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अगस्त, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दो अलग-अलग बातें

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1. कभी-कभी सोचता हूँ, मेट्रो में यह दृश्य न जाने मेरी अनुपस्थिति में कितनी बार घटित होता होगा। यह कोई आश्चर्यजनक दृश्य नहीं है। बस इसमें होता यह है कि एक बैठे हुए लड़के के पास पिछले स्टेशन पर चढ़े बुजुर्ग व्यक्ति आकर खड़े हो जाते हैं। अब लड़का क्या करे? वह पास में बैठी या पास में खड़ी लड़की की तरफ़ देखता है। उसे लगता है, वह पहले से ही उसे देख रही है। बेचारा बैठा हुआ लड़का पहले ज़मीन में नज़रें गढ़ाता है, फिर चुपचाप शालीनता को अपने चेहरे पर ओढ़ते हुए, मुस्कुराकर अपनी सीट उन उम्र दराज़ व्यक्ति के लिए 'अंकल आप बैठिए' कहकर छोड़ देता है। मुझे तो यहाँ तक लगता है, हमें किसी भी अधेड़, बूढ़े व्यक्ति के लिए अपनी सीट नहीं छोड़नी चाहिए। कभी हम यह सोचते हैं, उन्होंने यह कैसा समाज बनाया है? क्या कभी इसकी इस जटिल संरचना पर कोई प्रहार भी किया है? अगर किया होता, तब यह दुनिया शायद रहने के लिए कुछ बेहतर जगह होती। यह वही अकड़ में डूबे हुए लोग हैं, जो आज के लड़के-लड़कियों द्वारा अर्जित स्वतंत्रताओं पर औपचारिक अनौपचारिक रूप से अनर्गल बातें किया करते हैं। ऐसे पुरुषों की वजह से ही हम पता नहीं कितनी अंतर्विरोधी ज़ि

मोहन राकेश की डायरी

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कोई किसी किताब का कितना इंतज़ार कर सकता है, कह नहीं सकता। मेरा यह अनुभव अभी तक सिर्फ मुझतक सीमित है। मोहन राकेश को मैंने उनके नाटकों से नहीं जाना। उनकी डायरी से मिलकर मुझे लगा, यही वह व्यक्ति है जो मुझे, मुझसे मिलवा सकता है। यह बात रही होगी ग्रेजुएशन के खत्म होने वाले साल की। तब व्यवस्थित तरीके से लिखना शुरू नहीं किया था। कुछ भी नहीं। डायरी की शक्ल में तो बिलकुल भी नहीं। मोहन राकेश की डायरी ने बताया, लिखना सिर्फ लिखना नहीं होता। मैं सोचता, अगर यह डायरी अपने पास रखने के लिए मिल जाये, तो क्या बात होती। यह कोरी भावुकता में लिपटी हुई व्यक्तिगत इच्छा नहीं है। बस कुछ था, जो ऐसा लगता रहा। साल बीते हम एमए में आ गए। एमए खत्म हो गया। मोहन राकेश का नाटक 'आधे-अधूरे' पढ़कर लगता रहा डायरी में इसके हवाले ज़रूर होंगे। पर कुछ कर नहीं पाया। कुछ करना था ही नहीं। छात्र अक्सर कुछ कर भी कहाँ पाते हैं? सब कहते 'आपका बंटी' मोहन राकेश के पारिवारिक ज़िंदगी की कहानी है। उसमें जो बंटी है, वही उनका बेटा है। मैं ऐसा कहते हुए कोई नयी बात नहीं कह रहा। बस उन बातों को अपने अंदर फिर से दोहरा लेना चाहता

गाँधी के साथ एक दिन

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कोई भी व्यक्ति अपने देश काल से बाहर नहीं हो सकता, ऐसा नहीं है. हम कल्पना में अक्सर ऐसा करते हैं. सपनों में हमारे साथ यही होता है. हम उस वक़्त जहाँ खड़े थे, वह महात्मा गाँधी की समाधी के बिलकुल पास मुझे मिला. उसने गुजराती लहजे में मुझसे पूछा, 'यह क्या है’? यह पहला व्यक्ति था, जो मेरे सामने इन ऊपर कही सीमाओं से परे चला गया. उसने अपनी महिला साथी को पुकारा और कहा, 'रास्ता नीचे से है, ऊपर से नहीं’. उनके लिए यह दिल्ली आने पर घूमने की एक जगह है. शायद हम जगहों को पहली बार इसी तरह अपने अन्दर रचते हैं. यह 'घोषित' ऐतिहासिक स्थल उनके मन में कब 'स्थापित' होगा, कहा नहीं जा सकता?  गाँधी नोट पर हैं, जो उनकी जेबों बटुओं में होंगे. जो उम्मीद करते हैं, उसके साथ विचार भी पहुँच रहे होंगे, वह अभी सोचना भी शुरू नहीं करना चाहते. उस पर ऐसी कोई तथ्यात्मक बात नहीं है, जो बताती हो उनकी मृत्यु कैसे हुई थी? उसे मृत्यु नहीं हत्या ही कहा जाना चाहिए. जैसे यह सूचना रिज़र्व बैंक के किसी नोट पर नहीं है, राजघाट भी नोट बन जाता है. यहाँ ऐसा कोई सूचनात्मक बोर्ड नहीं है. यह स्थल अपने आप उम्मीद करता

