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थूक वाली ऊँगली

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वह कौन लोग हैं और उनकी पहचान कैसे की जा सकती है, जो ऊँगली में थूक लगाकर किताब के पन्ने पलटते हैं? मैं एक को जानता हूँ. आज ही मुलाक़ात हुई है. जानना सिर्फ़ इस बात का है कि उसने मेरी किताब के पन्नों को इस तरह पलटा. उसके पास इसके अलावे और कोई ख़याल क्यों नहीं आया, कहा नहीं जा सकता. पर जितनी तन्मयता के साथ वह किताब पढ़ रहा था, उससे यह बिलकुल भी जज नहीं किया जा सकता कि किताबों को लेकर वह असल में क्या सोचता है? मैं भी कोई फ़िज़ूल दिमाग लगाने वाला नहीं हूँ. बस थोड़ा सोचने लगा. वह ऐसा क्यों कर रहा होगा? शायद किसी ने उसे कभी टोका नहीं होगा. अगर मैं उसके ऐसा करने पर यहाँ बैठकर लिखने बैठ गया हूँ शायद यह एक तरह का टोकना ही होगा. कहीं न कहीं मेरे अन्दर यह बात घर कर गयी होगी के किताबों को थूक वाली ऊँगली से नहीं पलटना चाहिए. इस तरह हम दो अलग-अलग लोग हैं. अगल-बगल बैठे थे. ऐसे लोग ट्रेन, बस, मेट्रो में अकसर मिल जाते हैं, जो कभी किताब तक नहीं पहुँचे होंगे. हो सकता है, उनके लिए किताबें आज तक पढ़ी जाने वाली चीज़ बनकर रह गयी हों. उनके लिए किताबें ख़रीदे जाने वाली इकाई में तब्दील होते-होते पता नहीं कितना और वक़्त

सुन्दर क्या है?

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यह दोतरफा है. हम सबका किन्हीं मुलायम हाथों की मुलायम उँगलियों को महसूस करने के लिए उस मुलायम वक़्त का इंतज़ार. बार-बार कहने पर भी बाहर आने का नाम न लेती लड़की का इतराना. उस हॉस्टल के बाहर सवा घंटे से पेड़ के तने से सटे हुए लड़कों का इंतज़ार. सब इन्हीं घड़ियों में कहीं छुप जाएगा. वह थोड़ी देर बाद यह सोच कर भी कुछ नहीं कर पायेगा. कुछ वक़्त पढ़ लेते का ख़याल बेमानी है. दोनों अगर ख़ुद को एक दूसरे की तरफ़ खींचने के लिए कुछ करना चाहते हैं, तब वक़्त की कुछ किश्तें यहाँ भी खर्च करनी होंगी. जो जितनी जल्दी जिसके पास आना चाहता है, उसे उतना ही समय निवेश करना होगा. यह सिर्फ़ वक़्त और पैसे की सीमा में सिमटने वाला नहीं है. न ही सिमटता है. इस ‘सुन्दरता’ के मानक को भी वक़्त की पता नहीं कितनी घड़ियों में कितना वक़्त लगाकर करीने से लगातार गढ़ा जा रहा है. इसका एक मतलब है, उनके यहाँ पेट के सवाल गायब हैं. यह सब भरे पेट वाले लोग हैं. भूखे नहीं है. वह एक-एक पल रुपयों में ख़रीद सकते हैं. खरीदना आधुनिक परिघटना है. यह उतना ही आधुनिक है, जितना ख़ुद को दुकानों के अन्दर ले जाकर वक़्त को पीछे ले जाकर रोक देने की इच्छा. उनके लि

वक्त..

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हम लोग सोचते हैं, हम वक़्त की कीमत नहीं लगा सकते. यह सोचना हमारी बेवकूफी को बताने के लिए काफ़ी है. हम कितने भोले हैं, जो किसी किताब को खरीदते वक़्त नहीं सोचते कि वह सिर्फ़ कुछ पन्नों को एक साथ कर देने से किताब नहीं बन गयी. वहाँ कितनी ही निशानियाँ छूटी रह गयी हैं. वह ज़िल्दसाज़, उसके हाथों में लगी न मिटने वाली रौशनाई, मशीन से कट गयी ऊँगली का दर्द. कुछ भी तो कहीं दर्ज़ नहीं हो पाता. उसे किताबों से बाहर ही रहना होगा. वह रेखाएँ इसी गुज़रते वक़्त को कैद करने के मकसद से वहाँ बन गयी हैं. उसे लिखने वाले से सीधे छापेखाने में आकर नहीं लिखा होगा. उसने लिखने की वह घड़ियाँ उसने अपनी माँ या पत्नी के खातों से चुरायी होंगी. जिस वक़्त वह अजीब-सी बातों को कह देना चाहता होगा, उस वक़्त उसके लिए रसोई में खाना बनती अपनी अम्मा के रोटी बनाते हाथों को महसूस भी नहीं कर रहा होगा. गुसलखाने में तीन घंटे से घुसी उसकी पत्नी को कभी पता नहीं चलता कि उसका पति वहाँ छत पर बैठे-बैठे उसके बारें में क्या कहने की कोशिश कर रहा है. उसने कभी पिता से पूछा भी नहीं होगा कि उसके पिता साइकिल पर केला ख़रीद कर लाते हुए क्या सोच रहे होते हैं.

