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अप्रैल, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मन मेरा

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कल रात से मन थोड़ा परेशान है. शायद वक़्त के साथ न चल पाने की कोई टीस होगी. या कोई अधूरी बात से शुरू हुई उलझन ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही होगी. जब पुराने दिनों में रहकर उनके बीत जाने की इच्छा से भर गया था, तब वहाँ से ऐसे दिनों की कल्पना नहीं की थी, जहाँ स्थितियाँ और बदतर होती जायेंगी. तब तो बस उन दिनों, शामों, रातों के कट जाने की जुगत में ही लगा रहा. उन दिनों में रह लेने का अनुभव नहीं है. उन्हें जैसे छुआ भी नहीं मैंने। बस दुःख कह भर लेने की जिद ने डायरी के पन्नों पर भर कर रख दिया. पुराने दिनों में लौट जाने का कभी मन नहीं करता. बस अगर कोई उन दिनों में से कुछ वापस लाने के लिए कहे, तब लिखने की इच्छा को अपने अन्दर भर लेना चाहता हूँ. यह कोई छोटी इच्छा भर नहीं है. एक दौर है. जहाँ कागज़ से लेकर यहाँ, इस स्क्रीन पर समानांतर लिखते हुए हम बीत रहे थे. शायद इसे बीत जाना ही कहेंगे. कोई बहुत सकारात्मक व्यक्ति इसे पढ़ते हुए इस प्रक्रिया को नए दौर की तरफ बढ़ जाना भी कह सकता है. हो सकता है, उसकी भाषा इससे भी अच्छी हो। लेकिन यह किस तरह का समय है, जो समूह के विवेक की बात नहीं करता? उनसे उनकी व्यक्तिग

तुम्हारे लिए

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एक कमरा है, उसमें लाइट बंद है. बाहर सूरज है. वक़्त बिलकुल अभी का है. तीन बजकर दो मिनट। फोन को चार्जिंग पर लगाने की कोई अरबरी  नहीं है. किसी का कोई फोन नहीं आएगा। किसी से कोई बात नहीं की जा सकती। जो ज़िन्दगी चार्जर खोजते हुए बीत रही थी, उसमें ऐसे दिन भी आएंगे, कभी सोचा न था. यह एक तरह का दखल था, जो एक मशीन के साथ होने से लगातार तनाव की हालत में पहुँचा देता। अब किसी का इंतज़ार नहीं हैं. जो कल चले हैं, वह भी अभी किसी ठिकाने पहुँचे नहीं हैं. एक सुकून है, जो इन सबसे बीच में शहर जैसी संरचना में गायब है. अगर पहले पता होता, मोबाइल फोन का इतना दखल है, तब उसे कबका अपने हाथों से दीवान के ऊपर चढ़कर उतनी ऊँचाई  से इतनी तेज़ ज़मीन पर फेंकता कि उसके चीथड़े उड़ जाते। यह गुस्सा कतई नहीं है. यह किसी की अनुपस्थिति में उसके न होने का एहसास है. जब तुम साथ नहीं होती हो, तब न मालुम किन खयालों से भर जाता हूँ. मुझे खुद समझ नहीं आता, ऐसा क्यों हो जाता है?    मन करता है, सब यहीं ठहर जाएँ. वक़्त में कहीं अदेखी दिशा में भागे जा रहे पलों को रोक कर देखना चाहता हूँ, तब क्या होता है? मैं तब तक चलता रहूँगा, जब तक तुम

