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मई, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पीछे जाते धागे

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यह बड़े दिनों से मेरे अन्दर उमड़ती-घुमड़ती हुई कई सारी बातों के सिरों को पकड़ने की कोशिश है. इसे मैं अपने में वापस लौटने की प्रक्रिया के रूप में देखना चाहता हूँ, पर पता नहीं कितना इसके लिख लेने के बाद कह पाऊंगा? बात सिर्फ एक तरह के लिखने की नहीं है. यह उससे कुछ ज्यादा की मांग करने जैसा है. जैसे मैं करनी चापरकरन लिख रहा था और उन दिनों की अपनी बनावट बुनावट की तरफ देखता हूँ, तब लगता है, उस दौर में जो छटपटाहट अपने अन्दर महसूस करता था, उसे खुद ही ख़त्म कर दिया. यह उन लिखी हुई बातों से कहीं न पहुँच पाने की खीज रही होगी. इन दिनों का दुःख उन पंक्तियों में झलकता हुआ, मेरे बगल दिख जाता होगा. वह अन्दर की बेचैनी पता नहीं किस कदर मुझे गढ़ रही थी. मैं डायरी पर. पैन से. यहाँ टाइप करता हुआ. मन के अन्दर अनगिनत अन लिखे पन्नों को समेटे हुए चल रहा था. जितना सर से उतारता उतना ही उसका वजन बढ़ जाता. लगता, अभी इस जेब से कुछ सामान बाहर रखा है, तो पीछे वाली जेब में कोई पौधा उग आया है. जहाँ आपको लग रहा था, जेब की सीवन फट गयी थी, वहीं कई सारी जड़ें इकठ्ठा हो गयी हैं. जो कहीं जाती नहीं हैं. वह सब अनायास आप तक आ गयी ह

रुक्का

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दिल्ली की गर्मी में यह कुछ ऐसे दिन हैं, जब अखबार अगले तीन दिन भारी बारिश की ख़बरें छापते हैं. गमले अखबार नहीं पढ़ते. पानी न डालो तो सूख जाते हैं. प्यार भी पानी की तरह होता होगा. जब कोई साथ नहीं रहता, सिर्फ यादों में रहता है, तब जाकर एक ऐसा बिंदु आता होगा, जब उसकी यादें भाप बनकर हमारी त्वचा से बाहर निकलता हुआ हमें साफ़ दिख जाता है. यह एक दुखद पहलु है. पर यह वही यादें हुआ करती होंगी, जिनमें यादें नहीं होंगी. बादलों की अनुपस्थिति आसमान को भी इसी तरह रचती है. वह भी इंतेज़ार में नीला पड़ जाता होगा. मुझे पता है, मेरी बातें बीच में टूट रही हैं. पर क्या करूँ? टूटते हुए ऐसे ही लिखा जा सकता है. कभी वैसी ज़मीन देखी है, जो कढ़ाई की तरह गोलाई लेते हुए हो और ठीक सा गड्ढा भी न हो. उसमें जब बरसात का मटमैला पानी भरकर धूप में सूखने लगता है, तब दिखाई देती है, उसके नीचे की वह मुलायम मिटटी जो पपड़ी बनकर टूटने को होती है. वैसा हो गया हूँ. बिलकुल वैसा.उसके बीच में उभर आई दरारें उस इंतज़ार को गिनने के लिए काफ़ी हैं. मेरा लिखा हुआ भी उन दरारों सा है. जो अनलिखा है, उन्हें भी जोड़ लिया करुंगा. तब शायद यह इंतज़ार कुछ कम

उदास आँखों वाली

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उसकी आँखें मुझे कहीं दरिया गंज के इतवार बाज़ार में सड़क पर पड़ी नहीं मिली थीं. न उन्हें लाल किले के पीछे लगने वाले चोर बाज़ार से खरीद कर लाया था. वह बाहर से मेरे अन्दर देखती हुई हर बार मिल जाती. वह वहीं थीं. माथे के पास भौहों के बिलकुल नीचे. उन्हें हर बार वहीं होना था. यह आँखों वाली लड़की हमेशा कहीं रोक लेती. रोक कर मेरी आँखों के बारे में पूछा करती.  वह जब भी उदास दिखती, मैं सबसे पहले उसकी आँखें देखा करता. वह कहीं नहीं देख रही होतीं. उनमें सिर्फ़ मैं होता. यह होना मैंने चाहा नहीं था. फिर भी होता. क्या करता. बस चुप सा उसे देखता रहता. उनकी आँखों से आँसू भाप बनने से पहले आहिस्ते आहिस्ते गालों के पास बहते हुए आते. उनका होना  किसी पिघलती बर्फ की नदी की तरह शांत नहीं होता. वह बस उस दुःख के ताप से बहती रहती. उन बूंदों में ओस की ठंडक कभी नहीं थी. उनमें किसी की नाकामियों का दर्द दर्ज़ था. वह कुछ कहती नहीं. बस सब बता देती, उसकी आदत नहीं थी. किसी की चुगली करने की. फिर भी सब उसकी चुगली करती आँखें बता देती.  इन सारी पंक्तियों के बाद इस आख़िरी पंक्ति में बस इतना कहना है, ऊपर लिखा सब झूठ है. और

