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अक्तूबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गुलमोहर का सपना

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कभी किसी ऐसी चीज़ का इंतज़ार किया है, जिसको कभी देखा ही न हो. आलोक और मेरा इंतज़ार बिलकुल ऐसा ही है. हम लोग दो हज़ार ग्यारह से सपना देख रहे हैं. कोई जगह होगी जहाँ हम ख़ुद को देख सकेंगे. यह सपने हमने विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पर साथ देखने शुरू किये. कुछ अलग तरह की जगह बनायेंगे. पर उसे जगह नहीं कहेंगे. यह हमारा दीवान होगा. जिसमें हम अपने-अपने हिस्से लेकर छिप जायेंगे. हमारा छिपना किताब में छपने की तरह होता। इसे हम अब ला रहे हैं. इसे हम छू सकेंगे। देख सकेंगे। कह सकेंगे। इसकी बातें सुन सकेंगे। यहाँ तक पहुँचना इतना आसान नहीं है. कितनी ही बार आलोक के केरल से आने के बाद हम घंटो कहीं बैठकर नक्शा बनाते। नाम सोचते। कैसे उन लोगों से मिल सकते हैं, जिन्हें हम लिखने के लिए कह सकेंगे। कैसे यह और दूसरी लिखने-पढ़ने वाली जगहों से अलग होगी, इसके लिए अभी भी हम बहुत सचेत हैं. बड़ी सावधानी से कहना बताना पड़ता है, किस तरह हमारा गुलमोहर बन रहा है. गुलमोहर एक कल्ट बने, यह इसके न होने से बहुत पहले ही हमने तय कर लिया है इसलिए हम अपने कहे हर वाक्य को लेकर बहुत सावधान हैं. यह हम सिर्फ़ दावे करने के लिए नहीं कह

छूटता मौसम

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अभी दो दिन हुए होंगे, अपनी अक्टूबर की एक पोस्ट पर नज़र गयी. वहाँ लिखा था, पैरों में अब ठण्ड लगने लगी है और पानी सुबह और ठण्डा हो जाता है. यह तीन साल पहले लिखी थी. अभी भी कुछ-कुछ तो लिख ही देता हूँ. अँधेरा जल्दी होने लगा है. पर मौसम में वह बात नहीं. धूप तो माशाअल्लाह अप्रैल की तरफ़ जाती दिख रही है. पर ऐसा तो हो नहीं सकता कि इन दिनों की ढलती शामों में सर्दी मुझे पकड़ न सके. अभी इसी महीने के दूसरे शनिवार को जो गला बैठता गया, इसने तो रातें हराम कर दी. लगा पहली बार ऐसा हुआ है, जब गर्दन के इर्दगिर्द अजीब सी जकड़न किसी भी करवट लेटने नहीं दे रही थी. दायीं तरफ़ करवट लेने में जो सहूलियत थी, वह बायीं तरफ़ हुई तो उसका असर उसी तरफ़ की नाक पर सुबह उठकर दिखता. बायीं नाक एक दम जाम. कितना भी ज़ोर लगा लो, बलगम निकलने का नाम नहीं लेता. नमक डालकर गरारे करने पर भी कुछ आराम नहीं मिलता देख और आवाज़ बैठ जाती. कभी सुनी है गरारे करने के बाद उससे निकलती फटे बाँस की आवाज़. फ़ोन पर जिससे बात करता, वही उलटे पूछ लेते. कैसे हो. तबियत तो ठीक है न? कितनी बार और कैसे-कैसे उन्हें बताता कि इस गले ने हमेशा मुझे इतना नहीं इससे भी

