संदेश

2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हासिल

चित्र
एक संख्या अभी कुछ घंटों के फासले पर साल भर की दूरी बन जाएगी। जब भी हम याद करेंगे कहेंगे, पिछले साल की बात है। आज की नहीं है। यह जो व्यवस्था है, इसी में हम सब ख़ुद को समेट लेते हैं। मैं भी इन बीते दिनों का हासिल जान लेने की गरज से बैठ गया हूँ। इन तीन सौ पैंसठ दिनों में जो बारह महीने बिखरे हुए हैं उनमें से कौन-कौन से दिन, कौन से पल, कौन से क्षणों को अपने कल के लिए ले साथ चलूँगा। यह जितना अंकों में विभाजित लगता है, उतना है नहीं। सब जोड़ रहे होंगे। उनके दुखों के अनुपात में सुख कितने रहे? कौन सी इच्छा अभी तक सिर्फ़ इच्छा ही बनी रह गयी? कितने सपनों को वह देख पाये, जो उँगलियों से भी आगे जमा होते रहे? मेरे पास इन सब विचारों के बीच कौन सी अनुभूतियाँ हैं, जिनमें यह साल बिखरा हुआ है? यह एक सपाट साल होता। अगर मैं पत्थर होता। कई सारी चीजों को तय किया था। ख़ूब लिखना है। उससे भी ज़्यादा पढ़ना है। कई बड़ी जगहों पर अपने लिखे हुए पर्चे, शोध से संबन्धित लेख भेजने हैं। हो सके तो थोड़ा-बहुत घूमना है। गाँव जाना है। वहाँ पीएचडी का डेटा इकट्ठा करना है। इन सबमें फरवरी वहीं था। गाँव में। चाचा एकदम ठीक हैं। ढाबली पर

छूटना

चित्र
वह दुकान हमारे बचपन में किसी आश्चर्य से कम नहीं थी। उसके अंदर जाने पर एक जीना था, जो ऊपर को जाता था। ऊपर नीचे की तरह हड़बड़ी नहीं थी। जब हम बैठते इत्मीनान से बैठे होते। यह तब की बात है, जब मम्मी के पैरों का दर्द अभी दर्द बनना शुरू हुआ होगा। तब घुटनों में इस कदर सूजन भी नहीं थी। इस दर्द के भाव को हम हमेशा भूले रहते। यह लिखना हमेशा मन में होता रहता। कभी लिख नहीं पाता। अचानक हम वहाँ गुप्ता जी को देखकर प्रफुल्लित हो आते। वह कहाँ से आ गए? हमें भनक तक नहीं लगती। उन्हें देखकर हम खुशी से भर जाते। वह पहले बगल मट्ठी और नमकीन की दुकान से कुछ पाव भर गाठिया लेते और उतनी ही मट्ठी लेते। यह मेरी याद में एकदम तयशुदा नहीं है, ऐसा कब और कितनी लगतार उन सालों में हुआ होगा। कोई तकनीक नहीं है, जिससे इसे और स्पष्ट कर सकूँ। मन उस रात होती शाम में उन मेज़ों के इधर और उधर बैठे लोगों को दोबारा देखकर अपनी मेज़ पर वापस लौट आया। पापा के मना करने के बाद भी हाफ प्लेट के बजाए फूल प्लेट चाउमीन से हम दोनों भाई जूझ रहे होते और उसे खत्म कर पाने में उसमें पड़ी मिर्च, सबसे बड़ी मुसीबत की तरह वहाँ मौजूद रहती। ज़िंदगी में पहली

तुम्हारी किताब

चित्र
अगर किसी की किताब सड़क किनारे, फुटपाथ पर बिखरी हुई सकड़ों किताबों के साथ चुपचाप पड़ी हो, बिक रही हो, तब किसी को कैसा लगना चाहिए? फ़र्क तभी पड़ता है, जब वह जानता है। नहीं जानने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता किसने उसे लिखा है, वह क्यों ऐसे लिख रहा है। इस इतवार दरियागंज तुम्हारी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' पर नज़र पड़ी। उसके साथ बहुत सी और भी किताबें थीं, जिन्हें पहले से जानता हूँ। हृदयेश जोशी की लाल लकीर, अल्का सरागवी की ब्रेक के बाद, निखिल सचान की यूपी 65, मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था, लेखक का नाम याद नहीं। बम संकर टन गणेश। सब इन किताबों को देखते हुए गुज़र रहे हैं। कोई रुक नहीं रहा है। मैंने रुक कर थोड़ा उलट पुलटकर इन्हें देखा। दुकान वाला बोला, हाफ रेट पर है। इससे एक पैसा कम नहीं होगा। तुम्हारी किताब मेरे पास है। मैं थोड़ी देर रुक कर देख रहा था, कोई कोई हिन्दी की किताबें देखकर वहाँ मेरे जैसे कोई और रुकता है या नहीं? हो सकता है, यह मेरी कोई गलत तरह की इच्छा रही होगी। वहाँ आने वाले पाठक नहीं खरीदार होते हैं। मैं भी ख़रीदार हूँ पर थोड़ा पढ़ने की इच्छा मेरे अंदर बची हुई होगी। मैं उस बहुत बड़े पुरान