सालगिरह तीसरी

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इसे इस तरह शुरू नहीं करना चाहता. जैसे कल ही की बात हो, तीन साल बीत गए. यह एक बेकार शुरुवात होगी. भले वक़्त बीतने के साथ ऐसा लगता हो, पर उसे ऐसे कभी नहीं कहा जाना चाहिए. इसमें एक तरह का तिरस्कार भाव है, जो ज्यादा देर छिपा नहीं रह पाता. हम जिसके साथ जिंदगी भर के लिए सफ़र पर साथ निकल पड़े हैं, उसके साथ बिताये दिनों को अनजाने में कुछ कम करके आँकने जैसा लगने लगता है. मुझे पता है, कम से कम हम दोनों तो ऐसा नहीं करना चाहते. यह हमारे साथ बढ़ते कदम हैं. हम साथ-साथ बढ़ रहे हैं. इसे कुछ-कुछ समझने की जिद से भर गए हैं. यह जिद कुछ देर के लिए हमारी आँखों से ओझल नहीं हो पाती. हम इन गुज़रते दिनों में बार-बार पुराने दिनों में लौट पड़ते होंगे. यह किसी बही खाते के मुनीम का काम नहीं है. फिर भी हम एक-दूसरे से कहते हैं, पहले जैसे नहीं रहे तुम. यह कहना कुछ इस तरह कहना है, जैसे हम उन्हीं क्षणों में रुक गए होते और सारी ज़िन्दगी गुज़र जाती. एक पल के लिए भी हम आगे नहीं बढ़ते. वहीं थम जाते. कभी तो ऐसा सोचने लगता हूँ, काश मेरे पास भी वक़्त में पीछे जाने की कोई मशीन होती. कितनी ही चीजों में अपने इस तरह होने को होने से रोक

उदास शाम का लड़का

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यह कैसे हुआ, वह अभी भी पपीते के पेड़ को देख रहा है. वह ज़मीन पर नहीं है. किसी गर्म दुपहर के बाद ठंडी छत के एक कोने में स्थिर खड़ा हुआ है. वह ख़ुद को उस पेड़ में झाँकता सा दिखा और उसकी आँखों के किनारों से आंसू आने लगे. यह दृश्य धुंधला ज़रूर है. पर यह ऐसे ही घटित हो रहा है. इसे अपने अन्दर न जाने कितनी बार महसूस करते हुए सामने लगे पौधे में केंचुए से लेकर कछुए, छिपकली, तिलचिट्टे को बार-बार देखता रहा. यह कोई और नहीं मेरे भीतर बैठी कोई बात है. उसका होना अपने होने के लिए ज़रूरी है.  उस पर धूप हो, पारा चालीस के पार हो, छत सूरज की किरणों से झुलस रही हो, तब दिल बर्फ की तरह जमा नहीं रह सकता. वह बर्फ की तरह पिघलना शुरू कर देगा. हम सब भी मोम की तरह पिघलते होंगे. जुगनू की लौ से ऊष्मा पाती शाम की ठंडी हवा, गर्म होकर बिखर जाती होगी.  पता नहीं, वह वहाँ क्यों बैठा हुआ है. उन खुरदरी पीठों पर वजन लादे घोड़े सरपट भागने की कोशिश कर रहे हैं. फरों में कुछ भी मुलायम नहीं बचा है. जैसे कोई भी नरम ख़याल उसके मन में नहीं रह गया हो. वह उन थपेड़ों में, अपने अतीत की छवियों में कहीं गुमसुम बैठा, कुछ धागों को सुलझा

वियतनाम का पयजामा

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बाद में पता चला, वहाँ लोग इस्राइल से आते हैं. मैं वियतनाम के पयजामे के साथ वहाँ गया. यह पयजामा, क्नॉट प्लेस से ख़रीदा था. जितनी लागत में यह उस देश में बना होगा, वहाँ किसी ने इसे खरीद कर पहना होगा और उसके गंदे होने पर साबुन, डिटर्जेंट से धोया होगा, उसके इन दिनों, रातों, शामों की कितने साल की यात्रा के बाद अपने देश से कई हज़ार किलोमीटर दूर, यहाँ सौ रुपये में बिक रहा था.  इनमें से किसी बिंदु की कल्पना कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूँ. शायद यह हैसियत हममें से किसी में भी नहीं होगी. हम उन्हीं कल्पनाओं को करने के अभ्यस्त होते हैं, जिन्हें करने का अभ्यास हम अपने अतीत से करते आ रहे हैं. वह पयजामा इन छवियों में कैद नहीं हो पा रहा था.  हम कसोल से तोष होते हुए खीरगंगा तक गए. चार दिन तक लगातार, सुबह से शाम तक इसे पहने रखा. यह किसी सबार्ल्टन बहस का हिस्सा नहीं है. बस हमारे कई हिस्सों की स्मृतियों का एक हिस्सा है. वियतनाम का मौसम कैसा होगा, नहीं जानता. पर इस सूती पयजामे से उसकी तासीर कुछ-कुछ समझ आती रही. वह कपास से बना हुआ है. उसमें उस मिटटी की खुशबु नहीं पर कुछ तो था, जो कह रहा था. क्यो

