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मार्च, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कभी कभी

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कभी-कभी सोचता हूँ, यहाँ पर आकर भी उन्हीं सब बातों को कहने का कोई मतलब नहीं, जिनसे बचने के लिए पहली जगह से चला आया था. सब वैसा ही है. कुछ भी नहीं बदला. उसे अपने आप बदल जाना था, ऐसा नहीं कह रहा. पर जब यहाँ शुरू किया था, तब बहुत सचेत था. एक-एक पोस्ट मेहनत से लिखा करता. मेहनत अभी भी लगती है. वक़्त अभी भी खर्च होता है. लेकिन साल बीता और लगा सब बिखर गया. बिखर जाना, यकायक नहीं है. यह उसी तरह है, जैसे कोई बगुला हो और तूफ़ान को देखकर रेत में सिर घुसाए रहे. कब तक ऐसा किया जा सकता है, इसकी कोई निश्चित समयावधि नहीं है. बस उसे बिखर जाना था. अब लिखने का धैर्य नहीं रहा. हड़बड़ाहट साफ़ दिख जाती है. अभी लिखे मिनट भर नहीं होता कि कहीं कोई आकर पढ़ ले. देख ले, इसी दुनिया में मेरे जैसा व्यक्ति भी रह रहा है. वह किसी से कुछ कहने की जिद से भरा है. कब तक भरा रह पायेगा, कहा नहीं जा सकता. शायद उसे ऐसी ही नहीं कहा जाता होगा. पूजा, तुम भी अब पहले की तरह क्यों नहीं लिखती? किताब के बाद जिस तरह से तुमने ख़ुद को बदला है, वह मन का नहीं है. शायद वह तुम्हारे मन का भी नहीं है. सच कह रहा हूँ न? लगता तो यही है. हर बार तुम्

किसी किस्से में

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कभी-कभी तो लगता है, जैसे मैं किसी किस्से में हूँ और यह किस्सा किसी को सुना रहा हूँ. फर्क नहीं पड़ता जिसे सुनाया जा रहा है, वह यह किस्सा सुनने में कितना मशगुल है? फ़र्क पड़ता है, मेरे ऐसे हो जाने से. कहीं कोई ऐसा बेखयाल भी मेरे अन्दर है, जहाँ मैं असल में नहीं हूँ. ऐसा सोचना किसी सपने से कम भले न दिख रहा हो, पर यह कहीं और होना मेरे लिए ठीक नहीं है. इसकी परतों में कई ऐसे पेंच हैं, जो मेरी ज़िन्दगी के नाकाबिले बर्दाश्त पलों से भर जाने का एहसास इस कदर तारी हैं कि अब तो लगता है, किसी भी पल यह ख्वाब टूट जाएगा और मैं ख़ुद को कहीं दूर अपने बिस्तर पर आँख मलते हुए अलसाया हुआ सुबह के सूरज के अपनी खिड़की से बीत जाने को सोचकर भी वहीं पड़ा हुआ मिलूँगा.लेकिन ऐसा होता नहीं है. आज तक नहीं हुआ. मैं इस हिस्से के ख़त्म होने का कितनी शिद्दत से इंतज़ार कर रहा हूँ, बता नहीं सकता. सोचता हूँ, ऐसा कब होता होगा? क्यों कोई इस तरह हो जाता होगा? इसकी एक वजह ऊपर है. पर वह काफी नहीं है. यह समझने के लिए किस तरह ख़ुद में डूबते हुए सब कहना पड़ता है, किसी को इसकी कोई टोह भी न लगने देना, किसी माहिर का काम है. मुझे ऐसा माहिर ह

पानी जैसे जानना

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कोई क्षण होता होगा, जब हम अपने से बाहर किसी व्यक्ति को जानने की इच्छा से भर जाते होंगे. यह इच्छा हम सबमें सामान रूप से पायी जाती है. पाए जाने का यह अर्थ नहीं हम हमेशा इस इच्छा से भरे रहते हैं. कहा न, कुछ क्षण होते हैं, जो उस ओर ढकेलते हैं. यह जान लेने की कामना हमारी जिज्ञासा नहीं है. यह ख़ुद से बाहर देखना है. उन तालाबों का बादलों से भर जाना है, जो सूख रहे हैं. तालाब बादलों को बुलाते हैं. जैसे एक तालाब हुआ ताल कटोरा. यह आपसी सम्बन्ध किसी व्यक्ति के प्रति अपने आकर्षण से भी उत्पन्न हो सकता है. आकर्षण पानी है. पानी जैसा गुण उसे ग्राह्य बनता है. यह ग्रहण कर पाने की क्षमता ही पानी को मूल्यवान बनती है. हमें पानी बन जाना चाहिए. सब हमारी इच्छा से भर जाएँ. तब हमें पल भर रूककर ख़याल करना होगा, उसमें ऐसा क्या है, जो उसे वैसा बनाता है.  सिर्फ़ जितना हमें दिख रहा है, कोई सिर्फ़ उतना ही नहीं होगा. पानी भी वाष्प बनने के बाद दिखता कहाँ हैं? लेकिन क्या वह कहीं नहीं होता? नहीं. शायद भूगोल या मौसम विज्ञान जैसे अनुशासनों से पहले यह हम सब जानते हैं. भाप क्या है? भाप क्या कर सकता है? भाप ही जीवन है. 