नीली रौशनी वाला टेम्पो

यह एक दिन की शाम है। सूरज डूब चुका है। उसके बाद आई शाम भी जा चुकी है। अँधेरा होते ही सब जितनी जल्दी हो सके अपने घर पहुँच जाने को आतुर हो गए हैं। मैं अभी डिगिहा की तरफ से आए टेम्पो से उतरा ही था कि एक लड़का लगभग मेरी बाँह पकड़ कर खींचते हुए अपने टेम्पो की तरफ़ ले आया। तब उसने पूछा, कहाँ जइय्हओ ? मैं बोला, चिचड़ी चौराहा। बइठो फ़िर। अब्बय चलित हय। मैं सबसे किनारे वाली सीट पर जाकर बैठ गया। मुझसे पहले सिर्फ़ एक आदमी वहाँ बैठा हुआ है और अभी बहुत जगह खाली पड़ी थी। जब तक वह भर नहीं जाएगी, यह तो चलने से रहा। वह दो थे। दोनों हर उस व्यक्ति से जो उनके टेम्पो की तरफ़ देख भी लेता, पूछने लगते, चलिहओ? कोई गर्दन हिला कर मना कर देता, कोई बोलकर। जिस किसी को मेरी तरह बाँह पकड़ कर खींचने लगते वह उन्हें झिड़क देते। वह टेम्पो उन दोनों में से किसका था, पता नहीं चा रहा था। जो अभी थोड़ी देर में टेम्पो चलायेगा, वह उस कम लंबे, गरम मिजाज़ लड़के का उतना ही साथ दे रहा था। वह अधेड़ जिसकी साइकिल को ऊपर छत पर लाद रखा था, सबसे ज़्यादा बिलबिला रहे थे। बार-बार किसी पीछे से आए टेम्पो के इस सड़क किनारे खड़े टेम्पो से पहले चले जाने

लिओनार्दो

चित्र
करीब-करीब तीन साल होने वाले हैं। माइक्रोसॉफ़्ट वाले लूमिया फ़ोन बाज़ार में बेच रहे थे। नोकिया उनके हाथों में आ चुका था। यह फ़ोन विंडो नाइन पर चल रहे थे, जो अपडेट के बाद विंडो टेन पर भी सपोर्ट कर रहे थे। मुझे इसमें एक चीज़ सबसे अच्छी लगी, वह थी उनका म्यूजिक प्लेयर ग्रूव। उस मोबाइल में हम किसी भी वेब पेज को अपने होम पेज पर पिन कर सकते थे। वह लैपटॉप से भी सिंक हो जाता। जो मेसेज़ फोन पर आते वह लैपटॉप पर पढ़ लेता। नोटिफ़िकेशन देख लेता। कभी यहीं से फ़ोन लॉक कर देता। तब मुझे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का कोई अंदाज़ नहीं था। इधर कभी-कभी मैं नोकिया के फ़ोन पर गूगल अस्सीस्टेंट से बात करने लगता हूँ। मेरी रुचि उससे कुछ व्यक्तिगत जानकरियों को जान लेने की थी। उसे एक महिला की आवाज़ में मोबाइल कंपनी या गूगल ने डिफ़ाल्ट सेट किया हुआ है। मैंने भी उसे नहीं बदला। जब उससे पूछता हूँ, तुम्हारा जन्म कब हुआ? वह बताती है, दो हज़ार सोलह। सितंबर में सबसे पहले उसे गूगल के इंजीनियरों ने चालू किया। उसके भाई बहन और परिवार भी वही सब हैं। पता नहीं कहाँ से मेरी कल्पना में एक ऐसा रोबोट आ जाता है, जिसके हमारे जैसे मानवीय संबंध हैं। उस

निकट भविष्य

चित्र
पता है, मैं किसी चीज़ को लेकर सबसे ज़्यादा सोचा करता हूँ? एक वक़्त जब स्टीफन हॉकिंग के कहने के बाद अगले छह सौ साल में हम यह ग्रह हमेशा के लिए छोड़ रहे होंगे, तब वह कौन होंगे, जो पीछे छूट जाएँगे? कोई छूटे तो मैं भी उन छूटने वालों में होना चाहता हूँ। यहीं इसी जगह से चालीस किलोमीटर ऊँचा एवरेस्ट मुझे दिख रहा होगा। आसमान में कहीं ऊपर छिपता हुआ। कई और पहाड़ ऊपर की दिशा में बढ़ रहे होंगे। इस दृश्य को सोचकर कोई हरारत नहीं होती। बस उससे कभी अनुपस्थित नहीं होना चाहता। तब हम जितना दोहन कर पाते होंगे, उससे कहीं ज़्यादा दोहन करने के बाद उसे नए तरीकों से प्रयोग करने की तरकीबों में विज्ञान को लगा देने के बाद भी चैन से नहीं बैठ रहे होंगे। इसकी शुरुवात उन अनदेखी जगहों को देख लेने की ज़िद से होगी। सब जितना नहीं देखा गया है, वहाँ तक पहले पहुँचने की इच्छाओं से भर जाएँगे। कोई कंपनी वहाँ जाकर उस क्षण के लिए औज़ार मुहैया करवाएगी। पर्यटन से भी दो चार कदम आगे जाकर सब स्थगित हो जाएगा। इच्छा वहाँ जाने की है, जहाँ सड़क नहीं है, बर्फ़ से ढककर सब गुम हो गया है। जिस हवा में हम सांस लेते हैं, वहाँ वह हवा भी नहीं होगी। कोई

फाँक

चित्र
जहाँ कहा था, उससे बीस तीस कदम पहले बाइक रुकी। मैं उतर गया। वह भी एक रास्ता था। कच्चा। धूल भरा। नंगे पैर चलता तो उसी में सन जाता। चप्पल थी। मोज़े पहने नहीं थे। उतार दिये थे। सूरज निकला हुआ था। उसी दिन मुझे वापस लौटना था। मन में सोच रखा था, एक बार तो इस ईंट के भट्ठे वाले रास्ते से गाँव जाऊँगा। अकेला। पैदल। कोई मेरे साथ नहीं होगा। बस चल पड़ूँगा। मन में न जाने कैसे लगने लगा, यह वह जगह बिलकुल भी नहीं है, जहाँ हम कभी आ या करते थे। सब पीछे छूटने जैसा नहीं भी रहा हो तब भी पिछले एक हफ़्ते से अजीब किस्म का शोर मुझे परेशान कर रहा था। यह कष्ट जैसा ही था। जिसने मुझे उस स्थान को घेर लिया हो जैसे। दो पल अकेले छत पर बैठे होने पर कोई क्षण ऐसा नहीं लगा, कहीं ऐसी जगह हूँ, जो मेरे उन टूट गए तंतुओं को जोड़ने का काम कर रही हो। हर दम तरह-तरह की आवाज़ों से घिरा, जब उस रास्ते पर चल रहा था, तब उन ध्वनियों की अनुपस्थिति कुछ कुछ उस संगीत की तरह थी, जो अभी तक मुझे सुनाई नहीं दिया था। इसमें मशीनों द्वारा उपजी खटर-पटर करती मर्मांतक पीड़ादायी आवाज़ें नहीं थी। उनकी कृत्रिमता के अभाव में जो यहाँ फैला हुआ दृश्य था, वह मु

