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जनवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तीन ड्राफ्ट बाद

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कल से तीन बार ड्राफ्ट कर चुका हूँ पर समझ नहीं पा रहा, क्या है, जिसे कहने का मन है? वह कैसे इस कहने में आ नहीं पा रहा. कोई बात कभी-कभी वक़्त लेती होगी. जैसे उसे शब्दों की कोई दरकार नहीं है. पर वह कुछ इस तरह की है, जो एक बार कह दी जाए, तो बढ़िया होगा. फ़िर लगता है, एक नहीं, कई सारी बातें होंगी. गड्डमड्ड सी. यहाँ उन्हें सिलसिलेवार कहने की कोई कोशिश नहीं होने वाली. उतना कह पाना ठीक भी नहीं है. कई ऐसे हैं, जो अपनी कतरनें नहीं दिखाते, कहते हैं 'पसर्नल' है. हमारे सामने कोई ऐसी बात कहे और चला जाये, होता नहीं है. पर क्या करें कभी-कभी हो भी जाता है. कुछ हैं, जिन्हें छोड़ देते हैं. होगा कोई, जो नहीं कहना चाहता. मैं, उस तस्वीर के होंठों के असुंदर और उनके मुलायम न होने पर जो भाव घर कर जाता है, वह किसी को कैसा होता होगा? यह सोच रहा हूँ. क्या इसीलिए उसने इस तस्वीर को ही चुना? क्या वह ऐसा करके किसी को अपनी तरफ़ खींच सकने वाले ताप से भरी हुई है. ऐसा उसे लगता होगा. वह चाहकर भी उन छवियों से बाहर नहीं निकल पायी. हम नहीं चाहते होंगे, तब भी ऐसे हो जाते होंगे कभी. फ़िर वह दूसरी तस्वीर, जिसमें घुट

इंतज़ार की आदत

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मैं, वहाँ, खिड़की के बिलकुल पास कुर्सी पर बैठे, न अजाने कब से, पौने चार के साढ़े चार में तब्दील होजाने का इंतज़ार कर रहा हूँ. पहले की तुलना में यह इंतज़ार कुछ आसान सा लगा. खिड़की होने से नहीं. उसका अभ्यास होने से. अब कितने ही घंटों का इंतज़ार, मिनटों में ख़त्म कर सकता हूँ. मेरे द्वारा सालों का इंतज़ार, कुछ घंटों में ख़त्म करने की योजना पर काम किया जा सकता है. यह मेरे कुछ ज्यादा इंसान बनने की निशान नहीं, इन बीतते सालों में मेरे अमानवीय होते जाने की याद है. मैं इन सालों में शायद थोड़ा कम इंसान रह गया होऊँगा. इस इंतज़ार को किसी की भी आदत नहीं होना चाहिए. आदत सही चीजों की न हो, तो बड़ी दिक्कत होती है. पर मुझे क्यों नहीं हो रही, समझ नहीं पाता. ख़ुद को देखता हूँ तब लगता है, मुझमें अरबरी कुछ कम हुई है. अरबरी मतलब एक तरह की हड़बड़ी. अन्दर से कहीं पहुँच जाने की जल्दी. जो अंदर नहीं रहती, प्रकट रूप से सबको दिख जाती है. इस तरह दिख जाना ही इसका सार्वजनिक हो जाना है. शायद अब थोड़ी समझदारी बढ़ी है, या क्या हुआ है, इसे प्रकट रूप में सामने आने नहीं देता हूँ. तब भी क्या होता है, यह सामने दिख ही जाती है. कभी मैं चि

कमरा

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जब हम कभी कमरे में होते हैं, समझते हैं, यही हमारी दुनिया है. ऐसा नहीं है के इसके बाहर की दुनिया हमारी नहीं है. हम उस दुनिया से गुज़रते हुए, लौटकर अंदर ही आते हैं. एक दिन बाहर की दुनिया से हम चलकर यहाँ आये थे. इसे घर की तरह देखने लगे थे. यह सिर्फ दिखता ही नहीं, असल में होता भी है. इस संरचना को हम नहीं बनाते. हमारा मन बनता है. हम सिर्फ एक दरी डालते हैं, उसपर एक गद्दा है, रजाई है, दो तकिये हैं. एक खिड़की भी है, छोटी सी और दिवार पर लसेटी की तरह चिपकी सैकड़ों दीमकें हैं. दरवाज़ा ज़रूरी अलमारी की तरह बाहर की तरफ़ खुलता है. यह हमें अपने अन्दर बंद करने के अवसर देता है. हम इस में समां जाते हैं. यह हमें कुछ नहीं कहता. हम भी कुछ नहीं कहते. अर्थशास्त्री इसे संसाधन की तरह देखते हैं, बैंक इसलिए क़र्ज़ देने के लिए तैयार हो जाते हैं. मेरा दोस्त, यही कर्जा लेकर परेशान है. पर इस परेशानी में भी एक घर का एहसास उसे सुख से भर देता होगा, ऐसा उसके चेहरे को देखे बिना भी कोई कह सकता है. एक दोस्त है, वह कमाता बहुत है. ठीक से ज़िन्दगी जी रहा है पर उसके पास अपना कमरा नहीं है. इसलिए उसकी शादी नहीं हो रही है. वह कहता