चले जाना

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वह चले गए. ऐसे जैसे कभी यहाँ थे ही नहीं. किसी से कुछ नहीं बोले. ऐसा नहीं है, किसी से बोलने का मन नहीं हुआ होगा, पर क्या बोलते? जो वह कहते, हम उसे कर नहीं पाते. शायद इसलिए बिन बोले चले गए. चले जाना हमेशा के लिए चले जाना नहीं है. वह स्मृति की तरह किसी आम के पेड़ की बौर की तरह हर साल वापस आना है. पर याद के पेड़ों पर साल, साल भर जितने बड़े नहीं होते. वह हर रात लौट आते हैं. उनका हर पल लौट-लौट आना उनकी अनगिनत आवृत्तियों को बताता है. यह गणित के विशेषज्ञों की गणना से परे की बात है. उनके कल रात चले जाने के बाद भी वह जगह अभी भी किसी के होने के निशान छोड़ रही होगी. कई दिनों तक हाथ में लगे रंगों की तरह छूटती रहेगी. वह भी अपने हिस्से की कई यादों को यहाँ बिखरा हुआ छोड़ गए होंगे. उन्होंने ऐसा जानबूझकर नहीं किया होगा. वह यहाँ ख़ुद छूट गए होंगे. किसी कोने में अभी ख़ुद खड़े होंगे. वह ब्रश जो वह नहीं ले गए. उन दो बोतलों पर उनमें से किस किस के निशान होंगे. उस दरवाज़े को आख़िरी बार छूकर कौन कौन गया होगा? स्पर्श की अपनी स्मृतियों में उस लोहे का दरवाज़ा जिस सीमा का निर्माण कर रहा था, उसे अतिक्रमित करते हुए वह च

बेरंग बसंत

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यह हिस्सा भले बसंत के हिस्से से यहाँ तक आया हो पर इसमें कुछ भी वैसा नहीं है. रंग तो जैसे उड़ गए हों. पीपल के पेड़ एक दम नंगे खड़े हैं. आम का पेड़ दो साल में एक बार बौर से भर जाता है. इस बार भी भर गया है. आगे कितने सालों तक ऐसा हो पायेगा, कहा नहीं जा सकता. उसकी जड़ें कंक्रीट से घिर चुकी हैं. यह बहुत साल पहले की बात है. अब इस साल तो वह कटने से बच गया, इसी की खैर मना रहा होगा. दुःख का रंग नहीं होता वह बेरंग होता है. यह महिना ही कुछ ऐसा है.  वह जब अपना सामान बांध रहे होंगे और उन्हें पता है, कभी वापस लौट पाना नहीं होगा, उनके मनों में यह वासंती हवा किस तरह हिलोरे मार रही होगी. उनकी आँखें शांत हैं. वह कुछ बोलते भी हैं, तो लगता है, जैसे झूठ बोल रहे हों. जहाँ जीवन के सबसे खुशनुमा साल बिताये हों, वहाँ से अचानक जाने के सवाल को वह सुलझा लेने की कोशिश कर रहे हैं. उनके हिस्से कुल एक कमरा था. एक ऐबस्टस की टीन थी. दिन थे गुज़र रहे थे. वही दिन साल भी बने होंगे और इतनी जमा पूँजी में कितनी ही यादें सबने अपनी जेबों में भर-भर रख ली होंगी.  जा वह रहे हैं. सिर्फ़ कमरा खाली नहीं हो रहा, खाली हम सब हो