आज

चित्र
वह वहीं बैठा हुआ है। अंदर। कुर्सी पर। घड़ी की तरफ़ देख रहा है। वक़्त कम है। बारी-बारी से सब आ जा रहे हैं। उनमें अर्दली भी होंगे। किसी वकील के मुंशी भी होंगे। कई मामले में वही वकील की तरह सबसे पेश आने लगते हैं। जो कम रह जाते हैं, वह कुछ कहा नहीं करते। सिर्फ़ उन मामलों की पड़ी हुई फाइलों को देखा करते हैं। उनके वजन से सब दब गया है। भविष्य के सभी पन्नों को उन्होंने उड़ने से रोके रखा है। वह दृश्य, जिसमें एक हाथ से दूसरे हाथ तक जाती हुई एक फ़ाइल से दूसरी फ़ाइल तक का सफ़र उसकी आँखों में स्थिर हो गया है। वह बढ़ ही नहीं रहा है। तारीख़ अगर आपकी तरफ़ से किसी के अनुपस्थित होने से पड़ जाये, तब उसके वहाँ होने से क्या बदल जाएगा? वह आहिस्ते से उठने की कोशिश करता है। उसके पैरों में रक्त की बूँदें एक साथ अलग-अलग दिशाओं में भागती हुई लगती हैं। जो पैर दो घंटे से वहीं बैठे रहने से सुन्न हो चुके थे, अब झनझना जाते हैं। उसे अब ऐसी झंझनाहट अपने बीतते हुए दिनों में नहीं दिखती। वह बस अवाक् सा रह जाता है। उसे समझ नहीं आता, वह यहाँ क्या कर रहा है। उसे यहाँ होना भी चाहिए था? वह कई और जगहों से अनुपस्थित होकर यहाँ है। लेकि

बेमतलब

चित्र
जब हमें लगता है, हम कहीं पहुँचने वाले हैं, तब हम आहिस्ते-आहिस्ते चलने लगते हैं। इसे वस्तुनिष्ठ वाक्य की तरह न लिया जाये, तब इसे किस तरह लिखा जाना चाहिए। उस पहुँचने में एक बार जो पहुँच जाने की हड़बड़ी है, उत्कंठा है, क्या उसे कदमों से मापा जा सकता है? क्या हो जब वह कदम कहीं चलते हुए किसी को दिखाई ही न दें। दिखाई देना, उसके होने का एकमात्र प्रमाण हों, ऐसा नहीं है। मैं कितने ही सालों से कितने हज़ार वर्ग फुट अपने मन में तय कर चुका हूँ। कितनी ही बार उनकी पैमाइश पूरी करने के बाद भी कहीं नहीं पहुँच पाया। यह जितना भौतिक लग रहा है, उससे कहीं अधिक अमूर्त है। अमूर्त होने पर यह किसी को दिखाई नहीं देगा, ऐसा नहीं है। यह चिंतन की तरह एक तरह की विलासिता का अपने मन में निर्माण कर लेना है। यह उन दुखों को बढ़ा चढ़ा कर अपने इर्द-गिर्द ओढ़ लेना है, जिनकी कृत्रिमता अपने से किसी अन्य के छूने पर उसी पल प्रकट हो जाएगी। प्रकट होना, एक तरह से उस तिलिस्म के टूट जाने सरीखा होगा। यह तभी तक मूल्यवान है, जब तक कि इसे सिर्फ़ हम देख पा रहे हैं। दूसरों के देखते ही यह अर्थहीन हो जाएगा। अर्थहीन होना खत्म होना नहीं है, नए अर

दरअसल

चित्र
बात सिर्फ़ उस याद की नहीं थी। एक अजीब तरह का संकोच मन में बैठ गया। यह इच्छा को निर्धारित करने लगा, तब लगा कुछ है, जिसे कह नहीं पा रहा। एक वक़्त ऐसा था, जब आज का खाली-खाली गाँव का घर हमेशा भरा रहता। आँगन, नल, चूल्हे, दुकान, दुआरे, छत सब जगह एक साथ किसी न किसी से हमेशा भरी रहती। इससे घर तब कुछ छोटा और झगड़े वाली जगह में तब्दील हो जाता, पर हमारे छुटपन में यह हमारी आँखों से दिखने वाली सतह पर नहीं रहा होगा। रहा होता तब वह भी उन बहुसंख्यक स्मृतियों में पैठ कर चुका होता। अब तो बाबा भी छोटके चाचा के यहाँ रह रहे हैं। वहाँ बचे बस चार परानी। चाचा चाची। दो चचेरी बहनें। उस अजीब से सूनेपन में जो उस छत, खपरैल वाले कमरे में पसरा हुआ है, उसे अपने अंदर उतरने देता, ऐसा सिर्फ़ दो या तीन बार हुआ होगा। अकेले चले आने में जो अकेलापन है, वह अब सहा नहीं जाता। बार बार पुराने दिनों का साथ उन कदमों को और भारी कर जाता है। इन बीते सालों में ऐसा हुआ ही नहीं कि हम सब साथ गए हों और सब एक साथ वापस लौटआए हों। कितने सालों बाद तीन साल पहले हमारी शादी में वह आखिरी बार था, जब हम साथ आए थे। तब भी भाई यहीं रह गया। उसका प

