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मार्च, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बात बाक़ी..

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कल सुबह की तरह कभी हड़बड़ी में नहीं लिखना चाहता। लगता है, जैसे कुछ छूट गया हो। मौसम जैसी परिघटना को एक पंक्ति में शहतूत देख, कह देने भर से इन दिनों की बारीकियों को कह पाया होऊंगा, ऐसा बिलकुल नहीं है। वह मेरे जैसे की पकड़ में आने वाली चीज़ नहीं है। सच, वह कोई चीज़ ही नहीं है। असल में मौसम हवा है। हवा आँख से दिखती नहीं है। उसे हमारी त्वचा महसूस करती है। वह बताती है, मौसम बदल गया है। आँखें तो बस उन हवाओं के साथ बदलने वाली प्रकृति को देख पाने की कोशिश करती हैं। फूल आ गए हैं, यह तो उनकी ख़ुशबू से भी पता चल जाता है। लेकिन जब हमारी सभी इंद्रियाँ इन परिवर्तनों को एक साथ महसूस करते हुए अपने अंदर जो रेखाएँ खींचती हैं, वही उस बीत रहे मौसम की सबसे सुंदर तस्वीर होती है। उसका घटना, घटना नहीं हमारे अनुभव संसार में कुछ ख़ास हिस्से जोड़ते चलना है। जैसे अभी शहतूत पक रहे हैं। बोगनवेलिया बिखर रहा है। सेमर की रुई बन रही है। आम के बौर धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। अमलतास के फूल खिलने वाले हैं। इन सबको एक साथ महसूस करने के लिए एक-एक क्षण वहीं थम जाना होगा। पर तुम्हारी तरह नहीं राकेश। तुम तो अपने फ़ोन को लेकर इस कदर ब

शहतूत आ गए हैं

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कैसा मौसम हो गया है? उसका भी ‘सैकिण्ड सैटरडे’ हो जैसे। शायद छुट्टी पर चला गया लगता। इसलिए नज़र में आता हुआ भी गायब है। हम कुछ भी कह देने को अपनी मर्ज़ी मानते हैं पर लिखने के पीछे गुज़रते हुए उन ध्वनियों में कहीं भी उन एहसासों को छू भी नहीं पाते। ऐसा क्यों होता होगा, कह नहीं सकता। जैसे नहीं कह सकता ‘चीनी फेरी वाला’ आज होता तो कितने बरस का होता? महादेवी वर्मा फ़िर कभी उस चीन से आए फेरी वाले से कभी मिलती हैं, यह भी नहीं बतातीं। पर शहतूत आ गए हैं। सड़क पर चलते हुए थोड़ा नीचे देखकर हम इन्हें पैरों से दबने से बचा सकते हैं। हम नहीं तो कोई होगा, जो इन्हें भी खा जाएगा। कच्चे, अधपके, खट्टे मीठे। काले, गुलाबी, लाल, सफ़ेद। सबका स्वाद कितना अलग हुआ करता। छुटपन में ढेले मार मारकर शहतूत के पेड़ को छलनी कर दिया करते। आज याद भी नहीं आख़िरी बार शहतूत कब खाये। कभी उन्हें पड़ा देखता तो उठाने की गरज से भर नहीं जाता। बस इतना ध्यान रखता हूँ, पैर के नीचे न पड़ जाएँ। एक वक़्त रहा होगा, जब हम इनसे ख़ुद को मापते होंगे। आज इन्हें देखते हैं तो यहाँ लिखने बैठ जाते हैं। यह दौर बदलने की नहीं हमारे बदलने की कहानी की सबसे दुखद पंक