छठा साल..

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आज छह साल पूरे हो रहे हैं. इन्हें भरने की तरह लेना चाहता हूँ. इस दिन की कोई हड़बड़ी महसूस न कर पाने का भाव, पता नहीं मुझे कैसा बना रहा होगा? पर यह ऐसा ही है. बिलकुल सादा. इस सघनता को अपने अन्दर उतरने देने के लिए कोई और साधन मेरे पास फ़िलहाल नहीं है, जिसे तुरंत दूसरी तरफ़ पहुँचा सकूँ. इन सालों में कितनी शानदार चीज़ें की जा सकती हैं. कितना घूमा जा सकता है. कहीं ठहर कर कोई किताब पढ़ी जा सकती है. उसके पन्नों को याद रखा जा सकता है. वह याद हमें लिखने के लिए बार-बार धकेल सकती है. मैंने भी किताब लिखने की सोची. यह मेरी किताब के किसी सिरे के कोई पन्ने ही होंगे. अभी बिखरे दिख रहे हैं पर कभी इत्मीनान होगा, तब इन्हें करीने से लगाकर उन्हें उस शक्ल में ढाल दूँगा. सबको जिल्द पसंद आती है. बिखरे पन्ने नहीं. फ़िर जिनकी जिंदगियों में डर है, वह सब कुछ तरतीब से सुनना चाहते हैं. मैं भी उतना ही डरा हुआ हूँ, जितनी मेरी पंक्तियों में झाँकते चहरे. वह चहरे भी मेरी आँखों से होते हुए उन जगहों पर रातरानी के फूलों की सुगंध की तरह बिखर जाते होंगे. उनका भी वक़्त होता होगा. कब खिलना है. कब किसे दिखना है. कब किसी को बिलकुल भ

अनदेखे अनजाने

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कल की बात है। क्लस्टर बस थी। नारंगी रंग की। कमला मार्किट से मुड़ रही थी। उसका ड्राइवर टीबी के मरीज़ की तरह खाँस नहीं रहा था। बस मरने से पहले जिन्दा कंकाल बनने की तय्यारी में था। साफ़ दिख रहा था, वह अतीत से अपने वर्तमान में बीड़ी पीता हुआ आया है। बीड़ी फेफड़ों को खोखला करती जाती है। उन्हें सोख लेती है। लोग बीड़ी क्यों पीना शुरू करते हैं, हम इनसे पूछकर जान सकते हैं। पर पूछते नहीं हैं। मैंने भी नहीं पूछा। मन तो बस यही सोचता रहा, अपनी ज़िन्दगी में आज तक सड़क पर गाड़ी चलाते हुए इन्हें कितने चहेरे याद रह गए होंगे? यह सवाल जितना उनके लिए ग़ैर ज़रूरी है, उतना ही हमारे लिए भी है। बचपन से आज तक अनगिन बार बस से उतरते-चढ़ते कितने साल हो गए(?) पर एक भी चहरा याद नहीं हैं, जो उसी बस में उसी वक़्त साथ सफ़र कर रहा होता। चुप्पी इसका कोई जवाब नहीं हो सकती। एक बार फिर खुद से पूछता। फिर कोई जवाब नहीं मिलता। हम खुद कितने लोगों को चहरे से याद रख पाते हैं? यह ड्राइवर जो इस गाड़ी चलते हुए मुझे अम्बेडकर स्टेडियम तक ले आया है, उसे कब तक याद रख पाउँगा?  इतने सालों में बनते-बनते यह सवाल बनता दिख रहा है कि वह कौन से ख़ास चह