दीवार

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दीवार सिर्फ़ अमिताभ बच्चन और शशि कपूर अभिनीत फ़िल्म का नाम नहीं है. दीवार सच में दीवार होती है. यह वही दीवार थी, जिसे हम अपने बचपन से देखते आ रहे थे और परसों तक हम सपने में भी नहीं सोचते थे, कोई हमारे सामने ही इसे तोड़ने लगेगा. सच में कोई आया और हम उसे रोक भी न सके. हम सिर्फ़ छत की हद बाँधने के लिए दीवारें नहीं बनाते, अपने सपनों को बाँधने के लिए भी दीवारें बनाते हैं. मम्मी इन तीन फुट की छोटी से दीवार को अपने सपनों में तब से देखती आ रही होंगी, जबसे वह यहाँ आई होंगी. आज उन्हें टूटते हुए देख उन्हीं की यादों में रह गयी होंगी. मम्मी हमें इन्हीं दीवारों के बल खेलने के लिए बाहर छोड़ दिया करती होंगी. यही दीवारें रही होंगी, जिसे न जाने कितनी बार हमें गिरने से बचाया होगा. इन्हीं ईंटों पर चढ़कर हम अमरुद तोड़ा करते थे. उन छज्जों पर कूद जाया करते थे. अँधेरी रातों में छुपन छुपायी खेलते वक़्त यह दीवार हम सबको ओट में कर लिया करती. यह हमें बताती हम कहाँ हैं? इसी से हमने दिवार के होने को जानना शुरू किया. यह दीवार एक याद भी है, इसे भरभरा कर कोई नहीं गिरा सकता. इसके गिरने से दिल थोड़ा चिटक आया है. अमरुद के

सिकुड़ना

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यह सच है ठण्ड सबको सिकोड़ देती है. हम उसके घटते बढ़ते अनुपात में दिन रात सिकुड़ते रहते हैं. कोई हमें कहता नहीं पर बचे रहने की यही तरकीब हमें आती है. हम सबको अपने सिकुड़ने का ब्यौरा लिखना चाहिए. एक सूची बनानी चाहिए. हम कब, कहाँ, किस मौके पर कितना सिकुड़ते हैं? तब शायद हम सिकुड़ने तक पहुँच पायें. और हम ठण्ड के अलावे कुछ अन्य कारणों को जान पायेंगे. यह काम अगर शुरू ही करना है तो हम ही शुरू कर सकते हैं. मैं यह कह सकता हूँ कि जब घर के आसपास उतनी जमीन बचाकर सब कुछ तोड़ दिया जाये, तब हम और सिकुड़ जाते हैं. यह घर अगर पहली मंजिल पर हो और कोई कहे, जिस दरवाज़े हम अन्दर दाख़िल होते और जिस दरवाज़े से हम बाहर निकलते हैं, बिलकुल उसी हद से हम तोडना शुरू करेंगे, हम तब भी सिकुड़ते हैं. सिकुड़ने के अलावे ख़ुद को बचाने का कोई और विकल्प हमारे पास नहीं बचता. जिस दरवाज़े से निकलकर बचपन से आज तक हम अंदर बाहर होते रहे हैं, वही जगह अब टूटने वाली है. यह पुरानी स्मृतियों में किसी नहीं बनती याद की सेंध नहीं, उसकी छापेमारी है. हमने हम नहीं है तुम हमारे स्मृति कोश का हिस्सा बनो. फ़िर भी हम उसे टाल नहीं सकते. मम्मी हमारे प

