मौसम
इकतीस अक्तूबर । वही मौसम आ गया, जिससे मुझे सबसे ज़्यादा कोफ़्त है । सूरज बादल और धुंध दोनों की मिली जुली चादर में छिपा सा है । यहाँ बैठा हूँ तब पैर एकदम ठंडे हो गए हैं । बाहर था, तब इनमें ठंडक नहीं थी । गमलों में पानी एक दिन छोड़ कर डालने से भी उसका पानी सूख नहीं रहा है । मिट्टी गीली ही रहती है । एक पल सोचता हूँ, कई सालों बाद कोई इन पंक्तियों को किस तरह पढ़ रहा होगा? उसे भी यह भाव इसी तरह महसूस हो रहे होंगे या वह इनके अलग ही अर्थों को अपने अंदर उतरते देने के अवकाश से भर जाएगा । यह एक रूटीन-सी पंक्तियाँ हैं, जो हर लेखक अपने अंदर कई बार दोहराता होगा। वह जिस भविष्य में इन्हें पढ़े जाने की कल्पना से भर गया है, वह उस भविष्य में ख़ुद को भी एक-दो बार रखकर ज़रूर देखता है । ख़ुद वह इससे गुज़रता हुआ कैसा होता जाएगा ? फ़िर यह दिन कमरे में सिमटे रहने के हैं, जहाँ इन दिनों बहुत अलग-अलग मिजाज़ की किताबों को पढ़ने की इच्छा को अपने अंदर रेखांकित कर रहा हूँ । मैंने मांडू नहीं देखा। कबाड़खाना। कुछ ग़मे-दौरां। जीवनपुरहाट जंक्शन। स्वदेश दीपक। ज्ञानरंजन। के. बिक्रम सिंह। अशोक भौमिक। सब मेरे अंदर गुज़र रहे हैं। इन्हे