रात

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रात जाने के लिए ही क्यों होती है? सब रात को ही क्यों जाते हैं? क्या वह उन जगहों को रात में कम देख पायें इसलिए वक़्त के उन क्षणों में से ख़ास तौर पर चुनते हैं? कुछ समझ नहीं आता. उन्होंने भी रात को चुना. अँधेरा. सब अपने में छिपा ले जाने वाला. उतना ही दिखता है, जितना दिख सकता है. जब मुझे पता चला, वह आज रात जा रहे हैं, सामने आने की हिम्मत नहीं हुई. हिम्मत गलत शब्द है, शायद इसे साहस जैसे किसी अन्य पर्यायवाची से बदला जाना चाहिए. मैं उनका सामना नहीं करना चाहता था. फ़िर भी कमरे से बाहर निकल गया. उसने मुझे देखते ही बुला लिया. वह मुझसे कुछ छोटा है. फ़िर भी बुला लिया. मैं उनमें से हूँ जो उनकी संगत से हमेशा गायब रहता. फ़िर भी उसने बुलाया और चला आया. रात के बारह बज रहे थे. फ़्रिज सबसे पहले इस दो मंजिले से नीचे ले जाना था. डबल डोर. आदमकद. हम पांच लोग उन संकरी सी सीढ़ियों के बीच उसे नीचे ले जाने की कोशिश में लगे थे. वह शायद उनकी तरह जाने से मना कर रहा था. दो बार उन मोड़ों पर मुड़ नहीं रहा था. कैसे उसे वहीं हवा में नहीं छोड़ सकते, यह पता चलता रहा. धीरे धीरे ठण्ड चाँद से धरती पर पहुँचती रही. तीन बज चुके थ

मिलान करना

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यह बात डायरी में क्यों नहीं लिख रहा हूँ, मुझे नहीं पता. वह मेरा कोई ख़ास दोस्त नहीं है. बस दोस्त है. जिसे कभी हमराज़ बनाने की सोचा भी नहीं. वक़्त के उन लम्हों में हम शायद उन्हें अपनी सारी बातें नहीं बता पाते जो हमें बहुत पहले से जानते हों. यह लड़के और लड़की दोनों पर सामान रूप से लागू होता है. उनके इन दोनों में से कुछ भी होने से फ़र्क नहीं पड़ता. फ़र्क पड़ता है, उनके हमारे इतने पास होने से. यहाँ यह निकटता बचपन से साथ रहने के कारण आई लगती है. हम सब एक कम्फर्ट ज़ोन चाहते हैं. हम जिससे कहें, वह उन सूचना का चाहकर भी कुछ नहीं कर पाए. अगर वह कुछ करना भी चाहे, तो वह उसे हमारे अहित में इस्तेमाल नहीं कर पाएगा.  वैसे आज जो बात कहने जा रहा हूँ उसमें इन ऊपर कही गयी किसी बात से सीधा ताल्लुक नहीं है. मुझे तो यहाँ तक लगता है, मुझे यह सब बातें कहनी भी चाहिए थी या नहीं. खैर, अब कह दिया हैं तो ज़्यादा सोचूँगा नहीं. कभी ऐसा भी होना चाहिए. ख़ुद न पता चले किस सिरे से शुरू हुए थे और अगला सिरा कहाँ जाएगा. खैर. कोई बात नहीं. उसकी शादी लगभग तय है. जिससे होने जा रही है, वह उससे मिलने गया. वहाँ से उसने तस्वीर लगा

इच्छा

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इच्छा हमारे अन्दर पानी की तरह रिसती हैं. जैसे हम कोई मिट्टी का ढेला हों और हम पर नन्हा सा बादल आकर बरस पड़े. हम हमेशा इन्ही से भरे रहना चाहते हैं. कुछ केंचुए सपने की तरह इन इच्छाओं की मिट्टी में उमड़ते-घुमड़ते इन्हें और उपजाऊ करने की गरज से चले आते होंगे. अगर गणित की तरह हम इच्छा को सपनों की तरह अवास्तविक मान रहे हैं, तब हमारा सारा गणित धरा का धरा रह जाता है. हम जो बिन नौकरी वाले लड़के होते होंगे, अन्दर-ही-अन्दर ख़ूब कुढ़ते होंगे. कह तो पाते नहीं होंगे, क्या सब अन्दर चल रहा है. फर्क भी किसे पड़ता है? कोई सुनने वाला नहीं होता. इस पर अगर शादी हो जाये तब तो सोने पर सुहागा की तरह कोई वक्रोक्ति खोजनी होगी. कोई ऐसी बात जो इसका बिलकुल उल्टा अर्थ देती हो. कोढ़ में खाज कहना थोड़ा अमानवीय है. अमानवीय तो ऐसे लड़कों का कुछ सोचना भी है. सोचना इस बात का सूचक है, दिमाग चल रहा है. जबकि उसे काम करना बंद कर देना चाहिए. वह काम करके भी क्या करेगा. उसके मुताबिक होना तो कुछ है नहीं. कभी-कभी तो लगता है, ऐसे लड़कों को सपने देखने के ख़ुद को रोक लेना चाहिए. यह अकल्पनीय है. पर हम कोशिश किये बिना ऐसा कैसे कह सकते हैं

