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जनवरी, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सन् अड़तालीस से आया एक विचार

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हम सब हमेशा कुछ न कुछ सोचते रहते हैं। किसान भी इस ठंड के न होने के बारे में सोच रहा होगा। दिल्ली की बदरी वाली इतवारी हम छत पर चढ़कर उसकी परेशानियों को कम नहीं कर सकते। सिर्फ़ बोल देना भी खेतों में खड़ी फसलों के लिए काफ़ी नहीं होगा। मेरे साथ दिक्कत है, मैं एक पर्चे पर आधुनिकता के सवालों से जूझना चाहता हूँ। मन में कई बातें चलते-चलते थक गयी हैं। सोच रहा हूँ, जब तक खाना नहीं खा लेता, तब तक यहाँ कुछ-कुछ लिखने से एक लय बन जाएगी। वहाँ मेरी बात शुरुवात को लेकर अटक गयी है। औपनिवेशिक सत्ता के यहाँ से चले जाने के बाद भी आज की इस दिल्ली में हमारी ज़िंदगियों के कितने हिस्से उन्हीं बचे अवशेषों में सिमट कर रह गयी है। 'अवशेष' हमेशा ज़रूरी नहीं कि खंडित हों। उनपर धूल की मोटी दिखाई देने लायक परत हरबार पास जाने पर नाक में घुस जाये। उस काल की जितनी स्थापनाएं, चाहे वह स्थापत्य के रूप में हों, या उनके द्वारा बनाई गयी संस्थाओं के रूप में, या हमारे मनों में तैरती वैचारिकी हो, वह इतने लंबे समय के बाद भी आज बनी हुई है। उन्होने अपने ही समय जो भूमिका 'पुरातत्व विभाग' को बनाकर दी थी, उस भूमिका में

दिन हमारा छब्बीस जनवरी

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मन में, मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ से शुरू हुई बात यहाँ तक पहुँच गयी। अब बैठा हूँ तो मन कहीं अटक गया है। इस साल छब्बीस जनवरी को बीते कोई छह महीने नहीं, बस यही गिनती के लगभग दो दिन हो चुके हैं। और जैसे के इस तेज़ रफ़्तार दुनिया की आदत है, इस दुनिया को मेरी कही बातें थोड़ी सुस्त लग सकती हैं। मेरे सोचने समझने की रफ़्तार थोड़ी घोंघे की तरह है। कछुआ पिछड़ने से डरता नहीं है। चलता जाता है। हम सबको असल में कछुआ हो जाना चाहिए। बहरहाल। मैं तो बस इतना सोच रहा था, इस दिन को किस तरह से मनाया जाना चाहिए। तब ख़याल आया, मनाने के लिए मेरे पास भारत सरकार जितना पैसा नहीं है, जिससे इस उत्सव को वैभव में तब्दील कर पाना आसान होता। मेरी खिड़की से राजपथ जैसी अकड़ सूचक सड़क क्या मेढ़ भी बाहर नहीं दिख रही। फ़िर ऊपर वाली इन दोनों पंक्तियाँ को कोई परीक्षक नुमा पाठिका पढ़कर इसे सरासर नकल कहकर ख़ारिज करने के भाव से भर जाये, इससे पहले हमें सावधान हो जाना चाहिए। दिमाग न सोचने की हालत में हो, तब भी सोचना चाहिए। क्या हमारे पास इस दिन को बिताने का कोई मौलिक विचार नहीं है? क्या हम मानसिक रूप से इतने दिवालिया हो चुके है

वक़्त की ओट में कुछ देर रुक कर

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वक़्त को पकड़ने की जद्दोजहद में हम कहीं वक़्त की गिरफ़्त में ऐसे जकड़ गए कि उससे बाहर कभी देख ही नहीं पाये। वह घड़ी मेट्रो स्टेशन पर लगातार असमान गति से चलते हुए भी 'अंडर मेंटेनेंस' हो सकती थी और उसके भागने पर भी वक़्त को कोई फरक नहीं पड़ने वाला था। वह रुक जाती तब क्या होता(?) इसकी कल्पना कोई नहीं करता। क्या वक़्त सचमुच घड़ी के बाहर नहीं है? पता नहीं। पता नहीं यह क्या है, जिसे समझ नहीं पा रहा। समझना एक तरह की सहूलियत में पहुँच जाना है। यही समझना नहीं हो पा रहा इधर। इधर नहीं हो पा रहा कुछ भी। कुछ भी नहीं। मैं वहीं आते-जाते लोगों के बीच कहीं कोने में खड़ा उन सुइयों के बीच घूमते वक़्त को देखता रहा। मेरे एकांत के उन क्षणों को किसी ने छुआ तक नहीं। मैं खड़ा भी कितनी देर तक रह सकता था। यह नहीं सोचा। बस खड़ा रहा। चुपके से। वहीं। एकदम अकेले। वहीं खड़े-खड़े यह बात दिमाग में घूमती रही। हम एक अक्षांश पर झुकी पृथ्वी को कभी घूमता हुआ महसूस नहीं करते। भूगोल जैसा विषय इतना व्यावहारिक होते हुए भी कभी समझ नहीं आता। हमने उसे विषय में तब्दील करने के साथ विदिशा से गुजरती कर्क रेखा जितना अदृश्य कर दिया