एक पन्ना अश्लील

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बदरी छाई हुई है। जी हाँ, दिल्ली के आसमान पर बादर हैं। अलसाने वाले मौसम की आहट में हम सब किसी घुन्ना इश्क़फ़रेब की तरह बिस्तर पर नंगे पड़े बस इंतज़ार कर रहे हैं। कोई तो आएगी। इसी ख़याल को अपने मन में बुनता हुआ वह आसमान से गिरती बूँदों को देखने लगा। उसकी शक्ल बिलकुल मेरी शक्ल में बदलने लगी। मैं कुछ नहीं कर पाया। शायद घड़ी के किन्हीं खास पलों में हम सब इन के बगल लेटे हुए मिलते हैं। कोई नंगे बदन हमारे मन में चलते हुई आती होगी। कल सिनेमा पर देखी हीरोइन की तरह। करीना। नहीं नहीं करीना नहीं। थोड़ी बूढ़ी लगती है अब। श्रीदेवी टाइप। आलिया भट्ट। साड़ी में। ‘थ्री स्टेट्स’ में थी जैसे। दो उन दोनों के तीसरा मेरा यूपी। हो गए न तीन स्टेट। आएगी साड़ी में जाएगी बिकनी में। नंगी। मैं भी तो बिलकुल नंगा हूँ, विमर्श वाली बहन जी। मुझे नहीं देख रहीं आप। जो पहली पंक्ति से वहीं चादर ढके लेटा हुआ हूँ। अगर तुम्हें लग रहा है, शिफॉन की भीगी साड़ी में चिपके बदन देखने के आदी हम पुरुष ‘स्टीरीओटाइप’ में सोचते हैं तो रेगिस्तान में भी हम यही कल्पना कर सकते हैं। वैसे यह कल्पनाएं हमने नहीं रची हैं। हमें भी हमने ख़ुद नहीं गढ़ा है।

तस्वीर के बहाने डकार

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उठकर नीचे गया। पानी भरते हुए पानी पिया। पानी वापस लौटकर फेफड़े और गले के आस-पास अभी तक नहीं आई डकार में बदल गया और उसने बताया अभी भी कितना कुछ पचने के लिए बाकी है। उस डकार में पुदीने की चटनी और आलू की पकौड़ियों का स्वाद आता रहा और मुझे याद आती रही दो साल पहले की एक याद। भले मेरा मन न हो, तब शादी के वक़्त मेरे चहरे पर दाढ़ी नहीं है। सब यही चाहते थे। वही हुआ। मैं ख़ुद अपने आपको दाढ़ी में उस करोल बाग से खरीदी शेरवानी में राजेश खन्ना तो क्या जुबली कुमार राजेन्द्र कुमार भी नहीं लग पाता। पर ख़याल है। ख़याल का क्या(?) वह ऐसे ही आते रहते हैं। इधर जब हम चार दिन बाद दिल्ली लौटे तब देखा उसने अपनी शादी की तस्वीर लगाई है। दोनों साथ खड़े हैं। उन्होंने लहंगा पहना हुआ है और वह ख़ुद शेरवानी में है। यह तस्वीरें अफ़वाहों के बहने के बाद उन्हें खत्म करने की गरज से वहाँ मौजूद थीं। शादी बेगूसराय या पटने में कहीं हुई होगी। पर एक चीज़ जो देखने लायक थी, वह उसके नाम में तबदीली रही। कितना सोचा होगा उसने। शादी कर रहा है। फ़िर नाम क्यों बदलना पड़ा? बदलना नाम का नहीं था बल्कि उसके पिछले हिस्से का हटा दिया जाना था। होगा कुछ।