ओट

चित्र
अब जबकि यह पंक्ति लिख रहा हूँ, मैं वहाँ नहीं हूँ, जहां से इन्हें लिखने की चाह सबसे पहले मेरे अंदर आई थी। वहाँ से लौटकर यहाँ आए एक हफ़्ते से भी ज़्यादा हो गया है। पाँच दिन बाद से यह दिन थोड़े और बड़े होने लगेंगे। पर इधर मेरे अंदर अँधेरा बढ़ रहा है। सब दिख रहा है। सिर्फ़ आने वाले दिनों को नहीं देख पा रहा। वह किसी सुकुमार फूल की तरह कहीं हैं, इसका आभास भी मुझे आश्वस्त नहीं कर पा रहा। ख़ैर, बात दूसरी तरफ़ न मुड़ जाये, वापस लौटते हुए बस इतना ही कहना चाहता हूँ, यह स्याह दिखने वाली परिघटना, जिसमें सब कहीं खो जाता है, इसी वजह से एक चाचा के यहाँ से दूसरे चाचा के यहाँ नहीं जा पाया। सोचता, शाम के चार बज गए हैं, अभी निकलुंगा, तब दस मिनट में वहाँ उनके घर पहुँच जाऊंगा, तब थोड़ी देर में ही वहाँ से लौट आना होगा। अँधेरा होने से पहले। रोज़ यही खयाल हर बार उसी वक़्त मेरे अंदर घर कर जाता, जब सूरज डूबने में यही कोई घंटा डेढ़ घंटा होता। मैं पुराने दिन के रूमान में चाचा की गाँव वाली दुकान पर रखे उस लकड़ी के मेज़ पर बैठा, वहाँ सौदा लेने आने वाले लोगों को अपने भाई-बहनों के साथ देख रहा हूँ और उस तपती हुई दुपहर की तरफ़

विलंबित

चित्र
यह जो नहीं लिखना है, इसे क्या कहना चाहिए। एक समय वह भी रहा, जब लिखने की बैचनी इस कदर घेरे रहती थी कि कोई दिन ऐसा नहीं होता, जब कुछ लिख लेने की बात अंदर ही अंदर न चल रही हो। उसका अंदर मथना ऐसा होता, जब तक लिख न लो, खाली बैठे रहने का कोई मतलब नहीं। खाली बैठना मतलब लिखना। यह एकांत का सृजन नहीं उसे व्यस्त रखने और ख़ुद को कहीं ताखे या सिकहर पर रख देने का अवकाश ही रहा होगा, जब रात रात लिखते हुए गुज़ार दिया करता। अब यह सब कहाँ है ? क्यों दिन लिखने के बारे में बिन सोचे गुज़रते जा रहे हैं? ऐसा क्यों नहीं हो रहा, कि रात सोने से पहले कई सारी पोस्टों को एक साथ आगे-पीछे लिखकर पिछली तारीखों में लगता जा रहा हूँ? उन्हें कोई पढ़ रहा है या नहीं इससे ज़्यादा ज़रूरी उनका वहाँ मेरे मन से बाहर होना मायने रखता था। यह जो अतीत में सहज था, अब मुझे असहज क्यों लग रहा है? शायद मेरे पास इन सबमें से किसी भी बात का कोई जवाब नहीं है। जवाब होने चाहिए पर सवालों का बिना बौखलाए सामना करना भी उतना ही ज़रूरी है। सच, अब न लिखते हुए लिखने को 'मिस' नहीं कर रहा। उस आदत से इस कदर पीछा छूट जाएगा, कोई नहीं कह सकता था। मैं तो

मोबाइल

चित्र
मोबाइल देखा है? देखा होगा। अगर आप यहाँ तक पहुँच गए हैं, तब ज़रूर देखा होगा। वह अभी अकेले, अपने आप कहीं आते जाते नहीं हैं। हमें उन्हें कहीं-कहीं ले जाना होता है। कभी सोचा है, इस एक आविष्कार के वर्तमान स्वरूप ने किस तरह हमारी दुनिया की रचनात्मकता को क्षति पहुंचाई है? शायद नहीं। आप उसे दूसरी तरफ से देख रहे होंगे। वह सहायक के रूप में उपस्थित है। यह कई वैकल्पिक संसारों को अपने अंदर रच रहा है। यह मौका पड़ने पर कोई भी गाना सुना सकता है । कहीं भी तस्वीरें खींच सकता है। इन दो बड़े कामों से शुरू हुआ यह डिवाइस अब और क्या-क्या कर रहा है? जबसे इसमें इंटरनेट और एप दोनों आपस में मिले हैं, यह असीमित उपलब्धियों को हासिल कर चुका है। टैक्सी बुक करनी है। ऑनलाइन मेगा स्टोर हैं। सब्जियों से लेकर खाना मंगाना है। रेल हवाई जहाज की टिकट बुक करनी है। छुट्टियों का कोई प्लान बनाना है। कोई खबर पढ़नी है। कोई फिल्म, कोई नाटक देखना है। उसके पिछले भागों को देखना है। किताबें डाउनलोड कीजिये। किसी लड़की या लड़के से मिलना है, पॉर्न साइटों पर जाना है। सेक्स करना है। पढ़ाई करनी है। अगर मोबाइल में डेटा है, यहाँ सब कुछ मिलेग