मेज़ पर

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यह मेज़ जिसपर अभी लैपटॉप रखकर लिख रहा हूँ, वह आमतौर पर मेजें जितनी बड़ी होती हैं, उससे काफ़ी बड़ी है. आज पूरे दिन इसी के इर्दगिर्द रहा, शायद इस वजह से रात होते-होते इन बातों से घिरता गया होऊँगा. कभी मन होता है तो इस पर रखकर डायरी लिखने लगता हूँ. वैसे आजकल डायरी से बचने का मन करता है. क्या करेंगे लिख कर, ऐसी बात नहीं है. उसे लिखने के लिए जितनी पीड़ा सहन करनी पड़ती है, वह कम होती जा रही है. खैर, इस मेज़ पर वापस लौटते हुए इसे ऐसे भी कह सकते हैं के मेज़ इस कमरे की धुरी है. या कहें मेरे इस कमरे में होने का सबसे बड़ा कारण. अगर यह इस कमरे में न होती तो मैं भी यहाँ न होता. मेज़ मेरा कबाड़खाना है. जो भी कुछ है, वह इसी पर बिखरा हुआ है. यही मेरी किताबों की अलमारी है. इस पर कई ज़रूरी कागज़ बेतरतीब बिखरे पड़े हैं. किताब एक के ऊपर एक ऐसे चढ़ बैठी है कि उसकी पीठ पर बस नाम देख कर पढ़ता रहता हूँ. निकालने का मन हो तो इतने वज़न को इधर से उधर करने की आफ़त में फंसने को जी नहीं करता. जितना तो उनको उठता धरता रहूँगा, उतने में किलो भर धूल से जूझते हुए दिल कहीं खिड़की के बाहर कबूतरों पर मचल जाया करता है. खिड़की भी इस मेज़ को

कबूतर

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सालिम अली होते, तो पता नहीं इस बात को किस तरह कहते? कहते भी या नहीं कहते, यह भी कहा नहीं जा सकता. बात बहुत छोटी-सी है. जो उड़ता है, उसे उड़ते रहना चाहिए या सुस्ताते के लिए बैठ जाना चाहिए? लेकिन इससे पहले ज़रूरी सवाल है, यह उड़ना इतना ज़रूरी क्यों है? अगर कबूतर उड़ रहा है तो उसके उड़ने के पीछे भी कोई कहानी होगी. उसके पास भी एक छोटा-सा पेट होता है, जिसे भरने के लिए कुछ दानों की फ़िराक में उसे कहीं चले जाना है. इसे दूसरी तरह भी देखा जा सकता है. कि जहाँ पेट भर रहा है, दाना पानी मिल रहा है, वहीं कोई अच्छी ख़ासी डाल या दिवार में सुरक्षित सुराख़ देखकर अपना छोटा-सा घोंसला बना लेने की समझ से वह भर गया हो. समझ उसके खून में होगी. ऐसा हम मान सकते हैं. मान लेना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि हम कबूतर नहीं हैं और न ही कबूतरों ने ख़ुद कभी इस तरह लिख कर ख़ुद को ज़ाहिर किया है. जैसे हम उन्हें आज तक देखते आये हैं, उसी को आधार बनाकर यह बातें गढ़ी जा रही हैं.  इसलिए नीचे और इसके बगल की लाइन से शुरू होती बातें सिर्फ़ और सिर्फ़ इन कबूतरों पर ही लागू होंगी. जिन्हें इस बात पर एतराज़ है, वह अपना एतराज़ बात में जताएं.  इस खिड़की

छज्जा

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हम लोगों ने छज्जों को क्यों बनाया होगा? उनके लिए कभी किसी ने कितना सोचा होगा. कितने समय का फ़ासला तय करके यह हम तक पहुँचे होंगे. छज्जों को हम आविष्कार क्यों नहीं मानते? वह कौन होगी, जिसने इन छज्जों के बारे में पहली बार सोचा होगा? सिर्फ़ सोचा भर नहीं, उन्हें बना भी दिया होगा. घर के अन्दर भी. घर के बाहर भी. पर हम इन छज्जों का करेंगे क्या? इस सवाल का एक जवाब मेरे पास है. मैंने कभी यह तय किया होगा कि अपने खाने में से रोज एक टुकड़ा रोटी बचाकर उस खिड़की वाले छज्जे की तरफ़ डाल दूँगा. यह वही खिड़की है, जिसपर हमने अपने बचपन से कूलर को आधी खिड़की घेरे देखा है. खिड़की पर रखे कूलर की वजह से हम कभी उन अमलतास और गुलमोहर के पेड़ों को देख भी पाते. आम वाला पेड़ अशोक के पेड़ में कहीं छिप जाता और अपनी परछाईं में गुम हो जाता. एक दिन अचानक मैंने उसी खिड़की से कूलर के बगल झाँक कर देखा. मेरे हाथ धोने से पहले जेब से उस टुकड़े को वहीं नीचे छज्जे पर डालने की आदत ने वहाँ रोटी और पराठों के टुकड़ों का पूरा ढेर इकठ्ठा कर दिया था. उन पर धूल की परत बता रही थी, वहाँ कभी कोई एक चिड़िया भी नहीं पहुँच पायी थी.  थोड़ी देर वहीं खड़