कैमरा

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कभी-कभी हम स्मृतियों के हिस्सों को हमेशा अपने साथ रखना चाहते हैं. यह एक क़िस्म का लालच है. तृष्णा है. जो कभी पूरी भी हो सकती है, इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता. हम सब इन्हीं क़िस्म की छोटी-छोटी इच्छाओं से भरे हुए होते हैं. मैं भी इन इन्हीं न दिखने वाली इच्छाओं से भरा हुआ हूँ. यह शादी के साल की बात है. उससे एक महीने पहले. मार्च ही चल रहा होगा. दिन भी ऐसे होंगे. तब सर्दियाँ अप्रैल तक गाँव की छत पर थीं. उनमें सीत भी थी और अजीब क़िस्म की हरारत भी. आम तौर पर ऐसा होता नहीं है. पर उस बरस ऐसा ही था. पुराना कैमरा सही नहीं था. नया लेना था. सोचता रहा, कब लूँगा. दिल्ली से उसी इतवार निकलना था. मैं जाकर कैमरा ख़रीद रहा था. उन दिनों की स्मृतियाँ अभी भी सपने से कम नहीं हैं. हम सबके दिल में शादी अगर सपने से निकल आया एक सपना है तो उसके बाद के दिनों की कल्पना सपनों की महक से कुछ कम नहीं होगी. उन्हीं दिनों की बात रही होगी. सोचता रहा, इसी नए कैमरे से कहीं घूमने जायेंगे, तब यही हम दोनों की साथ-साथ पहली तस्वीरें खींचेगा. कहाँ जायंगे, यह तय नहीं था. कहीं जायेंगे, यह पता था. शादी में सारी तस्वीरें इसी से खींची ग

कैसा होना?

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वह अन्दर से भरा हुआ है. आने वाला कल उसमें भर रहा है. कल एक सपना है. वह उसी कल की कल्पनाओं में खो गया है. वह बता नहीं रहा है. वह चींटी की तरह अपनी महक छोड़ रहा है. हमें बस चींटी बनकर उन गंधों के सहारे उसकी अनकही बातों को समझने की कोशिश में जुट जाना है. ऐसा नहीं है, वह बता नहीं सकता. वह वही कर रहा है, जो कभी हमने भी किया होगा. वह वैसे भी सब न बताते हुए भी सब बता चुका है. जो वह शब्दों में नहीं कह पाया है, वह सब आने वाली गर्मियां कह देंगी. यह पहली बात नहीं है, जो उसने हमें नहीं बताई है. उसने अपनी नौकरी वाली बात नहीं बताई. कल कोई अप्रैल आएगा. तब उसकी शादी का कार्ड भी आ जायेगा. हम उसे देखेंगे. पढ़कर कुर्सी या मेज़ जहाँ जगह होगी, रख देंगे. हम बचपन से साथ हैं, यह बात अब नहीं दोहराई जानी चाहिए. यह अब दुहाई देने जैसा लगने लगता है. इसके लिए उसे कुछ नहीं कह रहा. अपने अन्दर इसी वजहें खोज रहा हूँ. यह नहीं कह सकता बगल में रहते हैं तो हमें सब बातें पता होनी चाहिए. निजता जैसे आधुनिक मूल्य के मद्देनज़र उससे कुछ पूछ नहीं रहा. बस थोड़ा सा टूटने की कोशिश में यह सब दर्ज़ किये चल रहा हूँ. किसे फ़रक पड़ता है,