गुलफ़ाम मियाँ मर गए

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प्रेम कथाएं क्यों रची जाती हैं. हमारे देश की भौगोलिक सीमा के अन्दर ऐसी कई कहानियों को हम देख सकते हैं. शायद इसका एक ही जवाब है. वह मन में बैठ जाएँ. उनका बैठना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि कोई उन्हें दोहराने की हिम्मत करे, तो उसे याद दिलाया जा सके, उन कहानियों का अंत क्या हुआ था. हमारे यहां प्रेम में हत्याएं शौर्य का प्रतीक बनकर उभरती हैं. उन्हें क्या कहा जाता है, यह दोहराने की ज़रूरत नहीं है. जो करण जौहर आदि द्वारा बनायीं गयी फिल्मों को ‘काउन्टर नरेटिव’ की तरह देखने के आदी रहे हैं, उनका कुछ नहीं किया जा सकता. आजकल हम सब देख रहे हैं, प्रेम की आचार सहिंता बनायीं जा रही है. शासन बड़ी तत्परता से वयस्कों की इच्छा को सर्वोपरि स्थान पर रख रहा है. कई कायदे पहले से तय हैं. कुछ यह तय कर रहे हैं. बहराइच तक को हम जिला होने के बाद भी क़स्बा ही मानते हैं. वहाँ भी एक ख़बर थी. दो पुरुष थाने में मेज़ की दूसरी तरफ़ खड़े हैं. दारोगा जी पूछताछ कर रहे हैं. पत्रकार आकर फोटो खींच गए. इन दिनों हम लोगों को पुस्तकालयों से थोड़ा निकलकर अपने कुछ शोध सड़कों और चौराहों पर शुरू कर देने चाहिए. देखना चाहिए, यह जो प्यार, इश्क़

सब टूट रहे हैं

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सिर्फ दीवारें नहीं टूट रहीं. जहाँ अपनी ज़िन्दगी के सबसे खुशनुमा साल गुज़ार दिए. उसके टूटने पर सब टूट रह हैं. यह टूटना किसी को दिख नहीं रहा. ऐसा कोई नहीं है, जिसके अन्दर पुराने दिनों की यादें दरक न रही हों. हम बहुत छोटे-छोटे रहे होंगे. हमारी आज की उम्र में हमारी मम्मी रही होंगी. जब वह यहाँ एक कमरे के घर में आई होंगी, तब वही नहीं आई होंगी, उनकी हमउम्र और चाचियाँ भी अपने घरों को छोड़ कर यहाँ रहने आई होंगी. वह तब से एक दूसरे को देख रही हैं. यह देखना सिर्फ़ देखना नहीं है. स्मृतियों में शामिल होना है. उनमें किसी याद में साथ रहकर वापस जीना है. जब तक हम ओस की तरह गीले हैं, तभी तक हमें जिन्दा रहना चहिये. यह ओस की बूंद ही हमें भावुकता से भर देती होगी. हमारे आँखों की नमी बनकर हमारे सामने किसी का जाना, झिलमिला जाता होगा. यह किसी की कल्पना में कहीं नहीं था, वह इस जगह का नक्शा बदल देंगे. जगह इस तरह उनकी इच्छा बन जायेगी और वह हमारे अतीत की स्मृतियों के आततायी की भूमिका में ख़ुद को ढाल लेंगे. हम कभी इस ख़याल से भरे भी नहीं थे. उन्होंने एक बार फिर साबित किया, जैसे-जैसे हम वक़्त में आगे बढ़ते जा रहे है

