बात बाक़ी..
कल सुबह की तरह कभी हड़बड़ी में नहीं लिखना चाहता। लगता है, जैसे कुछ छूट गया हो। मौसम जैसी परिघटना को एक पंक्ति में शहतूत देख, कह देने भर से इन दिनों की बारीकियों को कह पाया होऊंगा, ऐसा बिलकुल नहीं है। वह मेरे जैसे की पकड़ में आने वाली चीज़ नहीं है। सच, वह कोई चीज़ ही नहीं है। असल में मौसम हवा है। हवा आँख से दिखती नहीं है। उसे हमारी त्वचा महसूस करती है। वह बताती है, मौसम बदल गया है। आँखें तो बस उन हवाओं के साथ बदलने वाली प्रकृति को देख पाने की कोशिश करती हैं। फूल आ गए हैं, यह तो उनकी ख़ुशबू से भी पता चल जाता है। लेकिन जब हमारी सभी इंद्रियाँ इन परिवर्तनों को एक साथ महसूस करते हुए अपने अंदर जो रेखाएँ खींचती हैं, वही उस बीत रहे मौसम की सबसे सुंदर तस्वीर होती है। उसका घटना, घटना नहीं हमारे अनुभव संसार में कुछ ख़ास हिस्से जोड़ते चलना है। जैसे अभी शहतूत पक रहे हैं। बोगनवेलिया बिखर रहा है। सेमर की रुई बन रही है। आम के बौर धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। अमलतास के फूल खिलने वाले हैं। इन सबको एक साथ महसूस करने के लिए एक-एक क्षण वहीं थम जाना होगा। पर तुम्हारी तरह नहीं राकेश। तुम तो अपने फ़ोन को लेकर इस कदर ब