टॉयलेट: एक प्रेमकथा

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यह फिल्म हमें किस तरह गढ़ रही है, यह सबसे पहले देखने वाली बात है। एक लड़का, जिसे अधेड़ कहना उचित होगा, उसकी शादी अभी तक नहीं हुई है। वह किस तरह प्रेम को अपने अंदर पाता है? कैसे प्रेम किया जा सकता है? उसके प्रेम को यह फिल्म 'प्रेमकथा' कहती है। यह कैसा प्यार है, जिसमें लड़का लड़की का पीछा करता है। साइकिल, मोटर साइकिल, बस, ट्रेन, टेम्पो, यातायात के सभी उपलब्ध साधनों से लड़की का पीछा ही नहीं करता, उसकी मर्ज़ी के बिना उसकी तस्वीरें उतारता है। उस तस्वीर से अपनी साइकिल एजेंसी का विज्ञापन बनवाता है। लड़की इस विज्ञापन को कस्बे में जगह-जगह देखती है और एजेंसी में जाकर अपना विरोध दर्ज़ कराती है। इस क्षण तक प्रेम का अंकुर उस लड़की में कहीं अंकुरित होता नहीं दिखता। वह कब नायक पर रीझती है? जब उसे एहसास होता है, वह अधेड़ अब उसका पीछा नहीं कर रहा है। उसे अपने अंदर एक अजीब तरह का खालीपन महसूस होता है। जिसे हम दर्शक, जिसमें अधिसंख्यक पुरुष होंगे, वह किसी प्रेमकथा का आधार मान लें, तो क्या गलत है? हम सब एक पीछा करने वाले लड़के के लिए सहानुभूति से भर गयी लड़की को अपने सामने, बेचैन रातों में नींद न आने के क

न कहना

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मैं कभी नहीं कहता मुझे किसी से मिलना है। मैं कभी नहीं कह पाऊँगा। यह दोनों बातें जितनी अलग दिखती हैं, उससे ज़्यादा यह मेरे भीतर गहरी धँसी हुई हैं। हम विपरीत ध्रुवों पर खुद को रच रहे होते हैं। इसे गढ़ते हुए यह पंक्ति हर उस पढ़ने वाले के अंदर घटित हो सकती है, जिससे मैं इधर कई दिन हुई नहीं मिला होऊंगा। समान रूप से दूसरी तरफ भी यही भाव जब इस तासीर में घुल जाएगा, तब देखना चाहता हूँ, वह सब कैसे होते जाएँगे? इस न कहने और मिलने के बीच जो जगह है, उसी के आस पास खुद को बनता हुआ देखता हूँ। वह सब भी जो मुझ से मिलना चाहते होंगे, मुझ से मिलने, कुछ देर बात करने, बहुत सारे दिन मेरे साथ रहने की इच्छा से भर गए होंगे, वह भी मेरी तरह उस दूसरे व्यक्ति को कुछ भी नहीं बता रहे हैं। यह अजीब किस्म का चुप्पापन कुछ ऐसी गंध छोड़ रहा है, जिसे मैं अपने इर्द-गिर्द महसूस कर रहा हूँ। इसमें अजीब से खालीपन के बाद उपजा कुछ है, जिसे देख पाना संभव नहीं है। वह इन पंक्तियों में ही कोई आकार ले रहा होगा। वह किस शक्ल का होगा, मुझे नहीं पता। पर इतना है वह इन पंक्तियों में अनदेखा नहीं रह जाएगा। कई अनदेखी चीज़ें ऐसे ही नज़र आ जाती हैं

क्षण

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मैं कई दिनों से लिखने के लिए एक ऐसे क्षण की प्रतीक्षा में हूँ, जब यह लिखे जाने वाली घटना मेरे अंदर उसी तरह दोबारा घटित हो जैसे वह उस रात हुई थी। बिलकुल उन्हीं भावों से एक बार फ़िर भर जाना चाहता हूँ। लेकिन कोशिश करने के बाद भी किसी युक्ति से उन पलों को अपने अंदर दोबारा घटित नहीं कर पाया हूँ। यह एक दुखद घटना की पुनरावृत्ति नहीं है। यह किसी अनचाहे खटके से कहीं पहले उसे दर्ज़ कर लेने की मेरी छोटी सी इच्छा है। यह घटना किसी भी तरह से कुछ भी बदल देने का कोई दावा नहीं कर रही है जबकि इधर सब कोई न कोई दावा कर लेना चाहते हैं। यह इस भाव से मुक्त है। सच में, यह बहुत छोटी-सी घटना को लिख लेना है। जिसमें आगे कुछ भी घटित होता हुआ नहीं दिखाई देगा। यह न दिख पाना हमारी तंगनज़री होगी, इसलिए पहले ही सावधान किए देता हूँ। माँ और मैं बहराइच से अभी चले नहीं हैं पर लखनऊ में हमारा इंतज़ार हो रहा है। बस को चलने में अभी थोड़ा वक़्त है। पूछने पर किसी ने कहा, चार पचीस पर चलेगी। पर वह वहाँ सोच रहे होंगे, बस चल पड़ी है। अभी थोड़ी में जरवल रोड पार कर जाएँगे और घाघरा घाट आ जाएगा। इस तरह कुल तीन घंटे बाद यह बस रामनगर, बाराब