खिड़की का छज्जा

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खिड़कियों के बाहर अकसर छज्जे होते हैं. यह उनके लिए छतरी का काम करते होंगे. बारिश में भीगने से उसे बचाते हुए ख़ुद भीग जाना उन्हें अच्छा लगता होगा. ऐसा करके वह खिड़की को भीगने नहीं देते. उन दोनों का ऐसा होना, क्या प्रेम में होने के लिए काफ़ी नहीं है? क्या पता? मैं अभी सोच रहा हूँ, कौन खिड़की है और कौन छज्जा है. जितना दिख रहा है, शायद वह छज्जा तोड़ने वाला नहीं देख पाया. उसने हथौड़ी से उस छज्जे को चकनाचूर कर दिया. वह अभी भी अपनी जगह से सात फुट नीचे जमीन पर बिखरा पड़ा है. वह बिखरते हुए उस खिड़की को निहार रहा होगा. अब खिड़की को छज्जे की ज़रूरत नहीं है. ऐसा खिड़की ने नहीं कहा. किसने सुन लिया, नहीं पता. छज्जे को खिड़की की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है. अब छज्जे से चार फुट ऊपर छत आने वाली है. खिड़की को वह पूरा ढक लेगा. उस खिड़की को छज्जे कि याद नहीं आएगी. छत छोटी हुई तो क्या हुआ? दोनों में दोस्ती तो हो ही सकती है. इलाहबाद इसलिए एक ठीक शहर है. खंडहर होता शहर. वहाँ कोई खिड़की और छज्जे को अलग करने नहीं आता. सब उन दोनों को छोड़कर कबसे वापस नहीं लौटे हैं, कोई नहीं जानता.

हत्या

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कोई होता है, जिसे मारा जाना है. किसे मारा जाना है, शायद यह सिक्का उछालकर वह तय करते होंगे. वह कौन? हत्यारे. जो हत्या करेंगे. वह राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांतों को रेखांकित कर रहे हैं. वह उसकी बर्बरता को प्रकाश में ला रहे हैं. राज्य बर्बर लोगों का समूह है, जो किसी प्रतिद्वंदी मान लिए गए व्यक्ति की हत्या के भाव से भरता रहता है. यह किसी की हत्या तो करते हैं पर असल में डरे हुए लोग हैं. इनमें हिम्मत की भारी कमी होती है. यह अपनी पहचान ज़ाहिर नहीं करना चाहते. यह हमेशा सैनिक बने रहना चाहते हैं. वह सैनिक, जिनकी इकठ्ठा की गयी लाशों पर राज्य की नींव रखी जाती है.  यह राज्य जितना भौतिक नहीं होता, उससे ज़्यादा इसकी संरचना हमारे मनों में बैठ रही होती है. यह जोखिम भरा काम है, किसी में हमेशा डर की तरह बने रहना. कोई गंध, कोई रंग, कोई प्रतीक इनकी मदद करने के लिए मेहनत से गढ़ा जाता है. यह प्रचलित विचारों की अपनी कढ़ाई लेकर चलते हैं. विचार तले जाते हैं. जैसे-जैसे माँग बढ़ती है, बेसन में रंग घोला जाता है. असल में यह सब हलवाई होते हैं. उनका राज्य तोंद निकले हुए महाजन की रसद से बनता है. वह राज्य की एवज़ म

दो बकाया बातें

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१. कुछ आदतें होती हैं. कभी लग जाती हैं, कभी छूट जाती हैं.  नयी आदत कब पुरानी हो जाए, पता नहीं चलता. कब पुरानी बातें, कहीं पीछे रह जाएँ, कोई ख़याल नहीं आता. सब ऐसा रहता है, जैसे कितने साल से लगातार जिए जा रहे हैं. कितना कुछ है, याद करने के लिए. याद करने बैठो तो याद ही करते रहो. कभी खिड़की से बाहर झिलमिलाते पत्तों में डूबते हुए कुछ नहीं दिखता. कभी अँधेरे में चुपचाप कोई छवि चलने लगती है. उनमें लहरों की पत्थरों से टकराती आवाजें नहीं हैं. सब चुप हैं. चुप हैं, आवाजों की तरह. पढ़ना औए सोना ऐसी ही दो आदतें हैं. क्या नहीं हैं? इधर पढ़ना लगातार कम होता गया और सोना उसी अनुपात में बढ़ता गया. कोई कब तक पढ़ता रहे. उमर होती है पढ़ने की. शायद यही भूल गया हूँ. किताबें जहाँ-तहाँ बिखरी हुई हैं. उनकी तस्वीरें लेकर चमकाता रहता हूँ. इससे एक इमेजेनरी तो दूसरों के मन में जाती होगी. नहीं भी जाती हो, तब भी क्या फर्क पड़ता है? क्या ऐसा तो नहीं, अब पढ़ने का मन इसलिए नहीं होता क्योंकि जो जैसा चाहता हूँ, वैसा कोई लिख ही नहीं पा रहा? यह एक पुरानी पंक्ति की पुनरावृति भर है. इसके आगे दोहराव बादलों की तरह घिर आएगा.