इतिहास से पहले

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जबकि मुझे पता है, यहाँ लिखा हुआ किसी और के लिए नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिए हैं, तब भी हमें इस सवाल से भी जूझना होगा इस माध्यम को चुनने का क्या कारण रहा? यह बहस एकदम बेकार लगते हुए भी हर बार मुझे खींच लेती है। आज भी मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है। मैं तो बस कुछ-कुछ कहने के लिए यहाँ बार-बार आने जाने वाला एक अदना-सा 'नैरोकास्टर' ठहरा, जिसकी वैबसाइट पर आने वालों की कोई भीड़ नहीं है। कभी इसके 'क्रैश' होने की खबर मुझ तक नहीं पहुँची। सब शांत भाव से चलता रहा है। क्या सच में सब इतना सरल सपाट है? पता नहीं। कहीं और भी व्यवस्थाएं होंगी जो इसमें बिन सामने आए अपनी भूमिकाएँ निभा रही होंगी। उनका नज़र न आना उनके अस्तित्व को नकार देना नहीं है। यह देश भी कोई एक दिन में खड़ा नहीं हो गया। अभी भी खड़ा होने की कोशिश कर रहा है। कौन लोग थे, कौन लोग हैं(?) जो लगातार इसकी नींव बनते रहे हैं और नज़र नहीं आते। हो सकता है, आपके लिए यह दोनों सवाल अलग-अलग हों लेकिन एक बिन्दु पर यह एक ही जगह से निकले हैं। कौन है जो हम सभी को नेपथ्य में धकेल कर हमें चमत्कृत कर देने की नियत से हमारे सामने है? वह कौन-स

थम जाना।

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जब हम लौटते हैं, काफ़ी कुछ पीछे छूट जाता है। हम चाहते हैं हम सब समेटते चलें। पर यह संभव नहीं लगता। कोशिश करते हैं। फ़िर भी नहीं कर पाते। कोशिश हमेशा संभावनाओं को बचा ले जाना है। कोई कितना बचा पाता है यह दूसरी, तीसरी या चौथी चीज़ है। हम वहीं अंदर बैठे हैं। बातें हो रही हैं। सब चुप हैं। एक-एक बात हमारे मन में चल रही है। जैसे पटरियों पर भागती रेल कहीं अनजान से स्टेशन पर रुकती, हम रुक जाते। एक साथ कितने ही दृश्य स्थिर होकर हमारी स्मृतियों में व्यवस्थित होने के लिए चल पड़ते। अँधेरे के साथ हम अंदर वापस लौटते और थम जाते। एक वक़्त आएगा जब हम अंदर से यह महसूस भी नहीं करेंगे कभी हम इन यादों में डूबे रहना चाहते थे। यह सनद तब हमें याद कराएगी इसलिए लिख रहा हूँ। हम सब एक साथ इतने भुल्लकड़ नहीं हैं फ़िर भी भूल जाते हैं। अपने हिस्सों को हमेशा चोर जेब में लिए चलने वाली लड़कियाँ कैसे उसे किसी के सामने निकालेंगी यह ख़ुद को शातिर समझने वाले हम लड़कों से कितना अलग होगा, कह नहीं सकता। हो सकता है कुछ लड़कियाँ आने वाले वक़्त में लड़कों में बदल जाएँ और हम लड़के लड़कियों में अपने इस बीत रहे अतीत की आहटों को महसूस कर र

वर्धा के लिए निकलते हुए

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साढ़े तीन के लगभग हम सब रेल में अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित हो चुके होंगे। हम सब वर्धा जा रहे हैं। ऐसे ही कुछ काम है। काम सिर्फ़ एक बहाना है। दरअसल हम एक नयी जगह को इतनी पास से देखने का मौका गँवाना नहीं चाहते थे। टिकिट आरएसी से कनफर्म होने में जितना भी वक़्त लगा, हम यही सोचते रहे बस किसी तरह से हो जाए। हम एक दिन फ़ालतू लेकर चल रहे हैं। थोड़ा घूम लेंगे। गाँधी कुटीर। नयी तालीम का विद्यालय। सब। अभी हम कुल आठ लोग हो गए हैं। दो और हैं जो बंगलोर राजधानी से जा रहे हैं। उन्हें नागपुर से अस्सी-नब्बे किलोमीटर का सफ़र बस से तय करना होगा।  लेकिन पहुँचेंगे सब कल सुबह ही। बीस घंटे के सफ़र के बाद हम सब थक जाएँगे। हम ऐसा नहीं सोच रहे। गर्मी बहुत है वहाँ। समर और संदीप कहते हैं, वहाँ दो ही मौसम होते हैं। गर्मी और ख़ूब गर्मी। हम इस पहली वाली गर्मी की किश्तों में पहुँचेंगे। वह धीरे-धीरे बढ़ रही है। दिल्ली से सात डिग्री का फ़र्क था कल। यहाँ हम तीस पर थे दोपहर और वहाँ ग्यारह बजे अड़तीस डिग्री तापमान में सब तप रहा था। यह रुक्का बहुत पहले लिख लिए जाने की माँग कर रहा था। पर अभी डेढ़ बजे, यहाँ घर से निकल रहा हूँ। भाग

ये आपाधापी..

