दो अलग-अलग बातें
1. कभी-कभी सोचता हूँ, मेट्रो में यह दृश्य न जाने मेरी अनुपस्थिति में कितनी बार घटित होता होगा। यह कोई आश्चर्यजनक दृश्य नहीं है। बस इसमें होता यह है कि एक बैठे हुए लड़के के पास पिछले स्टेशन पर चढ़े बुजुर्ग व्यक्ति आकर खड़े हो जाते हैं। अब लड़का क्या करे? वह पास में बैठी या पास में खड़ी लड़की की तरफ़ देखता है। उसे लगता है, वह पहले से ही उसे देख रही है। बेचारा बैठा हुआ लड़का पहले ज़मीन में नज़रें गढ़ाता है, फिर चुपचाप शालीनता को अपने चेहरे पर ओढ़ते हुए, मुस्कुराकर अपनी सीट उन उम्र दराज़ व्यक्ति के लिए 'अंकल आप बैठिए' कहकर छोड़ देता है। मुझे तो यहाँ तक लगता है, हमें किसी भी अधेड़, बूढ़े व्यक्ति के लिए अपनी सीट नहीं छोड़नी चाहिए। कभी हम यह सोचते हैं, उन्होंने यह कैसा समाज बनाया है? क्या कभी इसकी इस जटिल संरचना पर कोई प्रहार भी किया है? अगर किया होता, तब यह दुनिया शायद रहने के लिए कुछ बेहतर जगह होती। यह वही अकड़ में डूबे हुए लोग हैं, जो आज के लड़के-लड़कियों द्वारा अर्जित स्वतंत्रताओं पर औपचारिक अनौपचारिक रूप से अनर्गल बातें किया करते हैं। ऐसे पुरुषों की वजह से ही हम पता नहीं कितनी अंतर्विरोधी ज़ि