कभी कभी
कभी-कभी सोचता हूँ, यहाँ पर आकर भी उन्हीं सब बातों को कहने का कोई मतलब नहीं, जिनसे बचने के लिए पहली जगह से चला आया था. सब वैसा ही है. कुछ भी नहीं बदला. उसे अपने आप बदल जाना था, ऐसा नहीं कह रहा. पर जब यहाँ शुरू किया था, तब बहुत सचेत था. एक-एक पोस्ट मेहनत से लिखा करता. मेहनत अभी भी लगती है. वक़्त अभी भी खर्च होता है. लेकिन साल बीता और लगा सब बिखर गया. बिखर जाना, यकायक नहीं है. यह उसी तरह है, जैसे कोई बगुला हो और तूफ़ान को देखकर रेत में सिर घुसाए रहे. कब तक ऐसा किया जा सकता है, इसकी कोई निश्चित समयावधि नहीं है. बस उसे बिखर जाना था. अब लिखने का धैर्य नहीं रहा. हड़बड़ाहट साफ़ दिख जाती है. अभी लिखे मिनट भर नहीं होता कि कहीं कोई आकर पढ़ ले. देख ले, इसी दुनिया में मेरे जैसा व्यक्ति भी रह रहा है. वह किसी से कुछ कहने की जिद से भरा है. कब तक भरा रह पायेगा, कहा नहीं जा सकता. शायद उसे ऐसी ही नहीं कहा जाता होगा. पूजा, तुम भी अब पहले की तरह क्यों नहीं लिखती? किताब के बाद जिस तरह से तुमने ख़ुद को बदला है, वह मन का नहीं है. शायद वह तुम्हारे मन का भी नहीं है. सच कह रहा हूँ न? लगता तो यही है. हर बार तुम्