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अक्तूबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मौसम

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इकतीस अक्तूबर । वही मौसम आ गया, जिससे मुझे सबसे ज़्यादा कोफ़्त है । सूरज बादल और धुंध दोनों की मिली जुली चादर में छिपा सा है । यहाँ बैठा हूँ तब पैर एकदम ठंडे हो गए हैं । बाहर था, तब इनमें ठंडक नहीं थी । गमलों में पानी एक दिन छोड़ कर डालने से भी उसका पानी सूख नहीं रहा है । मिट्टी गीली ही रहती है । एक पल सोचता हूँ, कई सालों बाद कोई इन पंक्तियों को किस तरह पढ़ रहा होगा? उसे भी यह भाव इसी तरह महसूस हो रहे होंगे या वह इनके अलग ही अर्थों को अपने अंदर उतरते देने के अवकाश से भर जाएगा । यह एक रूटीन-सी पंक्तियाँ हैं, जो हर लेखक अपने अंदर कई बार दोहराता होगा। वह जिस भविष्य में इन्हें पढ़े जाने की कल्पना से भर गया है, वह उस भविष्य में ख़ुद को भी एक-दो बार रखकर ज़रूर देखता है । ख़ुद वह इससे गुज़रता हुआ कैसा होता जाएगा ? फ़िर यह दिन कमरे में सिमटे रहने के हैं, जहाँ इन दिनों बहुत अलग-अलग मिजाज़ की किताबों को पढ़ने की इच्छा को अपने अंदर रेखांकित कर रहा हूँ । मैंने मांडू नहीं देखा। कबाड़खाना। कुछ ग़मे-दौरां। जीवनपुरहाट जंक्शन। स्वदेश दीपक। ज्ञानरंजन। के. बिक्रम सिंह। अशोक भौमिक। सब मेरे अंदर गुज़र रहे हैं। इन्हे

ईर्ष्या

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क्या मेरी असफलताएँ मेरे भीतर ईर्ष्या का निर्माण कर रही है? यह पंक्ति अभी एक मिनट पहले मेरे दिमाग में जुगनू की तरह टिमटिमाती हुई नज़र आई। दरअसल यह पंक्ति कम और एक सवाल ज़्यादा लग रही है। अगले ही पल तुम्हारे साथ न होने वाले इन दिनों में डूबता उबरता कहीं किसी साहिल पर कुछ देर संभलने की गरज से चुपचाप बैठा रहता हूँ। फ़िर लेटे-लेटे यह सवाल भी कौंधा कि घर में सबको देखना चाहिए, इस कमरे में अकेले बैठा मैं सारा दिन क्या करता रहता हूँ? मेरे इस कमरे में बैठे रहने की पूरे दिन की उपलब्धि क्या है? कई सारी बातें एक साथ दिमाग में गुज़र जाने की इच्छा से भर गयी हैं। शायद मेरी भी कुछ अनकही बातों की टोह लेती हुई अंदर कुछ तोड़ रही हैं। टूटने से कुछ नहीं होगा, ऐसा कह नहीं सकता। फ़िर भी इस भाव से भर जाना इसी तरह कर जाता है। इसकी क्या वजह हो सकती है? कोई एक वजह तो होगी। क्या कल जो नतीजा आया है, वही इस का सबसे बड़ा कारण नहीं है? इस बार भी परीक्षा में उस पार नहीं जा पाया। यह जो इस पार रह जाने वाली पीड़ा है, इसमें छटपटाने से कुछ नहीं होगा। इसी सबमें एक दिन ऐसा आएगा, जब मैं उन सबको खारिज कर दूंगा, जिन्होंने उन प्रचलि

सुनना

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यह भी एक गुण है। गुण से भी पहले एक इच्छा है। यह प्रक्रिया कैसे संभव होती है? हम आपस में बात करते हुए अक्सर ऐसा करते होंगे। कोई ऐसा भी होगा, जिसे किसी बात को सुनने का मन नहीं करता होगा? यह मनमौजी होने से ज़्यादा असंवेदनशील हो जाना है। हम सुनेंगे, तभी जान पाएंगे, जो हमारे सामने है, वह हमें कुछ कहना चाहता है। वह क्या कह रहा है? जब हम अनुपस्थित होते हैं, तब भी सुने जाने की इच्छा से भर जाते हैं। सुनने की इस पूरी प्रक्रिया में एक पदानुक्रम है। कोई है, जिसे हम अपनी बात सुनाना चाहते हैं। यह सामंती विचार की तरह है। जंतर मंतर भी एक ऐसी ही व्यवस्था है। अब हमारे अधिनायक सुनना नहीं चाहते। वह हमारी दादी होते जा रहे हैं। पापा की मौसी हमारी दादी लगीं। जैसे हमारे द्वारा न चुने गए नेता हमारे नेता लगे। जब वह कहती हैं, तब कहती ही जाती हैं। सुनती नहीं हैं। सुनना चाहें, तब भी सुन नहीं पाएँगी। उनके कान अब सुनने लायक नहीं रहे। बुढ़ापा इतना है कि अब कान साथ नहीं देते। जंतर मंतर भी कान हैं। वह सत्ता की आबोहवा खराब कर रहे हैं। इसे हवा खराब कर रहे हैं भी पढ़ा जा सकता है। वह सब जो शीर्ष पर बैठे हैं, उनका बहुत ध

