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अप्रैल, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कभी बेमतलब होना..

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हम सब दुनिया को एक ख़ास खाँचें में ढालने के आदी हैं। उसका ऐसा नक्शा जो कभी किसी ने तय किया, वही आज तक दोहराया जा रहा है। सब एक ख़ास तरह की परिणिति को प्राप्त कर लेना चाहते हैं। हमारे मनों में उन छवियों का वह हिस्सा कितना निर्मम है, पता नहीं। वहाँ कोमलता का कोई कतरा है या नहीं, कहा नहीं जा सकता। पर वह साँचें वहीं है। सिराहने के पास। सब कितनी फ़िक्र में हैं। कहीं कोई दिन उस टकसाल के बाहर से हमारे अंदर आ गया, तब क्या होगा? हम किस तरह उस पर अपनी प्रतिक्रिया देंगे। हम एकदम घबरा जाते हैं। घबराना कमज़ोर होना नहीं बल्कि सवालों के जवाब न मिलने की हड़बड़ी है। जैसे इश्क़ के किसी पल ज़िस्म पर आते ही हम नंगे होने लगते हैं। बिलकुल वैसे। बिलकुल इसी क्षण कोई दरवाज़े की दूसरी तरफ़ साँकल पीटने लगे, तब जवाब में हम कुंडी नहीं खोलते। चुप रहते हैं। यह ढलती रात और भारी पलकों के बीच मेरे थके हुए दिमाग की उपजी शरारत लगती है, जो इस तरह विषय से दूर ले जाती लग रही होगी। पर मैं भी कोई कम चालाक आदमी नहीं। कईयाँ किस्म का जुगाड़ू हूँ। इस भाषा में अपने मन के भीतर आस पास की लड़कियों के लिए मेरे मन में चलने वाली उधेड़ब

वक़्त की क़ैद

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इससे ज़ादा यह हमें और क्या करेंगे? हम सब काम वक़्त पर करने के लिए ख़ुद को तैयार करते रहते हैं। तय वक़्त एक अजीब क़िस्म की संरचना है। जिसके बाहर हम कुछ भी नहीं हैं। ऐसा ढ़ांचा जिसमें सब समा जाता है। उमर इसी तरह कितने बंद खाँचों में हमें कैद कर लेती है। सब कुछ वक़्त के उस दायरे में सिमट कर रह जाता है। जिसमें हम कहने न कहने के बीच में हमेशा झूलते रहते हैं। मैं जो भी कहना चाहता हूँ, वह शायद इसके पीछे कहीं छिप जाये। पर जो सामने भी होगा, वह भी कम ज़रूरी बात नहीं होगी। मौसम ने शायद यही सीमा कहीं पीछे छोड़ दी है। वह भी मनमर्ज़ी करने लगा है। उसका ऐसा करना हमें हरकत लगता है। अपनी ज़िम्मेदारियों से भाग लेने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण तर्क है। जब हमने अपनी सीमाओं को तोड़ दिया, तब मौसम या पेड़ या मिट्टी, दिवार, कोटर में कहीं उग जाने वाले पौधे के लिए यह क्यों मायने रखे? हमारे लिए मायने रखता है, वक़्त पर पानी का आ जाना। इसतरह हम हमेशा तयशुदा चीज़ों के लिए ख़ुद को तैयार करने में लग जाते हैं। हम सोचते हैं, कुछ भी इसके बाहर नहीं है। यही हमारी सबसे बड़ी हार है। लेकिन अगर हम ऐसे हैं, तब यह दुनिया हमने नहीं बनायीं। यह