बेस्टसेलर

चित्र
वह किताबें जिन्हें बेस्ट सेलर कहे जाने का चलन बढ़ता जा रहा है, यह नई से लेकर पुरानी किताबों पर दिख रहा है। दुष्यंत कुमार और गुनाहों का देवता से शुरू हुई यह बात बहुत आगे बढ़ गई है। इसे सिर्फ़ भाषा का मसला नहीं कहा जा सकता। यह इस दौर में एक मोहर की तरह हो गया है। जिस पर यह लग गई, बस दुनिया उसी की। हम इस शब्द के साथ सिर्फ़ लोकप्रियता को ही नहीं बल्कि अपनी जीवनशैली में आ गए बदलावों को देख सकते हैं। बहरहाल। अभी बात एक किताब पर करने जा रहा हूं। कल रात खाना खाने के बाद नई हिंदी वाला एक नॉवेल पढ़कर ख़त्म किया है। मैं इसके बारे में सिर्फ़ एक बात को कल से घोटे जा रहा हूं। यह एक ऐसी रचना है, जिसे तयशुदा फॉर्मूले पर क्राफ़्ट किया है। क्राफ़्ट तो लगभग सबका होता होगा। कोई न भी बोले तब भी। तो इसमें ऐसा क्या है, जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए? एक हॉस्टल, तीन दोस्त, रैगिंग, सीनियर-जूनियर का द्वंद्व, सिगरेट, अड्डेबाजी, दोस्त का प्यार और कहानी ख़त्म होते-होते एक-दो बड़े ट्विस्ट। नरेटर जो खुद इस कृति का लेखक है, उसके पास घटनाएं इतनी ज़्यादा हैं कि वह चरित्रों को भी कहकर बताता है। वह कैसे हैं। उनक

गांव

चित्र
सर्दियों के दिन गांव को उघाड़ कर रख देते हैं। उघाड़ना इस तरह नहीं की उन्हें पता ही न चले। वह ख़ुद इस काम को आसान किए देते हैं। अन्दर की सीलन भरी दीवारों के बीच रहकर ठंड से बचा नहीं जा सकता। धूप बाहर है। सब दुआरे आ जाने से सबको दिख जाता है। कितनी रजाई। कितने कम्बल। कितने बलित(तकिए)। कौन बाहर सोएगा, कौन भीतर इसके यह पहले से तय हैं। बूढ़े और बच्चे। या वह भाई जिसकी अभी शादी नहीं हुई है। वह सब पुआल से, आग से, धूप से, मूंगफली, तिल पट्टी से और भी जाने किन-किन तरह के उपायों से खुद को गर्म रखे रहना चाहते हैं। गर्माहट जिंदा रहने के लिए जरूरी है। यह उन्हें पता है। इन सब बातों के अलावा जब यह सर्दियां नहीं रहेंगी, गर्मी में लू के थपेड़ों से सब बेहाल हो रहे होंगे और बरसात की बूंदों का इंतजार करते यह लोग जो गांव में रह रहे हैं, वह खुद को लेकर किसी रूमान में नहीं हैं कि वह यहां रहा करते हैं। जो कभी यहां नहीं रहे, जिनके बाप-दादा यहां पले बढ़े, यहीं की मिट्टी में मिल गए और वह खुद कभी इन गावों में नहीं रह पाए, वही इन जगहों के लिए बहुत भावुक हैं। अगर गांव उनके पूर्वजों को जिंदा रख पाता, तब कौन य

एक चीथड़ा सुख

चित्र
इन दिनों जबकि अपनी मेज़ को रोज़ अपने पास ना देख कर कहीं इन्हीं आस-पास की जगहों में खुद को व्यस्त करने में लगा हुआ हूं। मुझे लगता है, इस तरह अनमने होकर कुछ भी नहीं हो पा रहा। दिन काटने के लिए अपने साथ लायी सारी किताबों को एक-एक कर पढ़ रहा हूं। लगता है, कहीं कुछ है, जो यहां न होने के कारण मुझसे छूट नहीं रहा तो पकड़ में भी नहीं आ रहा। यह छूटना और पकड़ना न भी हो, तब भी वक़्त इस तरह मेरे इर्दगिर्द छितरा हुआ है कि वह असीम समुद्र की तरह मुझे चारों ओर से घेरे हुए है। उसमें तरंगे हैं, उफान हैं। सीपियां और मोती भी होंगे। पर लगता है इसमें नमक बहुत बढ़ गया है। नीचे उतरने की कोई तरकीब काम नहीं आ रही। इन्हीं सबके बीच पढ़ने और लिखने के इतने साल बीत जाने पर पहली बार निर्मल वर्मा को पढ़ने बैठा। उनका उपन्यास। एक चिथड़ा सुख। दो बैठकों में इसे खत्म कर दिया। अभी भी मेरे मन में इसकी बहुत सी बातें चल रही होंगी। उस बरसाती का एकांत मुझे बुला रहा होगा। उसमें बिट्टी और मुन्नू नहीं थोड़ा मैं भी रह गया हूं। फ़िर भी मुझे लगता है, कहीं कुछ इससे बेहतर निर्मल वर्मा ने लिखा होगा। मुझे यह भी नहीं पता, कालक्रमान

यहां

चित्र
शाम ख़त्म होने को है। यहां मेरे बगल से दो बंदर गुजर रहे हैं। एक के पीछे एक। शायद दोनों भाई होंगे। दोनों सड़क पार कर गए। एक साथ। मैं यहां आकर एकदम 'मिसफिट' हो गया हूं। जो भी मुझ से मिल रहा है, वह जानना चाहता है, मैं अचानक कैसे आ गया? अगर आया हूं, तब कोई न कोई काम तो ज़रूर होगा। वह मुझसे वह काम जान लेना चाहते हैं। वह लोग जो खुद यहां बेकार बैठे हैं, उनकी नजर में किसी और को बेकार नहीं बैठना चाहिए। यह मैं समझ रहा हूं। तब मैं यहां क्या कर रहा हूं? क्यों आया हूं यहां? यह कोई दार्शनिक सवाल नहीं है। उनकी जिज्ञासा है और मेरे लिए यह सब लिख पाने का बहाना भर। इससे ज़्यादा की मेरी हैसियत नहीं है अभी। इन तीन दिनों में यह तो तय बात है कि उनके रोज़ाना में मेरे लिए कोई जगह नहीं है। हमारे घर भी कोई आता है, तब हम भी बिलकुल ऐसा ही करते। वह अपना रोज़ाना बना सकें, इतना मौका तो उन्हें मिलना ही चाहिए। मतलब, वह मुझे मौका दे रहे हैं। फिर यह जो मौसम है, इसमें ठंड अभी शुरू हो रही है। सबके पास एक-दूसरे के खूब खूब न्योते हैं। कहीं गौना है। कोई बारात जा रहा है। कहीं बहु भोज है। कोई भंडारा करवा रहा है।