गंध

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गंध मूलतः क्या है? यह अपने आप में एक मौलिक सवाल है। इसका उत्तर भी उतना ही मौलिक होने की अपेक्षा रखता है। हम कितना हो पाएंगे, कहा नहीं जा सकता। मैं इस पर बहुत जटिल तरीके से लिखना नहीं चाहता पर यह बात ही कुछ ऐसी है, चाहते न चाहते यह वहीं घूम जाती है। तब यह किसी को समझ नहीं आती। इस शुरूवात में ही हमें थोड़ा सा पीछे जाना होगा। इतना पीछे जहाँ स्त्री-पुरुष ख़ुद को नर और मादा के आदिम वर्गिकरण में स्थित पाते हैं। श्रम का विभाजन अभी हुआ नहीं है। धीरे-धीरे उसमें बारीक-सी रेखा बन रही है। हम कृषि के लिए जमीन के महत्व को समझ रहे हैं, जिसके फलस्वरूप कालांतर में स्थायित्व का भाव हमारे अंदर उगने लगेगा। तब यह स्थायित्व एक जगह लंबे समय तक रहकर परिवार और निजी संपत्ति का रूप लेने लगेगा। हम वापस अपने प्रश्न पर लौटते हैं। हमारे शरीर से किस तरह की गंध दूसरे व्यक्ति तक पहुँच रही होगी, जोकि क्रमशः नर और मादा हैं? वह इस गंध से हमारी तरफ़ आकर्षण महसूस करते होंगे? एक खास मिट्टी में काम करने के बाद हमारी त्वचा से एक गंध आ रही है। कोई शिकार करके लौटा है, तब उसका शरीर उस परिवेश को अपने अंदर समेटे हुए होगा। एक गंध

न्यूटन

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दो अक्टूबर की शाम सवा छह बजे, अँधेरा होने से कुछ पहले इस झुटपुटे में मुझे न्यूटन का खयाल आ रहा है। मैं सच में किसी फिल्म पर लिखने से बचने लगा हूँ। अक्सर तब, जब उन्हें सिर्फ़ बहाने की तरह इस्तेमाल करने जा रहा होता हूँ। अभी, इस पल भी मेरे मन में न्यूटन नहीं महात्मा गांधी की बात याद आ रही है। मैं कहूँगा नहीं, उन्होंने संसदीय प्रणाली के लिए किन शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उसकी आलोचना की है। जो जानने के इच्छुक होंगे, वह 'हिन्द स्वराज' खरीद कर पढ़ सकते हैं। नवजीवन ट्रस्ट अभी भी उसे बहुत कम कीमत पर छाप रहा है। दूसरी बात, जो यह कह रहे हैं, यह फिल्म अरुंधति रॉय के विचारों का 'विजुवल पिक्चराइजेशन' है, वह भी इसे समझने में थोड़ा पीछे रह गए। यह फिल्म उनसे कितना प्रेरित है, इसे बनाने वाले अमित ही बता पाएंगे। फ़िर जब हम किसी वैचारिक आग्रह से इसे देखना शुरू करते हैं, तब वह विचार ही हमारी कसौटी बन जाएगा, तब उससे आगे जाकर हम देख नहीं पाएंगे। इसलिए थोड़ा सावधानी से बरतते हुए चलना होगा। तब भी हम यह दावा नहीं कर रहे कि हम खुद किसी विचार से प्रेरित नहीं हैं। बहरहाल, फिल्म नूतन कुमार की है

यह बात

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कमरे में रौशनी ज़रा कम है। एक ट्यूब खराब हो गयी है। मौसम बदल गया है। अँधेरा बाहर साफ़-साफ़ दिख रहा है। वह काला है। उसकी कालिमा में कुछ है, जो दिख नहीं रहा है। मुझे डुबो ले जा रहा है । मैं कई दिनों बाद जब यहाँ लौटा हूँ, तब सबसे पहले उन बातों को उतार देना चाहता हूँ, जो मेरे अंदर भर गयी हैं। वह कौन सी बातें हैं, जिन्हें कह दूँगा तो हल्का हो जाऊँगा? शायद बचपन की किसी स्मृति में हम इतवार गाँव वाले घर पर हैं। चार बजे दूरदर्शन पर पिक्चर आने वाली है। नाम कोई भी हो सकता है। शान, बंदिनी, सीता और गीता। या कुछ भी। एंटीना ठीक नहीं है। तभी टीवी स्क्रीन लहरा रही है। हम छत पर हैं, एंटीना ठीक कर रहे हैं। नीचे चाचा से बता रहे हैं। इधर इतना। थोड़ा उधर। हाँ हाँ, बस। अब ठीक है। यह दृश्य बिलकुल उल्टा भी हो सकता है। चाचा छत पर हों और हम सब नीचे टेलीविज़न को झिलमिलाते देख उन्हें कुछ कह रहे हैं। यह हमारे सबसे छोटे चाचा हैं। यही चाचा मेरे मन में कहीं अंदर धंस गए हैं। धीरे-धीरे चाचा हमसे दूर जा रहे हैं। डॉक्टर ने कैंसर बताया है। रिपोर्ट भी वही कह रही है। अभी पाँच तारीख को फ़िर लखनऊ जाना है। दिल्ली से उनकी रिपोर्ट