देखते हुए

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हम किन चीजों से घिरे हुए हैं, यह देखते रहना चाहिए. इससे एक तो इससे हम ख़ुद को स्थित कर पायेंगे और दूसरी बात हमें पता होगा, कौन से ख्यालों से हमें लड़ना है. यह संघर्ष की स्थिति दिखाई नहीं देती लेकिन होती आँखों के सामने ही है. यह दौर देखने का है. हम अपनी आसपास की दुनिया को इससे बाहर समझने के लिए राजी नहीं हैं. जितना हमें दिखाया जा रहा है, उतना ही सच हमारे लिए काफ़ी है. अगर यकीन नहीं आता तो अपनी भाषा में देखने को लेकर जितनी भी लोकोक्तियाँ और मुहावरे हैं, सबकी एक सूची बनाकर देखिये. हम टीवी देख रहे हैं, हमारे सामने एक खिड़की खुलती है और हम एक घर के भीतर ख़ुद को पाते हैं. वह हमें नहीं देख रहे. हम ऐसी जगह हैं, जहाँ वह हमें कभी देख ही नहीं पायेंगे. यह घर किसी धारावाहिक का सेट होगा, जिसपर अभिनेता अभिनेत्रियाँ अभिनय से एक दृश्य रच रहे होंगे. ज़रा पिछली रात देखे गए किसी एक धारावाहिक की कोई एक मामूली सी घटना को उठाकर देख लीजिये, क्या वह हमारे आपके सामान्य घरों का प्रतिनिधित्व करते हैं? उनकी वह कठिनाई या समस्या हमारे जीवन के निजी अनुभवों से मिलान नहीं कर पाती है. फिर हम क्यों उन्हें देख रहे हैं ? य

अगर मैं हीरो होता..

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मैं कभी किसी का हीरो नहीं बनना चाहता. इसे इस तरह लिखा जाना चाहिए कि मैं कभी किसी का हीरो नहीं बन सका. इस दूसरी पंक्ति के इर्दगिर्द ही ख़ुद को बुनने वाला दबाव इसे लिखा ले जाने वाला नहीं है. मैंने अभी तक किसी के लिए कुछ नहीं किया है. अगर किया है, तब उन सबको बारी-बारी मुझसे किसी तरह संपर्क करना चाहिए. मैं एक औसत से भी कम दर्जे की ज़िन्दगी जीता हुआ उसमें आगे बढ़ रहा हूँ. मेरी हैसियत एक पेड़ की तरह भी नहीं है. पेड़ कम से कम साल में साथ गुज़रते हुए मौसम के अनुसार अपना व्यवहार करता है. मैंने ऐसा कभी नहीं किया. यह आज मैं ज्यादा क्यों आ रह है? इसकी वजह है. लेकिन होता यह है, सारी वजहें बताई नहीं जाती हैं. मैं भी एक असामान्य सी सपनीली आँखों में डूबा हुआ इस दुनिया से बेखबर रहता हुआ इस दुनिया में रहना चाहता हूँ. यह कैसे होगा? नहीं पता.  मैं चाहता हूँ, कुछ ऐसा कर दूँ कि मेरी मम्मी के घुटने एकदम ठीक हो जाएँ और वह हमारे साथ ख़ुद सीढ़ियाँ उतरते हुए, हमें नगर निगम के नल से पानी भरता हुआ देखें. कभी मन होने पर हम भी उनके साथ दो-दो बार बाहुबली देखने चले जाते. शीला सिनेमा के बंद होने से पहले न जाने कितनी फ़ि

भोपाल

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मेरे जन्म से एक महीने पहले की बात है. भोपाल हो चुका था. आज भोपाल होना कोई नहीं चाहता. ऐसा नहीं है, आज तक सिर्फ भोपाल ही भोपाल हो पाया है. दुःख की इन पंक्तियों से आँसू रिसने चाहिए. लेकिन यह संभव नहीं लगता. कोई कहीं देखने से भी नहीं दिख रहा. कभी कोई ऐसा नहीं मिला, जिसने इसकी कोई कहानी सुनाई हो. कोई ऐसी किताब नहीं मिली, जिसने इससे मिलवाया हो. शायद राजेश जोशी की कोई कविता थी, जिसमें यह एक स्मृति की तरह मेरे अन्दर उतरने लगता. वह उदास, धूल भरा शहर कभी देखा नहीं था. बस इस कविता में पढ़ा था. कौन सी कविता रही होगी, कह नहीं सकता. शायद वह 'सन् पिचासी का बसंत' नाम से कोई कविता थी. यह मेरा साल है और उसके बसंत पर पन्ने पलटते हुए कविता देख सहसा रुक गया. रुक गया कि किसी ने उस पर कविता लिखी है. मुझे पढ़कर लगा, मुझे यह कविता नहीं पढ़नी थी. क्यों उस सुन्दर सी कल्पना के नाम में खोता हुआ उन पंक्तियों को पढ़ गया. यह अब तक का सबसे बड़ा धोखा था. ऐसा धोखा, जिसे कोई अपने साथ होने नहीं देना चाहता. मैं भी अपने अन्दर कई सारी विधाओं में लिखने की इच्छा लिए चल रहा हूँ पर कोई रचना प्रक्रिया घटित होती नह