बात न होना

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बात न होने को हम किस तरह ले सकते हैं? सबके लिए बहुत मामूली चीज़ होती होगी. कैसे बिन बताये दो लोग तय कर लेते होंगे कि अब बात नहीं करेंगे? यह दोतरफा है या इसकी कई दिशाएं हैं? कुछ कहा नहीं जा सकता. यह हमारी ज़िन्दगी में एक घटना की तरह है. जिसे हम ठहर कर नहीं देखते. लेकिन वह वहीं कहीं होती है. छिपी हुई सी. जैसे हम बड़े दिन हुए मिले नहीं हैं. मिल लेते तो कह देते. जो तुमने अपने मन में रख लिया है. तुम ऐसे हो तुम फ़ोन पर नाम देख कर भी फ़ोन नहीं उठाते. बजने देते होगे. कोई कितना करेगा? एकबार खीज जाएगा, तब तो बिलकुल नहीं करेगा. पर बात न करना कई धागों को बीच में छोड़ देना है. हो सकता है, कभी मन भी किया हो पर मन के होने से क्या होता है? इस बात न करने को जिन बातों के सहारे बुना होगा, उन पर से पीछे हटने का मन नहीं करता होगा. कैसे अपनी ही बात से पलट जाएँ. पलट जाना कमज़ोर हो जाना है. फ़िर इन दिनों तब जबकि कई महीनों से बात नहीं हुई है, इसे ऐसे ही चलते देना चाहिए की रट लग जाये तब बचना आसान नहीं होता. चलने दो इसे टेक को. जब तक चले. पर हमें वह क्षण याद कर लेने चाहिए. याद दोहराई नहीं जाती, हम उसको अपने अन्दर

इन दिनों

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कल बड़े दिनों बाद पूरा दिन लैपटॉप के सामने बैठा रहा. कुछ ख़ास काम नहीं किया. बस एक ही काम में जुटा रहा. अपने पुराने ब्लॉग की सारी पोस्टें वर्ड फ़ाइल में सेव करके रख रहा था. अभी भी करीब तीन सौ बची हुई हैं. पास रहेंगी तो जब पढ़ने का मन होगा, पढ़ लेंगे. पढ़ लेंगे तो ऐसे कह रहा हूँ, जैसे हमेशा पढ़ने का ही काम रहता है. काम तो सिर्फ़ एक होता है, उसे बर्बाद करने का. कैसे-कैसे उनका कचूमर निकाल दिया जाये. यहीं कहीं पीछे देखता हूँ तो लगता है, कैसे दिन थे(?) अजीब नहीं पर सच जैसे. हर दिन का कोटा होता. शाम पानी भरने के बाद डायरी लिखनी है. दोपहर में सोना नहीं है. हमारी शामें इन्टरनेट और स्मार्ट फ़ोन से काफ़ी दूर रहतीं. हम इनके चंगुल में तब आये होंगे, जब हम अच्छी खासी उमर उन खालीपन से भरी हुई छुट्टियों को बिताने के सैकड़ों तरकीबों से भर गए थे. अब छुट्टियाँ आएँगी तो हम वो किताब पढ़ेंगे. इतने दिन जो नहीं लिख पाए, उसे कह देंगे. एक दिन में चार-चार सौ पन्ने पढ़ जाने वाले अब सिर्फ़ किताबों को खरीदने के नशे से भर चुके हैं. मेज़ अटी पड़ी है. किताबें देख देख मन भर रहा हूँ. छूने की बात तो सपने में भी नहीं आती. बस इकठ्ठा क