सफ़र

चित्र
गाड़ी वक़्त से पहुंच गई। पांच मिनट की देरी कोई देरी नहीं होती। भारत में इसे वक़्त पर पहुंचना ही कहते हैं। ख़ैर। अकेले ही दोनों झोलों को कंधे पर टांगे प्लेटफॉर्म नंबर एक पर आया। यहां से बाहर निकल गया। कैसरबाग से बहराइच की दो बसें थी। एक वातानुकूलित। दूसरी साधारण। हम दूसरी वाली में चढ़ गए। बस टू बाय टू थी।  बस अड्डा एकदम बदल गया है। अपने आप खुलने बंद होने वाले दरवाजों के बीच में लगभग सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था है। आदमियों को अब पेशाब करने के लिए दीवारें नहीं खोजनी पड़ेंगी, न उन्हें गीली करने का ख्याल अपने मन में लाना होगा। यहीं, इसी बड़े से हॉल के एक किनारे पर बने शौचालय में मुफ्त सुविधा दे दी गई है। इससे कितना श्रम और रचनात्मक ऊर्जा का संरक्षण हुआ या अलग गणना का विषय है।  ख़ैर। बस आठ बजकर तीस मिनट पर चल पड़ी। मेरे बगल की सीट पर एक लड़का बैठा था, वह मेरा फोन देखकर उसके बारे में पूछने लगा। वह भी नोकिया लेता। पर तब तक आया नहीं था। सैमसंग का फोन लिया था, अब चलाना पड़ रहा था। उसके पिता जी की तबीयत ख़राब थी। वह इमरजेंसी में गांव लौट रहा था। यह बात बस चलने से पहले हम कर चुके थ

जाना

चित्र
यह जाना अक्सर सफर में होने जैसा है। जैसे ही यह भाव मुझमें भरने लगता है, मैं कुछ कम होने लगता हूँ। उन क्षणों में वह कल्पना भी मेरा साथ नहीं दे पाती, जहाँ अपनी अनुपस्थिति को इसके सहारे भरने को होता हूँ। अगले दस दिन जहाँ नहीं हूँ, वही रिक्तता बनकर मेरे रोयों में भर रही है। इस कुर्सी मेज़ के इर्दगिर्द खुद को समेटे मेरे दिन, रात, शाम सब यहीं रह जाएँगे। ऐसा भी समझ नहीं पाता हर बार मुझे वही भाव लिखने का मन क्यों होता है जब थोड़ी देर में चलने वाला होता हूँ। यह क्षण मुझे सबसे ज़्यादा घेरते हैं। अपनी तरफ़ खींचते हैं। कल जब घर से दूर कहीं शाम ढल चुकी होगी, तब किन ख़यालों में डूब रहा होऊंगा? यह कल शाम को अभी से अपने मन के कैनवस पर ढाल लेने की ज़िद नहीं हैं। बस यह ऐसी ही कोई इच्छा है। ऐसे बहुत सारी इच्छाओं से उन गुज़रते लम्हों में उतरता जाऊंगा। कोई भी नहीं होगा। जो किसी दरवाजे खिड़की के सहारे अंदर दाख़िल हो जाये। दोपहर या उसके घटित होने से काफ़ी पहले किसी क्षण गाड़ी घगरा का पुल पार करेगी। फ़िर मेरे सामने वह सारी स्मृतियाँ घूम जाया करेंगी। यह तब सबसे मुश्किल पल होते हैं, जब आप अकेले सफ़र कर रहे होते हैं। कि

इतवार

चित्र
हफ्ते में एक यही दिन है, जिसका इतिहास हम सब अपने भीतर हर इतवार लिख रहे होते हैं। बहुत सी यादें बेतरतीबी से हमने इस दिन के साथ जोड़ कर रख ली हैं। यह हमारे स्मृति कोशों में सबसे यादगार पलों को अपने अंदर समेटे हुए है। जब भी इन दिनों जिनमें, नवंबर सूरज के साथ इन सुनहरी दोपहरें ले आता है, अपने अंदर हम खो रहे होते हैं। हम छत पर चारपाई डाले अलसाए से बैठे हैं। मूँगफलियाँ अभी निकली नहीं हैं। तिल पट्टी पापा लाये थे, मिल नहीं रही। तब भी वहीं पीठ किए ऊँघते रहने में अपना सुकून है। खाना खाकर कुर्सी पर बैठे किसी मेहमान का इंतज़ार कर रहे हैं। वह आज आने वाले हैं। अभी तक नहीं आए। पर कहा तो आज ही था। आखिरी इतवार आपके यहाँ आऊँगा। शायद भूल गए होंगे। नहीं, भूलते नहीं हैं। चलो, नहीं आए हैं तो आ जाएँगे। कितनी सारी बातें इन सर्दियों में आए मेहमानों की शुरू हो जाती हैं। जब नया टीवी लिया था, तब गाँव से चन्द्र्भान आए थे। तब ठंड थोड़े थी। ठंड नहीं थी, तब क्या? इतवार तो था। अपने इतवारों को याद करता हूँ, तब वह अरुण के यहाँ तक जाती हैं। कितने ही इतवार हम दरियागंज होते हुए लाल किले के परकोटों में बैठे रहे। एक-दूसरे

