मोहन राकेश की डायरी
कोई किसी किताब का कितना इंतज़ार कर सकता है, कह नहीं सकता। मेरा यह अनुभव अभी तक सिर्फ मुझतक सीमित है। मोहन राकेश को मैंने उनके नाटकों से नहीं जाना। उनकी डायरी से मिलकर मुझे लगा, यही वह व्यक्ति है जो मुझे, मुझसे मिलवा सकता है। यह बात रही होगी ग्रेजुएशन के खत्म होने वाले साल की। तब व्यवस्थित तरीके से लिखना शुरू नहीं किया था। कुछ भी नहीं। डायरी की शक्ल में तो बिलकुल भी नहीं। मोहन राकेश की डायरी ने बताया, लिखना सिर्फ लिखना नहीं होता।
मैं सोचता, अगर यह डायरी अपने पास रखने के लिए मिल जाये, तो क्या बात होती। यह कोरी भावुकता में लिपटी हुई व्यक्तिगत इच्छा नहीं है। बस कुछ था, जो ऐसा लगता रहा। साल बीते हम एमए में आ गए। एमए खत्म हो गया। मोहन राकेश का नाटक 'आधे-अधूरे' पढ़कर लगता रहा डायरी में इसके हवाले ज़रूर होंगे। पर कुछ कर नहीं पाया। कुछ करना था ही नहीं। छात्र अक्सर कुछ कर भी कहाँ पाते हैं? सब कहते 'आपका बंटी' मोहन राकेश के पारिवारिक ज़िंदगी की कहानी है। उसमें जो बंटी है, वही उनका बेटा है। मैं ऐसा कहते हुए कोई नयी बात नहीं कह रहा। बस उन बातों को अपने अंदर फिर से दोहरा लेना चाहता हूँ। मैंने जब अपने ब्लॉग पर साल दो हज़ार तेरह में इस डायरी पर एक पोस्ट लिखी, तब उसे 'दैनिक हिंदुस्तान' ने अपने यहाँ छापा। इस बीच मैं दो-दो बार ऑनलाइन बुक स्टोर से यह डायरी मँगवा चुका था। दोनों बार ऑर्डर कैंसिल हो गया। जवाब आया, 'आउट ऑफ स्टॉक'।
लोथीयान रोड से 'राजपाल एक संस' का शोरूम अब मदरसा रोड गए कई साल बीत चुके हैं। मैं कभी वहाँ जा नहीं पाया। इन सालों में जब भी 'बुक फेयर' जाता, उनके स्टॉल पर पूछता। वह अपना एक ही जवाब दोहराते। किताब उपलब्ध नहीं है। इस किताब का मेरे पास होना क्यों ज़रूरी है(?) शायद इस तात्कालिकता में उसका कोई स्पष्ट उत्तर मेरे पास न हो। शायद हर पाठक अपनी तरह की किताबों तक पहुँच जाने के लिए छटपटाता है। मैं अभी बस इसे इसी तरह अपने अंदर देख पा रहा था। इस न देख पाने को कभी न कभी हम सब अपने अंदर ज़रूर महसूस करते होंगे।
शनिवार उन्नीस अगस्त, मुझे लखनऊ होना नहीं था। पर मैं था। अभी पिछले दिन ही बीस घंटे रेल में अकेले सफर करने के बाद तुरंत यहाँ के लिए निकलने का मन तो नहीं था, पर गाड़ी देर रात साढ़े ग्यारह बजे है इसलिए मन को मना लिया। सिर्फ़ एक दिन मुझे यहाँ रहना है, यही सोचता रहा। इस शहर से बहुत सीमित रूप से परिचित हूँ। पता नहीं कैसे शाहनजफ़ के इमामबाड़े से होते हुए 'ब्रिटिश रेसिडेंसी' जाने का मन दिल्ली में ही बना चुका था। मैं रिक्शे पर था। रेसिडेंसी की तरफ जा रहा था। इमामबाड़े के पास मोती महल मैदान है। तब इसके सामने से गुज़रते हुए मुझे इसका नाम भी नहीं पता था। वापसी में किसी बाबा से पूछा तो पता चला। इसी मैदान में राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा हुआ था। कोई प्रवेश शुल्क नहीं था।
शनिवार उन्नीस अगस्त, मुझे लखनऊ होना नहीं था। पर मैं था। अभी पिछले दिन ही बीस घंटे रेल में अकेले सफर करने के बाद तुरंत यहाँ के लिए निकलने का मन तो नहीं था, पर गाड़ी देर रात साढ़े ग्यारह बजे है इसलिए मन को मना लिया। सिर्फ़ एक दिन मुझे यहाँ रहना है, यही सोचता रहा। इस शहर से बहुत सीमित रूप से परिचित हूँ। पता नहीं कैसे शाहनजफ़ के इमामबाड़े से होते हुए 'ब्रिटिश रेसिडेंसी' जाने का मन दिल्ली में ही बना चुका था। मैं रिक्शे पर था। रेसिडेंसी की तरफ जा रहा था। इमामबाड़े के पास मोती महल मैदान है। तब इसके सामने से गुज़रते हुए मुझे इसका नाम भी नहीं पता था। वापसी में किसी बाबा से पूछा तो पता चला। इसी मैदान में राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा हुआ था। कोई प्रवेश शुल्क नहीं था।
मैं बस यह सोच उसके आगे से गुज़र गया कि अभी वापस लौटते हुए इसे भी देख लूँगा। देखना उन किताबों के लिए आगे लोगों को था। किताबें नहीं खरीदनी थी।
करीब साढ़े चार बजे वापस लौट कर मेले में पहुँचा। दिल्ली के चार बड़े प्रकाशक वहाँ उपस्थित थे। मैं किसी जल्दी में नहीं था। 'राजपाल एंड संस' के स्टॉल पर देवदत्त पटनायक की किताबों को देखते हुए बिल काउंटर पर पहुँचा। पता नहीं मेरे मन में क्या आया? पूछ लिया। 'मोहन राकेश की डायरी' नहीं छापी अभी तक आपने? मेरा इतना कहना था, वह बोले, वह देखिये, पीछे ही रखी हुई है। मुझे उम्मीद नहीं थी, बारह साल के इंतज़ार के बाद मैं उस डायरी को नए संस्करण में देख पाऊँगा। उस पर पिछली डायरी की तस्वीर छपी हुई है। मोहन राकेश सिगार पीते हुए।
Mein bhi kafi time se is book ko dhoondh rahi hu. Please batayein Delhi mein Kahan milegi.
जवाब देंहटाएंयह राजपाल एंड संस से 1985 के बाद पिछले साल 2017 में में प्रकाशित हुई है । आप इन्हें 'राजपाल' की वैबसाइट www. rajpalpublishing.com से या अगर आप '1590, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट दिल्ली 110006' जा सकें तो व्यक्तिगत रूप से प्रकाशक से खरीद सकती हैं ।
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