अखबार

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इतवार से चार अखबार सामने किताबों के ऊपर पड़े हैं. इतना भी वक़्त नहीं मिला कि उन्हें पलट कर देख सकूँ. क्या हुआ होगा उस शनिवार दुनिया में? कोई ऐसी बात तो नहीं जो मुझे पता होनी चाहिए थी और मुझे पता ही न चली हो. फ़िर सोचता हूँ, अगर वह मेरे लिए ज़रूरी होती तो मेरे पास कहीं न कहीं से आ जाती. अगर अभी तक नहीं आई है, तब उन छपे हुए पन्नों की मेरे लिए कोई वजह नहीं है. बेवजह सिर्फ़ हम हैं. ख़ुद को जताते हुए. वह कितने ही रोज़ ऐसे बिकते होंगे और अनपढ़े रह जाते होंगे. वह ख़ुद को किसे पढ़ा ले जाना चाहते हैं? उनका पढ़ा जाना इतना ज़रूरी क्यों है? सोचता हूँ, पहले और आज में जो परिवर्तन आया है, उसे किस तरह से समझना चाहिए? मुझे नहीं पता. पर इतना तो हम देख ही रहे होंगे कि इनके बढ़ जाने से हमारी दुनिया में कोई ख़ास बेहतरी आ गयी हो, ऐसा नहीं है. उलटे हम इन सब चीज़ों से इतने घिर गए हैं कि इनसे बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगे हैं. उनका होना न होना हमारे लिए ग़ैरज़रूरी बना रहे, इसके लिए ख़ुद से लड़ना पड़ रहा है. अगर मेरी दुनिया दस पंद्रह बीस लोगों से बनी है, तो मुझे इनकी कोई ज़रूरत नहीं है. अखबार उनके लिए डाक हैं, जिनके पते नह

मिट्टी

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उस मेट्रो स्टेशन को ध्यान से देखने से लगता है, कितनी खोखली जगह है. हमने मिट्टी को विस्थापित कर एक दूसरी संरचना को वहाँ स्थापित कर दिया है. वह मिट्टी कभी किसी का घर रही होगी. अपनी इन छोटी-छोटी आँखों से हम जान भी नहीं पाते, वहाँ कौन रहता होगा? वह मिट्टी जब हटाई गयी होगी, तब उसे रखा कहाँ गया होगा? इस मिट्टी का पहाड़ भलस्वा के आस-पास पड़े कूड़े के ढेर से बने पहाड़ों से भी काफ़ी ऊँचा होता. क्या उसे अभी भी हम यमुना के गाद की तरह उन किनारों पर खड़े होकर देख सकते हैं? थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं, थोड़ी बहुत मिट्टी दोबारा नींव का काम करते हुए वहीं समां गयी. पर उससे भी कई गुना जादा अनुपात में उसका क्या हुआ होगा? एक थीसिस यह कहता है कि इस शहर की दुनिया में हमने इन तारकोल वाली सड़कों के नीचे उस मिट्टी को सुरक्षित संरक्षित कर दिया है. हम इस दुनिया को जितना कंक्रीट का बनाते जायेंगे, आने वाली पीढ़ियाँ उसे उखाड़ कर फ़िर से मिट्टी को छू सकती हैं. इसका एन्टी थीसिस अभी मेरे दिमाग में बस यही है कि हम ख़ुद मिट्टी जैसे होते तो थोड़ा पानी भी सोखते, थोड़ी ज़रूरी जगह भी अपने अन्दर बनाये रखते. अगर कहना होगा तो अपने

शहर में होना

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यह कोई मेडिकल साइंस का सवाल नहीं है कि कोई हमसे पूछे और हम बता न सकें के हमारे शरीर का तापमान कितना है? आप भी कुछ-कुछ अंदाज़ा लगा ही रहे होंगे. फ़िर अगला सवाल यह दाग दे कि आपके शरीर के बाहर का तापमान कितना है? आप तपाक से उन सवालों के जवाब गणित की पहचानी हुई संख्याओं में दे जायेंगे. इन दिनों मैं यह दोनों सवाल ख़ुद से पूछने लगा हूँ. मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है. मैं शुरू से ही धीमा सोच पाता हूँ. इस अन्दर और बाहर के सवाल पर जब भी जवाब खोजने निकलता हूँ तब अन्दर ही अंदर बाहर आने के लिए उलझता जाता हूँ. मेरे अन्दर अपने आप कुछ दृश्य चलने लगते हैं.  एक दृश्य में रात नौ तेईस की मेट्रो (होन्डा टू विलर) विश्व विद्यालय स्टेशन से छूट गयी है. इंतज़ार कर नहीं पाता. छटपटाहट बढ़ती जाती है. आज भी देर से घर पहुँचूँगा. यही सोचता हुआ इंतज़ार में सबकी तरह सुरंग में झाँकने लगता हूँ. पता नहीं वह सब भी यह देख कर डर जाते होंगे या नहीं. पर मुझे कुछ होने लगता है. उन पीली रौशनियों में गरमी भाप बनकर उड़ने लगती है. सुरंग एकदम किसी भट्टी की तरह तप रही है. पानी दिख नहीं रहा है. पर वह पानी ही है. हवा में नमी की तरह त

