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देह

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पता नहीं क्यों लगता है, हम सबमें देह का आकर्षण लगातार बढ़ रहा है। एक-दूसरे को आदिम अवस्था में खुलेआम देखने की इच्छा का विस्तार जिस तरह से हुआ है, उसे सिर्फ़ यौनिकता से समझ लिया जाएगा, ऐसा नहीं है। मेरे ख़याल से यह एक धुरी है। इसके चारों तरफ़ सिर्फ़ हम नहीं हैं, हम बर्बर बनने की प्रक्रिया में संलग्न एक इकाई हैं। यह जो कुछ भी है, जैसा भी है, इसमें जिसे हमारी इच्छा बनाया जा रहा है, यह सब इतना भी निर्दोष नहीं है। यहाँ मैं किसी तरह की कोई व्याख्या करने की गरज से नहीं भर गया हूँ, न इसे दक्षिणपंथी राजनीति के एजेंडे का हिस्सा ही समझा जाना चाहिए। यह सिर्फ़ और सिर्फ़ हम सबको मनुष्य से घटाकर लिंग और योनि जैसे विभाजनों में बाँट देना है। यह कुछ उन भावों के उभरने जैसा है, जैसे हम किसी सवारी गाड़ी में कहीं छिपे हुए स्तनों के बीच की दिख गयी खाली जगह को देखकर संभोग के विचारों से भर जाते हैं। यह जितना शब्दों से अश्लील लग रहा है, उतना इस क्रिया में संलग्न उन दो व्यक्तियों के मध्य हुई उस संधि का एक छोटा सा हिस्सा है, जहाँ उनके सवालों में अभी सिर्फ़ देह की सुचिता के प्रश्नों का अब कोई मूल्य नहीं है। अगर एक-द

इच्छा

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पता नहीं क्यों आज लिखने का मन हो गया। यह कुछ ऐसी बात है, जिसे कहे बिना रहा नहीं जा रहा। यह असर की बात है। यह एक इच्छा की तरह मेरे अंदर उभरी है। इसे अगर शब्दों में कहने बैठूँ, तब इसमें सिर्फ़ इतनी सी बात है कि नहीं चाहता मेरा मुझसे बाहर किसी भी पर भी कोई असर पड़े। यह किस तरह का ख़याल है, उससे ज़्यादा ज़रूरी बात है यह एक ख़याल की तरह मेरे अंदर क्यों उग आया? शायद इन दिनों देख रहा हूँ, चाहे-अनचाहे बहुत कुछ ऐसा मेरे बाहर आया है, जिससे नहीं चाहता, कभी वह किसी की बात में ज़िक्र की तरह आए। लगता बात टूट रही है। जिस ताप से एक पल पहले महसूस कर रहा था, अब अनमना होकर कह रहा हूँ। ऐसा नहीं है। यह शायद इंसानी फ़ितरत है या हम ख़ुद किसी न किसी की तरह किन्हीं संदर्भों को अपने आस-पास छोड़ते रहते हैं। यह छोड़ना ख़ुद छूटने जैसा नहीं है। यह अनायास भी नहीं कहा जा सकता। हम लिखकर, कहीं बोलकर, कहीं न बोलते हुए सब कर रहे हैं। मैं तो अपने इर्दगिर्द इसी तरह उलझा हुआ रहता हूँ जैसे किसी मकड़ी के जाले में वह मकड़ी ख़ुद को ही इस कदर उलझा ले जहाँ से उसका निकलना एक दम असंभव हो। जानकार कहते हैं, उसके थूक में यह बात छिपी हुई है। उस

डिसलोकेट

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आवाज़ें कभी-कभी डिसलोकेट करती हैं। उन सब जगहों से भागते हुए मुझे कभी यही लगता रहा कि परिचित ध्वनियों से बना एक परिवेश ऊब से भी ज़्यादा कोफ़्त देने वाला वितान रचता है। अभी जहां बैठे हुए यह सब लिख रहा हूं, वहां रात के दस बजे कल सुबह के लिए कूकर में आलू उबल रहे हैं। एक सीटी की सुरसुराती हुई आवाज़ किस तरह मेरे कानों में बजती हुई किन दृश्यों तक मुझे ले गई है, बता भी नहीं सकता। उन्हें कहते हुए यह विषय पीछे छूट जाएगा। जो बात यहां रेखांकित करना चाहता हूं, वह पहली पंक्ति के भीतर ही समाप्त हो जानी चाहिए थी, जिसका भाष्य यह व्याख्या कर पाने में अक्षम है। सोचिए, आप रात के लगभग तीन बजे रजाई उघड़ जाने से लगातार बड़ी देर से लगती ठंड के कारण उठते हैं और तभी कहीं लोहे की दीवार से किसी के बात करने की आवाज़ आती है। यह स्वाभाविक जिज्ञासा मेरे मन में भी थी। कौन इतनी रात गए आपस में बात कर रहा है? जब कुछ देर तक एक ही आवाज आती रही, तब यह पुख्ता हुआ कोई फोन पर दूसरी तरफ़ इसी तरह तड़के तीन बजे जागा हुआ है। जब आप ठंड लगने से कुनमुनाते हुए पेशाब के बहाने अपनी नींद को दोबारा शुरू करने की इच्छा से भरे हुए हैं

निकलने से पहले

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हर बार कहीं बाहर जाने से पहले मेरे मन में बहुत सारे ख़याल एक साथ तैरने लगते हैं । हर बार उन सबको लिखने की इच्छा से भर जाता हूँ । मुझे इसमें कुछ भी अस्वभाविक नहीं लगता । यह उन कम रह गए क्षणों का अतिरेक हो या बहुत दिनों से चलने वाली बातें, सब इस कदर अदेखा लगता है कि उस उजाले में कुछ भी दिखाई नहीं देता। एक तो जबसे इन बीतते सालों में अकेले निकलने के मौक़े आए हैं, वह भी इसके लिए ज़िम्मेदार होंगे । दूसरे, मेरे मन में जो बीत रहे पलों को कह देने की ज़िद है, उसके साथ-साथ भी इस तरह की अवस्थाओं को अपने अंदर रेखांकित करते जाना बहुत तरह से ख़ुद की निशानदेही के लिए ज़रूरी काम की तरह लगने लगा है । रास्ते हर बार देखे हुए हों ऐसा नहीं है। कई बार वह किसी रहस्य की तरह ख़ुलते हैं । इन स्मृतियों में अगस्त से उस पल को पता नहीं कितनी ही बार दोहराता रहा, जब होशंगाबाद पार हुआ आसमान में बादल दिखे। अँधेरा अभी हुआ नहीं था, सब दिख रहा था। तभी डिब्बे में अचानक एक बेचैनी घर कर गयी । भोपाल आ रहा है । मैंने पर्दे थोड़े हटा दिये। उस पल जैसे ही मैंने खिड़की के पार देखा, एक रेल्वे फ़ाटक दिखाई दिया । बंद था। उस तरफ़ एक दो लोग