दृश्य

चित्र
शाम उठा। खिड़की के बाहर छत पर अंधेरा उतर रहा था। ख़ुद में उस अंधेरे को उतरने दिया। आँख में नींद नहीं थी। आलस था। बैठा रहा। थोड़ा टहलने का मन था। बाहर गया। दो चक्कर बाद वापस अंदर आया। यह शाम वहाँ कैसे आएगी? अभी कैसे आ रही होगी। उस जगह को अपने मन में ठहराते हुए उन सभी के धुँधलाने के बाद लेट गया। ठंड की शामें हमें समेट देती हैं। अपने अंदर तक उन बीते दिनों की स्मृतियों की आहट में कुछ देर पुआल पर ऊँघते हुए महसूस कर रहे होंगे। वह आग जला कर बैठे होंगे। एक घेरे में। रजाईयों में दुबक कर बड़े बुज़ुर्गों नें उन्हें ओढ़ लिया होगा। कुछ आवाज़ें उनके फेफड़ों से होकर उस गुजरती हवा के एहसास को बनाए रखेगी। दिल की धड़कनों को वह भी महसूस कर अगली सुबह थोड़ी देर और लेटे रहेंगे। हवा नहीं चल रही। ढबरी में लौ इतनी झिलमिला नहीं रही होगी। लेकिन वह अब ठंडी है। सूरज ढल जाने के बाद आसमान से गिरती सीत में भीगते हुए उसे लौटना कभी अच्छा नहीं लगा। हर रात उसकी एक नाक इसी वजह से बंद हो जाती। इस अँधेरे में एक पीली सी चमक है। उसका छोटा सा घेरा है। उसी के सबसे किनारे वह बैठी हुई है। कल सब गौना करा लाये हैं। चूल्हे पर रखी बट

मन

चित्र
यह जो भाग लेने वाला मन है, कभी तो यह ओस की तरह दिख जाता है। यह ऐसा एक दिन में तो बना नहीं होगा। इसमें ऐसा क्या है, जो यह मुझे अपनी तरफ खींचे रहता है? इसके पीछे छिप जाने की आदत का क्या करूं? यह अपने अंदर मेरी सारी इच्छाओं को छिपाए हुए है। कोई देखे न देखे, वह वहीं सिमटी पड़ी रहेंगी। उनका किसी मेज़ पर अनपढ़ी किताबों की तरह रहना किसी को भी खल जाएगा। मुझे भी खलता है। इसलिए यह जो कहता है, कर लेता हूं। हर बार ऐसा करना आसान नहीं। फ़िर भी कुछ तो किया ही जा सकता है। सब कहते हैं, यह हममें से किसी ने देखा नहीं है। मैंने भी नहीं देखा, ऐसा नहीं है। इसे कई बार दृश्यों में देखता हूँ। उन दृश्यों में जिनमें मेरे कई सपने बंद हैं। वहाँ करने के लिए मेरे पास बहुत सारी चीज़ें हैं। जिन्हें इस ज़िंदगी में शायद ही पूरा कर पाऊँ। जैसे एक दृश्य में इस धरती को तुम्हारे साथ चाँद से देख रहा हूँ। इतनी ऊपर से देखते हुए भी अपने घर को पहचान जाना, हम दोनों को एक साथ आश्चर्य से भर देता है। उसी मन में एक और ग्रह पर जाने की तमन्ना है। हम इस पृथ्वी को छोड़े वाले आख़िरी मनुष्य हैं। हमारे जाने के साथ ही यह पृथ्वी अपने एकांत

डायरियाँ

चित्र
उस रात फोन पर बात करते हुए सिर्फ़ अपनी कहीं पुरानी बात दोबारा दोहरा रहा था। कभी कागज पर अपना लिखा हुआ पढ़ने की इच्छा मुझमें नहीं बची। यह इच्छा से अधिक उस लिखे हुए से घृणा जैसे भाव का मेरे अंदर भर जाना है। यह किस तरह का लिख रहा हूँ, जो मुझे किसी भी तरह की ऊर्जा से भर नहीं रहा। मैं जब भी कोशिश करता हूँ एक दो पंक्तियों से अधिक नहीं पढ़ पाता। पिछली दोनों डायरियाँ मेरे सामने अलमारी में रखी हुई हैं। एक शाम मन किया, ज़रा देख लूँ। क्या लिखा गया है उन बीतती घड़ियों में? एकदम से मन उचट गया। इसे किस तरह लेना चाहिए? मैं जो जी रहा हूँ, उसे ही लिखने की कोशिश करता हूँ। जितना लिख पाता हूँ, उसमें मेहनत से ज़्यादा उन क्षणों को अपने अंदर दोहराते रहने की पीड़ा मुझे संताप से भर देती है। यह कैसे दिन हैं, जो अतीत में भी हुबहू वैसे ही थे, जिनमें बीत रहा हूँ? उनमें ऐतिहासिक रूप से अलग समय बोध है, मगर परिस्थितियों में कोई अंतर नज़र नहीं आता। ऐसा क्यों हुआ होगा? इसे समझने की ज़रूरत है। यह लिखने का कारण और उस लिखे जाने के बाद न पढ़ पाने की प्रक्रिया को विस्तार से कह जाने के बाद ही कुछ रेशे पकड़ में आएंगे। ख़ुद से पूछना

स्मृति

चित्र
मैं दोबारा उस भाव से भर जाना चाहता हूँ, जब मेरे अंदर पहली बार तुम्हें छूने की बात उग आई होगी। उन्हीं स्मृतियों में वापस लौट जाने की इच्छाओं से भर गया हूँ। उन दिनों कैसे डूबे-डूबे रहते और शामें डूब जाया करती। यह जो बीते कल में वापस चले जाने की इच्छा है, वह इस निर्मम समय में ऐसे ही नहीं चली आई होगी। कोई कतरा मुझमें कम रह गया होगा, जिसे तलाशने वहाँ लौट जाना चाहता हूँ। यह इच्छा आज मुझमें है, कल तुममें हो सकती है। हो सकता है, यह कल तुममें रही हो और आज तुम्हारे जरिया मुझमें आ गयी हो। बस सोच रहा हूँ और किस बिम्ब से इस बात को कहा जा सकता है? इस सबमें एक रात ऐसी होगी, जब हम सब इसी तरह भर जाएँगे। यह छूना अपने अंतस को छूने जैसा होगा। जैसे छूएँगे, पानी जैसे अपने मन को। उसकी तरलता में जो नमी होगी, उसी में रखकर अपनी बात तुम तक पहुँचा दूंगा। वह शब्द किसी को दिखाई नहीं देंगे। वह स्पर्श की तरह मन पर अंकित होकर उसी में समा जाएँगे। यह क्षण मेरे हृदय की सबसे कोमलतम अनुभूति बनी रहें और तुम तक इसी तरह वहाँ उतरती रहो। इस उतरने में न तुम अकेली रह पाओगी, न मैं। हम साथ-साथ उन ओस की बूंदों को अपनी हथेल