अधूरे अनलिखे ख़त

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मैं हफ़्ते भर पहले आज के दिन एक ख़त लिखने बैठा था। ख़ुद को। नहीं लिख पाया। शायद ऐसा हम सबके साथ होता होगा कभी-कभी। तब बहुत सी बातें मेरे मन में चल रही थीं। जैसे दिल्ली यूनिवर्सिटी में चल रहा था, राम जन्मभूमि वाला सेमिनार । अगले दिन, इतवार सुबह-सुबह जल्दी बुलंदशहर जाने की बात। हम अभी दोपहर के बाद कमरे में आए ही थे कि पता नहीं क्या सूझा अनुराग से लाया फ़ोल्डर देखने लगा।पता नहीं उसमें ऐसा क्या था जो याद नहीं आ रहा. कहीं डायरी में लिख लिया होगा. या कहीं नहीं लिखा होगा. बस ऐसे ही ख़ुद से बात करने का मन किया होगा. मन का करते रहना ज़रूरी है. हम कितनी रातें थक कर सोते रहेंगे. कभी कुछ भी नहीं सोचेंगे. इस अनलिखे ख़त में यही सब बातें होने वाली थी शायद. कब से नयी डायरी इंतज़ार कर रही है. कब उसमें पहली बात लिखी जायेगी. हम कभी इन छोटे छोटे दायरों और उलझनों से निकल भी पायेंगे. कैसे हम इनमें फँसकर ख़ुद मकड़ी हुए जाते हैं. हमें अपना बनाया जाला नज़र ही नहीं आता. ऐसे कितने ही ख़त अधूरे रह गए होंगे, जिनका कोई हिसाब नहीं है. कहीं कोई अधूरी बातों को जमा करके नहीं रखता. सब किसी मुकाम की तरह किसी मुकम्मल बात को

मुतमइन वो ऐसे हैं, जैसे हुआ कुछ भी नहीं

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मुझे लगा था, लिख जाऊंगा। पर नहीं। नहीं लिख पाया। किसी की मौत पर लिख जाना इतना आसान नहीं। मुश्किल तब और बढ़ जाती है, जब हम जानते हों, वह हत्या है। पता नहीं पिछले शनिवार से कैसा कैसा होता गया हूँ। कितनी बार रोने को हुआ। रो न सका। रघुवीर सहाय की कविता रामदास कितनी ही बार अंदर-ही-अंदर घुटती रही। घुटन सांस में ही नहीं, अपने पूरे वजूद के साथ महसूस होने लगे, तब सच में कुछ अंदर से बाहर आकर टूट जाता है। टूटना रेशे-रेशे का है। उसे कोई हथकरधा सुझा नहीं सकता। हम चुनते हैं किसे, कैसे, कब, कहाँ मारना है। यह सभी प्रश्न तब शुरू होते होंगे, जब हमारे पर 'क्यों' का जवाब होता होगा। क्यों हम किसी को मारने के इरादे से भर जाते हैं? पर इन सवालों से पहले यहाँ देखने लायक है, उन हत्यारों में 'ख़ुद' को मिलाकर 'हम' कहना।  क्या यह अपने साथ किसी भी तरह का अनाचार नहीं है। हम क्यों उनके जैसे हो जाएँ। हम अपने भीतर यह सारी लड़ाई लड़ेंगे। इन सवालों से जूझेंगे। कोई भी हत्या किसी भी संवाद की अंखुवाने वाली सम्भावना को खत्म कर देना है। हमें इसी ख़त्म होने से ख़ुद को बचना है। तभी हममें वे शामिल नहीं