बेचैनियाँ

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रात कैसी-कैसी बात कर गया? पता नहीं. पूरी रात सोचता रहा. हम ही रहे होंगे, जो दुनिया को कागज़ पर उतारने से पहले उसे जी भर देख लेने की ज़िद से भर गए होंगे. फ़िर यह कैसे हुआ कि उन कुछ जिल्दों में अपनी दुनिया को ढूंढने लगे. कुछ तो है जो छूट रहा है. हो सकता है, यह अँधेरे में कुछ न दिखने के पास आया कोई खुरदरा ख़याल रहा होगा. पर नहीं. ऐसा कुछ नहीं है. हुआ बस यह है, यह बेचैनियाँ कहीं गुम हो गयी हैं. लिखने के लिए जो घड़ियाँ चुराता रहा था, उनको अनदेखा करना इस तरफ़ ले आएगा, सोचा न था. सोचा तो पता नहीं क्या क्या था? पर हो वही रहा था.  यह अचानक तो हुआ नहीं होगा कि सब उस पुराने पते पर ठिठक कर रह गए. उसकी गर्माहट से बाहर नहीं निकल पा रहे. निकलना नहीं चाह रहे. यह सिर्फ़ एक मंजिल ऊपर नीचे आते जाने की बात नहीं है. सीढ़ियों पर कुछ निशान कम भी रह गए होंगे. जिनसे ख़ुद को पहचान जाऊँगा, वह रंग भी कहीं नहीं दिख रहे. कभी-कभी तो पिछले पन्नों पर लौट कर लगता है, कहाँ से कहाँ पहुँच गया? शायद कुछ नज़र आये तो बता पाऊं. या कुछ भी न कहूँ. कहने या न कहने से जादा ज़रूरी उन ख्यालों का अपने अन्दर उमड़ना-घुमड़ना है. उनका दिख ज

पाश का दिन

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जबसे यहाँ आया हूँ, एक ख़ास तरह के एहसास को अपने अन्दर से जाता हुआ देख रहा हूँ. अन्दर से कभी लगता ही नहीं कुछ लिखा है. यहाँ लिखना ऐसा लगता है, जैसे किसी ख़त्म होती घड़ी में यहाँ आये भी तो बस छूकर भाग लिए. मन नहीं करता तब भी चला आता हूँ. पर जब एकांत के क्षणों को इन पंक्तियों में तब्दील नहीं कर पाता तो लगता, अन्दर कोई तस्वीर गुम होती जा रही है. अपने अक्स को पानी में घुलते हुए देखना और ऊपर से स्याही फेंक देना ऐसा ही होता होगा. यह जो अपने अन्दर कभी जूझने की खूबी रही होगी, अब कहीं गुम होती लगती है.  यह सब मुझे दो तरह से बुन रहा है. या हो सकता है और भी दिशाएँ हों, जिन्हें देख न पाने के दृष्टिदोष से ग्रसित होकर जनरल वार्ड का ट्रीटमेंट देता हुआ यहाँ से सिर झुकाए थके से डॉक्टर जैसे निकल लेता होऊँगा. निकल जाना, बच जाने की कोई शरारत होती होगी. इसी शरारत में कहीं बचपना छिपा हो तो शायद कुछ बात बन जाये. जब रोज़ कुछ-न-कुछ लिख रहे होते थे, तब बहाना था इस कारण पढ़ नहीं पा रहे हैं. पर जबसे कागज़ पर लिखने से पहले उन पन्नों का खालीपन आँखों में उतरने लगता, तब तो ख़ाक कुछ लिखा जाता. तब से हुआ कुछ नहीं ह

बाकी सब

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अब जब दिल्ली मे शामें और जल्दी ढलने लगी हैं, अँधेरा जादा सुनहरा लगने लगा है. सब अपने-अपने रंग चुनते होंगे, हमने भी इसे चुना है. मन से नहीं, दिल से. दिल के बेचारे बनने से पहले, मन भुट्टे खरीदते हुए, कहीं किसी याद के आ जाने के दरमियान बहुत कुछ घट जाने तक ऐसे ही चलता रहता है. मक्के के दाने किसी के दाँतों से भी लगते होंगे. लगना किसी खिड़की से बाहर झाँकने जैसा होता होगा. जैसे वह जब अपनी दोस्त के साथ चलता है तो दोनों हाथों को कमर पर पीछे बांध लेता है. ध्यान से देखने पर कभी लगता वह इन हाथों के वजन से कभी-कभी थोड़ा आगे भी झुक जाता होगा. हम सब उनको दूर से चलते हुए देखते और अपने अन्दर दाख़िल होने तक अपने पास आने देते. इसके आगे अगर कोई कहे, स्याह होती इन शामों को थोड़ा और रूमानी होते देखते, शाम को काली कहना हमारे बस में नहीं. वैसे तुमने बिलकुल ठीक समझा. हम न नस्लभेदी हैं, न रंगभेदी जो भूलकर भी ऐसी टिप्पणी करेंगे. हम टिप्पणी तो दूर, इस पर भी बात नहीं करने जा रहे कि कैसे हम उन शामों में सपने बुनते हुए ख़ुद को देखा करते. देखना संभावनाओं को बुनने का पहला अनिवार्य कदम है. बाकी सब इसके बाद.