मौसम

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किसी मौसम का वक़्त पर न आना हमारे लिए कोई बड़ा सवाल नहीं है. दुनिया में बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय संस्थाएँ हमारे एवज़ में यह काम करते हुए अपनी जेबें भर रही हैं. हमने अपनी ज़िम्मेदारियाँ चुपके से उन्हें सौंप दी हैं और हमें कानों कान ख़बर भी नहीं हुई है. इसी साल फरवरी में एक अभिनेता इस ग्रह के लिए अपनी चिंताएँ व्यक्त करता है, सारी दुनिया उसकी चिंता में शामिल होकर चिन्तित महसूस करने लगती है. थोड़ा ख़ोजबीन कर पता चलता है, वह इस पृथ्वी को बचाने में जुटी किसी कंपनी के ब्राण्ड अम्बेसडर की हैसियत से उस मंच का उपयोग कर गया और दुनिया ने चूं तक नहीं की. सब एक अलक्षित बाज़ार तक पहुँचने की युक्तियाँ तलाशते हैं. उसकी कंपनी हवा को साफ़ रखने से लेकर और पता नहीं कौन-कौन से उपकरण बनाने में अपनी पूँजी को लगाये हुए है. हम भी एक देश और उस पर भी पूँजीवादी मानसिकता के कम पोषक नहीं हैं. पी साईनाथ बताते हैं, इन दिनों उन कई हज़ार स्क्वायर फुट वाले आलिशान प्लॉटों की बहुत मांग हैं, जिनके साथ संरक्षित वन (फ़ॉरेस्ट रिसर्व) अटैच बाथरूम की तरह मिल रहे हैं. उनके यहाँ लवासा जैसी सुरक्षित प्राकृतिक वातावरण देने वाली कई परियोजनाओं क

कल का नक्शा

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ज़िन्दगी में एक दौर ऐसा भी आता है, जब हम ठहरना चाहते हैं. ख़ूब भागादौड़ी के बाद कोई ऐसी जगह हो, जहाँ हम रुक सकें. रुकना इतिहास में हमेशा से निर्णायक बिंदु रहा है. जब हम रुके, तब हमने दुनिया को इस तरह से रचा. उसके तंतुओं को अपनी मर्ज़ी से बनाने की कोशिश की. मैं भी अब थोड़ा धीमा पड़ना चाहता हूँ. ठहर कर जितना समझा है, उससे अपनी दुनिया का खाका खींचना चाहता हूँ. जितनी भी बातें समझ पाया हूँ, उन्हें तरतीब से लगाने की ज़िद करना चाहता हूँ. हो सकता है इस काम में ख़ूब वक़्त लग जाये. वक़्त की उन घड़ियों में जो मेरी दुनिया हो उसके नक़्शे की बनावट किसी भी पहले के नक़्शे से मेल न खाती हो तब क्या करूँगा, यह अभी से नहीं सोचना चाहता. सोचना पहले कदम से भी पहले कहीं और मुड़ जाना है. तारीख़ को जानने वाले इसे किस तरह लेंगे, इससे जादा ज़रूरी है, वह उन वैचारिक यात्राओं के चित्र खींचें, जिन्होंने हमें इस क़ाबिल बनाया, जहाँ हम यह सोच पाए कि हम भी अपनी शर्तों पर अपनी दुनिया बना सकते हैं. बना सकने की बात सोचना, ख़ुद को जानने, उससे बात करने की पहली शर्त है. जो ख़ुद से बात नहीं करते, वह दूसरों की बनायीं दुनिया में केंचुओं की तरह