सन् अड़तालीस से आया एक विचार
हम सब हमेशा कुछ न कुछ सोचते रहते हैं। किसान भी इस ठंड के न होने के बारे में सोच रहा होगा। दिल्ली की बदरी वाली इतवारी हम छत पर चढ़कर उसकी परेशानियों को कम नहीं कर सकते। सिर्फ़ बोल देना भी खेतों में खड़ी फसलों के लिए काफ़ी नहीं होगा। मेरे साथ दिक्कत है, मैं एक पर्चे पर आधुनिकता के सवालों से जूझना चाहता हूँ। मन में कई बातें चलते-चलते थक गयी हैं। सोच रहा हूँ, जब तक खाना नहीं खा लेता, तब तक यहाँ कुछ-कुछ लिखने से एक लय बन जाएगी। वहाँ मेरी बात शुरुवात को लेकर अटक गयी है। औपनिवेशिक सत्ता के यहाँ से चले जाने के बाद भी आज की इस दिल्ली में हमारी ज़िंदगियों के कितने हिस्से उन्हीं बचे अवशेषों में सिमट कर रह गयी है। 'अवशेष' हमेशा ज़रूरी नहीं कि खंडित हों। उनपर धूल की मोटी दिखाई देने लायक परत हरबार पास जाने पर नाक में घुस जाये। उस काल की जितनी स्थापनाएं, चाहे वह स्थापत्य के रूप में हों, या उनके द्वारा बनाई गयी संस्थाओं के रूप में, या हमारे मनों में तैरती वैचारिकी हो, वह इतने लंबे समय के बाद भी आज बनी हुई है। उन्होने अपने ही समय जो भूमिका 'पुरातत्व विभाग' को बनाकर दी थी, उस भूमिका में