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वे दिन

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बहुत सारी बातें मन में एक साथ चलने लगी हैं । यह इधर होता नहीं था, कैसे आज हो गया, समझ नहीं पा रहा । बहुत दिनों बाद अपने पुराने ब्लॉग पर गया तो एकदम ठहर गया । कैसा समय था । लिखने वाला समय । कुछ भी लिखने वाला समय । बहुत पुराने दोस्तों को पढ़ते हुए लिखने का समय । यह समय इधर स्थगित हो गया है । मन में कुछ भी कौंधता नहीं हो जैसे । कैसे दिन रहे होंगे । सब कुछ कह देने की इच्छा से भरे हुए दिन । इन दिनों को क्या हो गया ? कैसे यह हथेली से रेत की तरह फिसल गए ? सब कुछ तो था, जिसकी वजह से लिखा देते थे । बेचैनी, जल्दबाज़ी, मन को खोलकर रख देने की ज़िद, उदासी, अकेलापन, कमरा, छत, किताबें, शाम, रातें, वैसी ही बोझिल सुबहें । कहीं से लौटकर थक गयी पीठ, पैर, पंजे । अकड़ गयी कमर, न मुड़ रही गर्दन । सब वहीं का वहीं थम गया हो जैसे । जैसे सब वहीं पीछे रह गया हो । पीछे पलटते हुए अब लगता है, उस वक़्त में कुछ तो रहा होगा, जो इन सबके अलावे कह देने की आवृत्ति को बढ़ा देता होगा । हम बेसबर रहते । जो मन में जिस पल आया, उस पल ही कह देने की छटपटाहट क्या होती है, उन्हीं दिनों जाना । क्या है, जो मुझमें या उस दौर के किसी दोस्त