याद

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ऐसे ही एक दो दिन से इस बात की तरफ़ कई ख़याल सैर करने लगे. लगा ऐसा कौन होगा, जिसे सौ दो सौ साल बाद कभी उसके न होने पर कोई याद करेगा? हम अपने परदादा के आगे के नाम भी नहीं जानते. हम इतने सौ साल बाद नहीं होंगे, तब क्योंकर कोई हमें याद करे? यह याद स्मृतियों में छनकर, कब तक अपने ताप से किसी के भीतर उतरती होंगी, इसका भी कोई हिसाब कभी नहीं लगाया. वक़्त के रेशों में कई जड़ें बिन पानी सूख जाती होंगी. पर कोई-न-कोई याद तो रह आता होगा. उसकी कोई बात, कोई पहचान. क्या याद के लिए कहीं किसी भौतिक चिह्न को अपने पीछे रखकर छोड़ देना ज़रूरी है? कैसे हम उन मनों में रह पायेंगे? किसी के मन में हवा की तरह रह जाना, क्या बचे रहने के लिए इतना ज़रूरी है? यह याद रह जाना ही क्यों ज़रूरी है? कोई भूल कर भी तो याद करता होगा? भूलना याद की हुई चीज़ों का ही होता है. तब सोचता हूँ, याद रहने के लिए किसी नाम में रह जाना क्यों ज़रूरी है? हमने इतिहास में उन्हीं को क्यों याद रखा, जिनके कुछ नाम थे? हम यह कहकर भी उन अनाम स्मृतियों तक नहीं पहुँच पाते, जो हमसे पहले कहीं किसी दुनिया को बना रहे होंगे. उनकी भाषा हमारी भाषा से अलग है, शायद क

कैसे?

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कैसे वह अपनी माँ के न रहने की बात कह पाया होगा? कब उसने सोचा होगा, इस बात को कह दिया जाना चाहिए. मैंने जबसे उसके लिखे उन शब्दों को पढ़ा है, अन्दर से थोड़ा खाली हो गया हूँ. जीवन जहाँ हमें उल्लास से भरता है, मृत्यु की सूचना हमारे खोखलेपन को ज़ाहिर कर देती है. कुछ भी नहीं है, जो उस मृत्यु के भाव की बराबरी कर सके. मुझे यह बात शायद यहाँ नहीं लिखनी चाहिए, पर मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है. यह ख़बर जब से मिली है, कमरे से भाग जाना चाहता हूँ. जो हमें इस दुनिया में लायी, उसके अब न होने के एहसास को वह कैसे महसूस कर रहा होगा? वह सिर्फ़ एक माध्यम भर नहीं है. अपने आप में एक दुनिया का नक्शा है. वह हमें बताती है, कौन क्या है? पर यह नहीं बताती, उसके नहीं रहने, आँखों से ओझल हो जाने पर क्या करना बचा रह जाता है? वह बताये भी तो कैसे, उसके बताने के पीछे छिपे भाव को पहचान कर हम उदास हो जायेंगे, ऐसा सोचकर वह चुप हो जाती होंगी. चुप होना, समझ जाना है. इससे आगे कुछ नहीं कहना. वह एक दिन ख़ुद जान जाएगा. जान लेना ज़रूरी नहीं. ज़रूरी है, साथ रह जाना. रहने में जो साथ यादें होंगी, कुछ कही कुछ अनकही आवाज़ें होंगी, वह सपने ब

पहले दिन की डायरी

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साल कुछ ऐसे शुरू होगा, लगता नहीं था. इन बीतते दिनों को देखकर लगता है, मौसम भी कहीं जाकर छुप गया है. उस दिन बस में था, खिड़कियाँ खुली हुई थीं, लोग उन खुली खिड़कियों से झाँकती हवा में एकदम मज़े से थे. यह बात जनवरी में जमती हुई नहीं लगती. लगता है हम दो ढाई महीने आगे ख़िसक गए हैं. यह खिसकना, धरती के नीचे प्लेट खिसकने जैसा मालुम पड़ता है. क्या हमें इन शुरवाती दिनों में ही आगे आने वाले दिनों का ख़ाका खींच लेना चाहिए? हमें क्या करना है? कैसे करना है? पिछली बार की तरह तो बिलकुल भी नहीं सोचना चाहिए? फ़िर अगले ही पल सोचता हूँ, क्या ऐसा सच में ऐसा कोई कर सकता है? हम जिन जगहों पर रहते हैं, वह भी अपनी आज की संरचनाओं को एक दिन में नहीं पलट सकतीं. यह बदलता मौसम आज से पहले ऐसा नहीं था, इसे इसकी स्मृति में वापस लौटते हुए ही तय किया जा सकता है. जो सोचते हैं, वह एकदम से सब बदल कर रख देंगे, वह जादूगर हैं. उन्हें जादू आता होगा. हमारी दुनिया में उसे आँखों का धोखा कहते हैं. हमें धोखा देना नहीं आता. यहाँ दिन भी धीरे-धीरे उगता है. शाम भी आहिस्ते-आहिस्ते ढलती है. मन में बहुत से ख़याल उग रहे हैं. कुछ हो सकता है,