लिख लेने की इच्छा से भर गया हो। एक एक बात को इस तरह से कहना चाहता हूँ, जैसे वह तब हमारे सामने बीत रही थी। उस लिखे हुए में वह एक पल, आज के एक पल जितना स्थान लेते हुए आगे बढ़ें। उन संवादों

इकहरापन

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यह जो एक ही तरह का लिखना या हर बार एक ही भाव में गुम होते जाना है, इसे समझ नहीं पा रहा। कभी होता है, सुलझाने बैठता हूँ, कुछ देर बाद कोई सिरा पकड़ में नहीं आता। अभी जब इस शाम बिन पंखा चलाये बैठा हूँ, तब मृत्यु के बारे में सोच रहा हूँ। यह किस तरह मुझे रच रही है? चाचा के नहीं रहने पर जैसा होता गया हूँ, यह क्या है? जितना लिखता जा रहा हूँ, उतना अंदर नहीं उतर रहा। यह अनसुलझा सा है। अनमना नहीं। पर कुछ वैसा ही। उनकी अनुपस्थिति में यह इसी तरफ़ धकेल लाया है। उन भावुक सी, कमज़ोर करती पंक्तियों से घिरा चुपचाप बैठा हुआ हूँ। क्या इसकी कोई और वजह भी है? या इसे ही एकमात्र सत्य की तरह मान लिया है? इसे दोहराव कह सकते हैं। इसमें कोई नयी बात नहीं है। कितनी ही बार तो पहले भी कह चुका हूँ। यह कोई नयी बात नहीं है। सवाल है, इससे एक दूरी किस तरह बनाई जा सकती है? अभी कागज पर लिख रहा था, हम जब पैदा हुए थे तभी से एक परिवार का हिस्सा हैं। यह परिवार एक वृत का निर्माण करता है। इस घेरे के बीच रहते हुए हम बड़े हो रहे थे और यह दूरी जिसमें हमारे पास उन सबके पास रहने के सीमित अवसर हैं, वहाँ हमारी स्मृतियाँ जो हमें अतीत

टूटना

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इधर न जाने क्या हुआ है, अक्सर जब दिमाग खाली लगता है, जबकि वह होता नहीं है, तभी अचानक कुछ कौंध जाता है। इस चमक में कितनी सारी यादें झिलमिला जाती हैं। कभी ऐसा लगता है, जैसे कुछ नहीं बचा। सब शून्य में धँस गया है। यह खालीपन है या इसी खालीपन से भर गया हूँ। यह मेरी आदत के मुताबिक कहीं अटक जाने जैसा है। रुके रहो। तब तक रुके रहो, जब तक वह दीमक की तरह अंदर से खोखला न कर दे। तबसे सिमटता जाता हूँ। यह ख़ुद को दोहराने जैसा है। मैं उन सब जगहों को सिरे से याद कर रहा हूँ, जो चाचा के जाने से खाली हो गयी हैं। उस तस्वीर से लेकर उन सब स्मृतियों तक उन्हें छूकर लौट आने जैसा अनुभव कैसा है। हम रामनगर होते हुए गड़वा नौतला जा रहे हैं। मैं आगे साइकिल के डंडे पर लपेटे तौलिये पर बैठा हूँ और भाई पीछे कैरियर पर बैठा है। चाचा साइकिल चला रहे हैं। कितनी दुपहरों को हम ऐसे निकले होंगे, इसका कोई हिसाब नहीं। वह सिर्फ़ साइकिल तक ही पहुँच पाये। खड़खड़े से शुरू हुए, साइकिल पर खत्म। आज इस दिन में भी कुछ ऐसा नशा है, जिसमें हर इतवार गाँव की उन ढलती शामों में टेलीविज़न पर चार बजे वाली फ़िल्म का इंतज़ार पता नहीं कैसा कर जाता है।

आत्मपरकता

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इन दिनों बस यही हो रहा है। अपने में खोये खोये से रहो। कोई काम मत करो। सिर्फ़ उनके अपने आप हो जाने का इंतज़ार करो। मौसम और दुपहरों का गरम हो जाना कहाँ तक वजह हैं, नहीं जानता। बस यह बात समझ आई है, इसमें कई सारी चीज़ें छूट रही हैं। उनमें काम तो ख़ैर क्या ही होता, उनका बीत जाना सही लगता रहा। डायरी लिखना पिछले दिनों लगातार कम हो गया है। दरअसल इस मेज़ पर आकर बैठने और उन भावों को लिख न पाने की इच्छा का न होने से ऐसा है या अपने अंदर पेड़ से उतरता हुआ आलस घुस जाने से ऐसा हो रहा हो, कुछ तय नहीं कर पा रहा। पर नहीं। इन दिनों लगातार कई-कई फ़ोन मुझे उनके होते समय ध्यान नहीं रहते। ध्यान नहीं रहते का मतलब यह नहीं है, उन्हें सुन नहीं पा रहा। नहीं। उस दूसरे फ़ोन में लगे सिम पर आते कॉल लगता ही नहीं है, मेरे लिए आ रहे हैं। हर शाम लेटने से पहले स्क्रीन पर नज़र जाती है। किसी का फ़ोन आया था। कोई मेसेज़ कर रहा है। उनके वहाँ होने से कोई फ़र्क न पड़ना, किस तरह से कहा जा सकता है। क्या यह यही है, जिसे कहना चाहता हूँ। मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता? शायद यह चयन हो सकता है। जिसे शीर्षक में 'आत्मपरकता' कह आया हूँ। यह एक किस

मरीचिका

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जितनी दूर चाँद सितारे हैं, वह खुद को अपने लिखे से उतना ही दूर बताती है। क्या उसकी यह बात झूठ हो सकती है? वह इस पंक्ति को किसी और तरह से कहती तो उसकी तह में छिपी बात साफ़ देखी जा सकती थी। उसके मुताबिक वह अपनी दुनिया रचती है। उसमें जैसे किरदार बनते जाते हैं, वह कहती जाती है। हो सकता है, ऐसा करते हुए वह अपनी ज़िंदगी के खाली सफ़े भर रही हो। उसने ख़ुद न जिया हो, पर कह रही हो। अगर मुझे बिलकुल यही बात कहनी होती, तो किस तरह कहता। शायद यह सवाल मेरे लिए नहीं है। मेरे पास किरदार नहीं हैं। मैं ख़ुद किरदार हूँ। अगर कभी सीधे कहा जाना तय नहीं किया, तब बिना नाम दिये मेरा काम चल जाता है। हमेशा सामने रहने से जब ऊब होने लगे, तब यह तरीका अपनाया जा सकता है। वह जो अपने निकट के लोगों और सगे संबंधियों को लेकर इतनी चिंतित है, जिसमें उसे ऐसा कहना पड़ा, इसे समझना चाहता हूँ। वह तो यहाँ तक कहती है, उसका लिखा हुआ उसकी ज़िंदगी का आईना नहीं है। यह बात उसके बताने से काफ़ी पहले से जानता हूँ। वह जिस दुख को रचती है, वह उसके हिस्से का नहीं हैं। कुछ होगा, पर उस अनुपात में नहीं, जितना उसने कह दिया है। हम उस दुख का रूपाकार बद