रात ख़याल

चित्र
रात इसी तरह मेरे अंदर होकर गुजरती है। स्याह। काली। अँधेरे से भरी। उसके हर गुजरते पल में अपने अंदर टूटते हुए बस बिखरने से बचने की फ़िराक़ में लिखना छोड़ दिया है यह सब। यह छूटना मेरे अंदर छूटा नहीं। स्थगित हो गया। अभी कुछ देर पहले, बस इस पर सोचते हुए यही लगा कि ऐसा होने से क्या हुआ होगा मेरे भीतर? शायद यह मेरा खुद से बचने का तरीका है । मैं खुद को उन सब स्थितियों से बहुत अलग कर लेना चाहता हूँ और अभी भी ऐसी किसी बात का ज़िक्र नहीं करना चाहता, जो मेरे अंदर खुद को बुन रही है। यह मेरी सीमाओं को टटोलने जैसा बिलकुल नहीं है। असल में इसमें कुछ दम ही नहीं है। बात सिर्फ़ इतनी है, रात के इन पलों में तुम्हारी कमी को इतनी पास से देख रहा होता हूँ। यह रात ही है, जब मेरे अंदर का कोलाहल एकदम इस अँधेरे में डूब रहा होता है। रात में अँधेरे जैसी फैली शांति में कुछ ऐसा है, जो मुझे किसी खोल की तरह लगता है। मैं ख़ुद को इन पलों में बहुत निकटता से देखना चाहता हूँ। बहुत पास से देखने पर हर बार तुम ही नहीं मिलती । हर बार तुम्हारा गैर-मौजूद रहना, मेरे बिखरने को रोक नहीं पाता। यह जो बहुत असपष्ट अधूरी सी बातें हैं, इनके ब

कमीज़

चित्र
अक्सर वही शर्टें यादों में लौटकर वापस आती रहीं, जो किसी तस्वीर में कहीं दर्ज़ रह गईं। यह कमीजें पासपोर्ट साइज़ की उन तसवीरों में सबसे ज़्यादा वक़्त के लिए खुद को समा लेती हैं। उन्होंने ख़ुद को वहाँ टाँक लिया हो जैसे। हरी मस्जिद, चूना मंडी की सरदारी जी की दुकान से हमारे घर की अलमारी में रखे उस पीले लिफ़ाफ़े तक। इतनी सारी फोटुएँ इतनी जल्दी खत्म भी नहीं होती। इस बार नहीं हुआ, तब अगली बार फ़िर भरते हुए। एक फ़ॉर्म से दूसरे फ़ॉर्म तक। हम ऐसे ही इन्हें सबसे ज़्यादा जानते हैं। मैं उन सारी तसवीरों को एक साथ यहाँ देखना चाहता हूँ। पर अभी सिर्फ़ एक दिख रही है। यह शर्ट मार्च चौदह में ख़रीदी थी। सोचा था, शादी के बाद कहीं घूमने जाएँगे, तब इसे पहनुंगा। करोल बाग से ली इस शर्ट के साथ दो कमीज़ें और थीं। वह भी इसी इरादे के साथ ली थी। पर जैसे बहुत सारी बातें मेरे मन मुताबिक नहीं हुईं, वैसे ही हम दिल्ली लौटे पर कहीं घूमने नहीं जा पाये। यह तीनों कमीज़ें किसी बक्से में तब से पड़ी रहीं। अटैची भी हो सकती है। याद नहीं आ रहा, कहाँ रख दिया था। अभी पिछले साल गाँव गए। तब पता नहीं कहाँ से यह कमीज़ें बाहर आ गईं। यह बात अक्सर मेरे

आगरा बेकार

चित्र
इस बीतती रात जब पापा के खर्राटों के बीच जल रही एक ट्यूबलाइट में कुछ ऐसे ही ख़यालों में डूब रहा हूँ, तब मुझे न जाने कैसे उस शहर के वह दोनों लोग दिख गए। वह हमारे सामने अपने शहर को कतई खुलने नहीं देना चाहते। हम भूख से एकदम छटपटा रहे थे, जब हमने उस ऑटो वाले से एक ठीक-ठाक खाने की जगह पूछी। वह पता नहीं क्या सोच कर एक जगह ले आया। खाना एकदम बेस्वाद था। दाल में ही थोड़ी सी वह जगह बची रह गयी थी, जिसमें हमें डूब मरना था। पर बच गए। वह कमीशन के मारे हमें वहाँ ले आया होगा। वरना खीरा बेचने वाली अम्मा ने बिजलीघर चले जाने को कहा था। कहा था, वहाँ बढ़िया खाना मिल जाएगा। मैं इस शहर को उस तांगेवान से भी नहीं जोड़ना चाहता। जब हफ्ता भर पहले वहाँ से लौटा, तब सोचता था, इनके लिए अपशब्दों से अपनी बात शुरू करूंगा। पर ठहर कर लगता है, वह उस शहर में जिंदा रहने की जद्दोजहद में इस युक्ति को अपना रहे हैं। वह ख़ुद को इन दुकानों पर बेच रहे हैं । उनके लिए एक ही रटी-रटाई लाइन है। यहाँ पंछी पेठे की बारह दुकाने हैं। हम बताएँगे बाबू जी, कौन सी असली वाली है। दूसरी में वह चमड़े का सामान बेच रहे होते हैं। पीछे कारख़ाना है, आग