मन मेरा
कल रात से मन थोड़ा परेशान है. शायद वक़्त के साथ न चल पाने की कोई टीस होगी. या कोई अधूरी बात से शुरू हुई उलझन ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही होगी. जब पुराने दिनों में रहकर उनके बीत जाने की इच्छा से भर गया था, तब वहाँ से ऐसे दिनों की कल्पना नहीं की थी, जहाँ स्थितियाँ और बदतर होती जायेंगी. तब तो बस उन दिनों, शामों, रातों के कट जाने की जुगत में ही लगा रहा. उन दिनों में रह लेने का अनुभव नहीं है. उन्हें जैसे छुआ भी नहीं मैंने। बस दुःख कह भर लेने की जिद ने डायरी के पन्नों पर भर कर रख दिया. पुराने दिनों में लौट जाने का कभी मन नहीं करता. बस अगर कोई उन दिनों में से कुछ वापस लाने के लिए कहे, तब लिखने की इच्छा को अपने अन्दर भर लेना चाहता हूँ. यह कोई छोटी इच्छा भर नहीं है. एक दौर है. जहाँ कागज़ से लेकर यहाँ, इस स्क्रीन पर समानांतर लिखते हुए हम बीत रहे थे. शायद इसे बीत जाना ही कहेंगे. कोई बहुत सकारात्मक व्यक्ति इसे पढ़ते हुए इस प्रक्रिया को नए दौर की तरफ बढ़ जाना भी कह सकता है. हो सकता है, उसकी भाषा इससे भी अच्छी हो। लेकिन यह किस तरह का समय है, जो समूह के विवेक की बात नहीं करता? उनसे उनकी व्यक्तिग