आज की बात

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वह फ़ेसबुक जो मेरे एक-एक क्लिक को याद रखता है और समय-समय पर बताता चलता है, मैंने यहाँ अपने बीतते वक़्त में किस पल क्या-क्या किया(?) वही ‘फ़्री बेसिक्स’ वाला फ़ेसबुक, आज सबको मेरा जन्मदिन बताना भूल गया। इसकी शिकायत करने पर शायद वह मुझे कभी किसी मेल से सूचित करते हुए गर्व से भर जाएँ कि इस गलती के लिए एक ऑटोमेटिक सर्वर दोषी था, जिसे अब हमने ठिकाने लगा दिया है। आगे से आपकी फ्रेंड लिस्ट को हफ़्ताभर पहले से आपके जन्मदिन की नोटिफ़िकेशन देदे कर हैरान कर देंगे।  इस टेक्निकल फ़ाल्ट की बात मुझे भी न पता चल पाती, अगर दोपहर आलोक का फ़ोन न आया होता। वही कहने लगा। ख़ैर, असल बात यह नहीं है। बात इससे भी कहीं आगे जा रही है। आज जनवरी नौ, साल का दूसरा शनिवार। आज दिल्ली विश्वविद्यालय में राम जन्मभूमि विषयक एक सेमिनार का आयोजन किया गया है। कल समरजीत के साथ आरटीएल से लौटते वक़्त हम भी कुछ देर आइसा के इस संबंध में विरोध प्रदर्शन के मौन समर्थन में कुछ देर आर्ट्स फ़ेकल्टी के गेट पर खड़े होकर उन्हें सुनने लगे। आज इसी के सामने वाले गेट पर पूरी बटालियन खड़ी हुई है. क्यों? पता नहीं. शायद जो इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में आये

कल उदास लौटकर

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सिर भारी रहने लगा है के बाद कुछ भी कहा जा सकता है। जैसे सूरज की किरणों में जो हायड्रोजन बम की ताकत है, उसे उत्तर कोरिया ने कुछ-कुछ अपने क़ाबू में कर लिया है और थोड़ा थोड़ा सूरज उनके यहाँ हमेशा मौजूद रहने लगा है। वह उससे खिचड़ी बनाएँ या पानी उबालें, यह उनके दिमाग के ऊपर बने हड्डियों के स्थापत्य में घूमती, ख़ून चूसती जुएँ बताती रहेंगी। जैसे इस बार ठंड इतनी नहीं हुई कि एनडीटीवी के ग्रेटर कैलाश के दफ़्तर के बाहर गरम कपड़ों का अंबार लादे ट्रक के ट्रक खड़े हों। पता नहीं इन्हें लिखने के बाद मुझमें जुगुप्सा भर जानी चाहिए थी। पर भर गया हूँ, झूठे गुस्से और उतने ही खोखले अवसाद से। इनसे बाहर यह दुनिया समझ में नहीं आती। यह उससे भी बदतर होती जा रही है। एक दिन होगा जब कोई कहीं झरने के किनारे बैठा होगा पर उसे पता नहीं होगा यह किसी भाषा में झरना कहा जाता है। वह उसे कुछ कहने के लिए किसी अनाम इच्छा से भर जाएगा। तब एक और लिपि इस मिट चुकी दुनिया और रेडियोधर्मी विकिरण से प्रभावित रेत के गर्भ से परमाणु बम की तरह एक और विस्फोट करते हुए निकलेगी। फ़िर उसी लिपि में कोई माँ जैसा शब्द होगा। कोई शब्द पिता के लिए प्

लिखने से पहले..

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कभी-कभी हम कुछ नहीं सोचते। जितना अभी तक सोच रखा होता है, उससे निकलने की ज़िद से भर जाते हैं। मैं भी भर गया हूँ, इस वजन से। यह दिखने न दिखने में जैसा भी है, अभी मेरे मन में है। यह कहीं से भाग आने, उन भाग आने के कारणों को वजहों में तब्दील करने के बाद भी बेचैनी ख़त्म नहीं हो रही। सोचा था, एकबारगी सब ठीक हो जाएगा। पर क्या देख रहा हूँ(?) सब ढाँचे अपनी संरचनाओं के साथ वैसे के वैसे बने हुए हैं। कहीं से भी कोई टस से मस नहीं हुआ है। उल्टे वहाँ से चले आने की वजहों में उनके भीतर देख पाने जैसे किसी चीज़ को भी साथ जोड़ पाया हूँ तो वह यह कि इस दुनिया में हम जितने भी हैं, यह दुनिया जिसमें हम कभी दूर से चलकर दाख़िल हुए थे, यह अब हम पर हावी ही नहीं बल्कि हमारी नयी किस्म की जीवनशैली बन गयी है। इस तरह यह किसी इतिहास के छात्र के लिए इतनी ठोस नहीं है, जितनी समाजशास्त्र के जानने समझने वाले किसी मस्तिष्क के लिए नए प्रस्थान बिन्दु हैं। फ़िर यह इतनी सूक्ष्म बात भी नहीं है, जिसे समझने के लिए समाज मनोविज्ञान की कक्षाओं में बैठना पड़े। बैठकर वहाँ समझना पड़े। उलझना पड़े। मैं ख़ुद नहीं समझ पा रहा, आज पहली बार यहाँ