छत कमरा

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मैं छत पर कमरे में बहुत देर से बैठा हुआ हूँ. कई घंटे मैं ऐसे ही यहाँ बैठ सकता हूँ. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, बाहर आग उगलता सूरज और क्या कर रहा है. चुप रहना मुझे ठीक लग रहा  है. बोलकर क्या होगा. जब इतना शोर है, तब कुछ न कहना ही ठीक है. यह कमरा मुझसे ही बोलता है. पंखा बंद कर देता हूँ तब दीवारे खुलती हैं. उस रौशनी में एक-एक फ्रेम खुलता है. यह अकेलेपन का अवसाद नहीं है. जो ऐसा समझ रहे हैं, उन्हें समझ नहीं है. वह नहीं समझते, क्या समझना चाहिए. वह बस जो दिखता है, उसे पल में जान लेने के दावे करने से फुर्सत नहीं मिलती. मैं तब भी कुछ नहीं कहना चाहता. देखना चाहता हूँ, यहाँ सामने दिवाल पर चिपके दीमक के घर में दीमक कैसे रहती है? वह भी तो कभी बोलती होगी. उसी एक पल को सुनने के लिए यहाँ चुपचाप बैठा रहता हूँ.  यह कमरा मुझे कभी यादों से भरा हुआ लगता है. मेरे दिमाग की एक एक परत यहाँ खुलती हुई लगती है. जब जिस दृश्य को चाहा उसे वहीं रोक दिया. फ्रीज करके एखने में अपना मज़ा है. रोज़ दोपहर को यहाँ यही होता है. कोई न कोई याद इन बीतते सालों में याद आ जाती है. सिर्फ याद नहीं आती. आकर थम जाती है. बर्फ देखी है

काश! छिपकली

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सोचता हूँ, काश! तुम छिपकली होती, तो कितना अच्छा होता. मैं भी तब छिपकली होने की इच्छाओं से भर जाता. एक दिन हम दिवार से चिपके-चिपके इस दुनिया में रह रहे होते. मैं कहीं कोई फॉर्म नहीं भरता. किसी नतीजे में नाम न आने के बाद चिंता से नहीं भर जाता. किसी की नौकरी करने की सोचता भी नहीं. मेरा कोई दोस्त इस दिवार के पार नहीं होता. हमारी दुनिया इसी के इर्दगिर्द सिमटी हुई रहती. कभी घूमने का मन होता तो उसकी उलटी तरफ जाकर लौट आते. न कभी ताजमहल जैसी जगह को जानते, न कभी किसी दोस्त के केरल में होने की कोई संभावना होती. ऐसा होने पर हमारा कोई गाँव भी नहीं होता. कौन सी ट्रेन का नाम लखनऊ मेल है, कौन गोमती एक्सप्रेस है, किसे वैशाली एक्सप्रेस कहते हैं, इससे हमारा कोई वास्ता नहीं होता. तुम कभी कहीं जाती ही नहीं. घर पर ही रहती. रसोई देखती. माँ के सूजे हुए घुटनों पर तेल मालिश करती. थोड़ा धूप में भी साथ बैठ जाया करती. थोड़े बहुत जितने कपड़े निकला करते, झट से सूख जाया करते. छिपकलियों में कभी झगड़ा होता होगा, तो किसी कीड़े को पकड़ लेने के बाद शुरू होता होगा. उनके पास कोई मोबाइल नहीं होता. आपस में बात होती, तो आमने