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सब कुछ कितना व्यवस्थित लगता दिखता है। दुनिया, जिसे हम धरती कहते हैं, वह लगातार घूम रही है। दिन के वक़्त पर दिन, रात के वक़्त पर रात। मौसम भले हमारी करतूतों के बाद थोड़े इधर-उधर खिसक गए हों, पर इसने घूमना नहीं छोड़ा। इसी में मेरे चेहरे पर दाढ़ी भी एक व्यवस्था है। हम जैसे कपड़े पहनते हैं वह भी इसी का विस्तार है। कभी सोचा नहीं, अगर हम उन लोगों के लिए इतने जुगुप्सा से क्यों भर जाते हैं, जो इस ढर्रे में कहीं 'फ़िट' नहीं बैठते। व्यवस्थित हो जाना सबसे बड़ी व्यवस्था है। वह पंचकुइयां रोड़ की लाल बत्ती पर कितने ही दिन रोज लेटा हुआ मिलता। उनसे किसी को परेशान नहीं किया। लेटा है तो लेटा है। आती-जाती गाड़ियों के पहियों को अपनी मौत का सामान नहीं माना उसने। बड़ी से मर जाता और छोटी से राम मनोहर लोहिया अस्पताल पहुँचते देर नहीं लगती। पर उसका कूड़ेदान के पास वाली जगह का चयन सबसे रचनात्मक चिंतन का नतीजा दिखता है। वह बड़ी चालाकी से वहीं डटा रहा। बदबू उससे आ रही थी या कूड़े से जब तक हम इस निर्णय पर पहुँचते, हम दो-तीन कदम की दूरी पार कर चुके होते। बंद मौसम, बंद खिड़कियों के बाहर नज़र इतने 'स्लो मोशन' मे

आवाज़ें..

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पता नहीं वक़्त के किसी खास क्षण में मेरे कानों में लकड़ी को ज़मीन पर पटकने से निकलने वाली आवाज़ सुनाई देने लगी है। हम सबको पता है, हमारे कान बिलकुल ठीक हैं और 'डॉल्बी सिस्टम' से कई गुना बेहतर सुने जाने लायक 'मकैनिज़्म' रखते हैं। पर शायद यह इसकी बेहतरी ही है कि कुछ आवाज़ें अपने आप अंदर दाख़िल होकर घुलने लगती हैं। जैसे, जब तुम मुझसे बात नहीं कर रही होती तब भी मैं तुम्हें सुन रहा होता हूँ। ऐसे हम दोनों ख़ूब बात किया करते हैं। तुम भी करते होगे। पीछे बैठी बस में खिड़की से बाहर झाँकती लड़की से। बगल में चिपककर बैठे उस लड़के से। दिल से निकलती धड़कनों के बीच होंठों के स्पर्श से पैदा हुए स्पंदन में हम दोनों एक साथ सुन रहे होते हैं। सुनना सिर्फ़ कान से नहीं होता, दिल में उतरते जाने से भी होता होगा। जो यह नहीं समझ पाते, वह सिर्फ़ इस दुनिया में कुछ साल जीते हैं, जीकर मर जाते हैं। आवाज़ें जिंदगी में रंग भरती हैं। उनमें एक खास गंध होती है। उनकी छुअन मुलायम से मुलायम फूल को भी मात दे सकती है। उन उमर के साथ खुरदरे होते हाथों में पानी लग लग कर खाल को गला रहा होता है। पर उनमें स्वाद की हमारी परिभाषा