न कहना

मैं कभी नहीं कहता मुझे किसी से मिलना है। मैं कभी नहीं कह पाऊँगा। यह दोनों बातें जितनी अलग दिखती हैं, उससे ज़्यादा यह मेरे भीतर गहरी धँसी हुई हैं। हम विपरीत ध्रुवों पर खुद को रच रहे होते हैं। इसे गढ़ते हुए यह पंक्ति हर उस पढ़ने वाले के अंदर घटित हो सकती है, जिससे मैं इधर कई दिन हुई नहीं मिला होऊंगा। समान रूप से दूसरी तरफ भी यही भाव जब इस तासीर में घुल जाएगा, तब देखना चाहता हूँ, वह सब कैसे होते जाएँगे? इस न कहने और मिलने के बीच जो जगह है, उसी के आस पास खुद को बनता हुआ देखता हूँ। वह सब भी जो मुझ से मिलना चाहते होंगे, मुझ से मिलने, कुछ देर बात करने, बहुत सारे दिन मेरे साथ रहने की इच्छा से भर गए होंगे, वह भी मेरी तरह उस दूसरे व्यक्ति को कुछ भी नहीं बता रहे हैं। यह अजीब किस्म का चुप्पापन कुछ ऐसी गंध छोड़ रहा है, जिसे मैं अपने इर्द-गिर्द महसूस कर रहा हूँ। इसमें अजीब से खालीपन के बाद उपजा कुछ है, जिसे देख पाना संभव नहीं है। वह इन पंक्तियों में ही कोई आकार ले रहा होगा। वह किस शक्ल का होगा, मुझे नहीं पता। पर इतना है वह इन पंक्तियों में अनदेखा नहीं रह जाएगा। कई अनदेखी चीज़ें ऐसे ही नज़र आ जाती हैं। मुझे भी कई दिनों से कुछ नज़र नहीं आ रहा, इसलिए इस तरह अपनी बात कह रहा हूँ। कह देने से एक और बात है, जो पानी वाले आईने की तरह साफ हो जानी चाहिए कि जो मुझे अपनी इच्छाएं नहीं बता रहे हैं, मुझे उनकी इच्छाओं का इल्म है। मैं जानता हूँ, वह अपने अंदर किन भावों से भर जाते हैं। पर किसी या कई सारी वजहों से कह नहीं पाते।

ख़ुद भी मैं कइयों के लिए ऐसा होता जा रहा हूँ। इच्छाओं का इस तरह होते जाना एक तरह के दबाव, आकर्षण, प्रेम, स्पर्श, सहचर्य, अनिच्छा और पता नहीं किन-किन भावों के बीच बन रहा होगा। मैं जिन-जिन लोगों से मिल नहीं पाता या वह मुझसे मिल नहीं पाते, यह कोई कहने वाली बात नहीं है। कहने वाली बात है, इस इच्छा का दोनों तरफ बने रहना। इन इच्छाओं के बने रहने की कई वजहें हो सकती हैं। जितनी वजहें होंगी, उनके उतने तफ़सरे होंगे। जिनमें से कुछ बिना स्पष्टीकरण के हम दोनों, या हम दोनों से ज़्यादा हम सबमें बने हुए होंगे। इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं कहना चाहता। ऐसा नहीं है। पर मेरी भी सीमाएं हैं। मैं जितना विचारों में खुला हुआ लगता हूँ, उतना ही व्यवहार में अपने ऊपर बन्दिशों को महसूस करते रहना चाहता हूँ। कई मुझे इसलिए ख़ारिज कर देने की इच्छा से भर भी जाएँगे। मेरी बुनावट में यह एक फाँक की तरह भी लग सकता है।  मेरे लिए अपने से यह ईमानदारी सांस से भी ज़्यादा ज़रूरी है। क्योंकि एक दिन साँसे नहीं होंगी, इन दिनों की स्मृतियाँ होंगी। मैं उन स्मृतियों में बने रहना चाहता हूँ। बने रहने का एक तरीका मुझे यही लगता है। ख़ुद को सीमाओं में बाँधे रहना। दूसरे की सीमाओं को इस तरह बचा ले जाना।

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