डायरी

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मैं एक प्रस्ताव रखना चाहता हूँ. पता नहीं इसे कहाँ रख रहा हूँ. पर चाहता यही हूँ. इसे कहीं रख ही देना चाहिए. आसमान जैसे बरफ के टुकड़े भेजता है, मैं भी अपनी हर अनकही बात को कहीं भेजना चाहता हूँ. उसे कहीं ऐसी जगह पहुँचा पाऊं, जहाँ से वह सबको दिख जाया करे. तारों की तरह नहीं. या शायद उनकी तरह. वह कई प्रकाश वर्ष पहले अपनी जगह से चल पड़ते हैं. हमारी आँखों तक पहुँचने से बहुत पहले. वह झिलमिलाते हुए लगते हैं. असल में वह कणों के बीच से गुज़रती उनकी कोई किरण ही हुआ करती होगी. यह तारें भी उलझा ले जाते हैं. बात चल रही थी, किसी पटल पर अपने इस प्रस्ताव के बारे में. जिसके बारे में मैंने अभी तक एक पंक्ति भी नहीं कही है. तो मियाँ सामिन अली, ज़रा ध्यान से सुनियेगा. दोबारा नहीं दोहराया जाएगा. हम जो इस समय में हैं, जबकि हमें लगता है, हम समय में हैं, हम कई ऐसी जगहों से गुज़रते हैं, जहाँ पहुँचने से काफ़ी पहले हम चले होते हैं. हम तारें नहीं हैं. फ़िर भी पहुँचते ज़रूर हैं. दिन भर लैपटॉप खोले किसी-किसी जगह हाज़िरी बजाते. किसी की तस्वीर को देखते. किसी बात पर वाह करते. कहीं से आई किसी की चिट्ठी पर अपने मन की कहते. यह

परिवर्तनकामी शिक्षा का मिथक

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समाज में एक वर्ग ऐसा भी होगा, जो कहता होगा, शिक्षा उत्पीड़न से मुक्ति देगी. वह शिक्षा को सुन्दर सपने की तरह देखते होंगे और मुक्ति की एकमात्र युक्ति इसे मानते होंगे. मैं यहाँ ठहर कर कुछ देर सोचना चाहता हूँ. उनका शिक्षा से क्या तात्पर्य है? क्या वह समाज के दमित, उत्पीड़ित, वंचित समुदायों के इस औपचारिक शिक्षा से गुज़र जाने की बात कर रहे हैं? वह उन्हें किन कौशलों से युक्त होता देखना चाहते हैं? क्या शिक्षा उनकी वर्तमान विषम परिस्थिति से पर्दा उठाने के लिए पर्याप्त है? हमने इस शिक्षा के ढांचे और शिक्षा से इतनी सारी अपेक्षाएं क्यों बांध रखी हैं, समझ नहीं आता. पंद्रह दिन से जिस जगह पर हूँ, वहाँ शिक्षा की सरकारी योजनायें अपने लाव लश्कर के साथ उपस्थित हैं. गाँव में ही कक्षा आठवीं तक सरकारी विद्यालय है. मध्याहन भोजन की समुचित व्यवस्था ग्राम प्रधान की निगरानी में सुचारू रुप से चल रही है. वर्दी आती है, बंट जाती है. सत्र शुरू होने पर किताबें आती हैं, वह भी वितरित हो जाती हैं. पर जितने बच्चे उन कमरों में नहीं हैं, उससे ज्यादा वह उन गलियों, घरों में, बाहर अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं. उनकी पढने

दिल्ली, मौसम और धड़कन

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कभी-कभी यही समझ नहीं आता, हम दिल्ली जैसे शहर में रह कैसे रहे हैं? कोई भी तो नहीं जो इन कमरों के बाहर दिख जाये. सब अपने गुरुर में कमर झुकाए जिए जा रहे हैं. यहाँ की हवाओं में ही बेगानापन इस कदर घुल गया लगता है, जैसे हम उसी के इर्दगिर्द हवा की तरह पोसते रहते हैं. मन नहीं होता, यहाँ रहा जाये. पर क्या करें, पढ़ लिख गए हैं तो सोचते हैं, इस पढ़ाई के बाद एक कमाने वाली नौकरी लग जाये. मतलब, आप जब तक कहीं मातहत नहीं होते, यहाँ लोग किसी क़ाबिल भी नहीं समझते. पैसा तभी मिलेगा, जब नौकरी मिलेगी. ज़िन्दगी जीने के लिए हवा ज़रूरी है या कहीं दफ़्तर में जूते-चप्पल घिसने की एवज में मिलने वाली एकमुश्त रकम? कभी समझ नहीं पाता. समझ न आना शायद हम सबकी चालाकी है. इससे चीज़ें छुपी रहती है. छुपी रहती हैं, इसलिए दिखाई नहीं देती. दिखाई देने लगेंगी, तब चुभने लगेंगी. इसलिए अच्छा है, उनका छिपा रहना. जिन्होंने उसे देख लिए है, वह मेरी तरह इसे कहीं और न लिख दें, इसकी ज़िम्मेदारी आपके ऊपर है. इस मौसम में ऐसे ख़याल ही आते हैं, ऐसा नहीं है. पेड़ों से पत्ते झर रहे हैं. पीले पीले पीपल के पत्ते अभी नीचे नल के आस पास बिखरे पड़े थे. पक