दिन, मेज़, सपने और गाँव का बहाना

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इतवार। हलके से शुरू होता अलसाया-सा दिन। उठने को न कहता। चुपचाप रहता। बस इसी पल कहीं और लेजाने को मजबूर करने लगता। पीछे। कहीं दूर से सबकुछ देखने को होता। किसने इस छुट्टी को बनाया होगा? बनाया नहीं, छीन लिया होगा। उसने भी कहीं गुमसुम बीतते वक़्त को निहारने के लिए इसे चुना होगा। हम भी इसी में ख़ुद को बनते बिगड़ते देखते रहते। अप्रैल के बाद आने वाले दो महीने हमारे लिए लम्बी छुट्टी हुआ करते। जल्दी-जल्दी दिल्ली से भागकर गाँव चले जाने के दिन। हम सब जो आहिस्ते-आहिस्ते बड़े हो रहे थे सब देख रहे थे। गाँव में क्या होता है? गाँव हमारा नया रोज़ाना बना करता।  यह पंक्तियाँ न जाने कितनी ही बार अपने अन्दर दोहरा चुका हूँ, ख़ुद याद नहीं आता। बस इस शहर से भाग लेने का मन किये रहता है। गाँव हमारे लिए वह जगह थी जहाँ हम इस शहर की तरह नहीं रहा करते थे। वही ऊबती सुबह मुरझाये हुए चेहरे। गर्मियों की छुट्टियों में गाँव जाना है, यही हमारे लिए पूरे साल ख़ुद को खींच लेने के लिए ताकत की तरह काम आता। हम गाँव तो जाते पर वहाँ भी हमारी पहचान ‘दिल्ली से आये हैं’ कहकर होती। हम उनमें से नहीं थे। यह एक क़िस्म की दूरी थी। कह न

सालगिरह मुबारक

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यह हम दोनों के बीच की बात है। इसमें किसी तीसरे को आने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह हमारा दिन है। हम तय करेंगे, इस दिन किन यादों को अपने भीतर उतरने दें। यह बहुत निजी स्मृतियों में वापस लौटते वक़्त ठहर जाने का क्षण है। सबकी अपनी यादें होंगी, उनमें खो जाने के अपने तरीके होंगे। हम भी अपनी युक्तियों को साझा बनाने की प्रक्रिया में हैं। जब दिल यहाँ धड़के, साँस वहाँ फेफड़ों में भर जाये। पता नहीं ऐसा क्यों हुआ कि आज लिखना कागज़ पर चाहता हूँ पर वहाँ शब्द आ नहीं रहे। यहाँ इन झूठी बातों के पीछे भी कोई बात होगी। कोई ऐसी बात जो झूठी नहीं होगी। उसे कागज़ पर कह देता तो ठीक रहता। कागज़ बहुत अजीब लग रहा है आज। पर छोड़ो, जाने दो। कह नहीं पाया। कह देना हरबार ज़रूरी नहीं होता। ज़रूरी होता है, उसे तुम तक पहुँचा देना। सुबह कह दिया था। अभी फ़िर वहाँ लिख दिया। दिन तारीख़ वक़्त दोहरा कर कभी वापस नहीं आते, हम उन तक लौट कर जाते हैं। जैसे-जैसे शाम शाम ढलती रही हम एक-दूसरे के पास पहुँच रहे थे।  यहाँ बस तुम्हें इतना ही कहना है। सालगिरह मुबारक!!

हमारी सांस्कृतिक अज्ञानता

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हमें निज़ामुद्दीन से भुसावल जाने वाली गोंडवाना एक्सप्रेस में बैठे यही कोई दो-तीन घंटे हो चुके थे। हमारी बातचीत विवाह के बाद स्त्री के पास कुछ चिन्हों के रूप में छूट गयी सांस्कृतिक वस्तुओं पर चल रही थी। स्त्री की माँग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र और पैरों में बिछिया उसके विवाहित होने के प्रमाण माने जाते हैं। पुरुष ऐसे किसी भी चिन्हशास्त्र से मुक्त है। वह जब तक ख़ुद न बताए कोई नहीं जान सकता वह शादीशुदा है। विजिता इन प्रतीकों को छोड़ने के पक्ष में अपनी बात कह रही थी कि तभी बगल से एक अँग्रेजी बोलने वाला युवक हमारी चर्चा में शामिल होने की बात कहता हुआ आया। हम भी बात आगे बढ़ाना चाहते थे और उनके आने के बाद हम उन्हें सुनना चाहते थे। अमेरिका की माइक्रोसॉफ़्ट कंपनी में काम करने वाले वह सज्जन सबसे पहले अपनी आपत्ति दर्ज़ कराते हैं। उनकी आपत्ति हमारे अज्ञान को लेकर थी। हम यह भी नहीं जानते थे कि मंगलसूत्र में सात मोती होते हैं और इसको किसी स्त्री द्वारा निकालने का बिलकुल वही अर्थ है, जो ईसाई धर्म में विवाहित स्त्री या पुरुष के अपने हाथ में पहनी उँगली से अँगूठी निकालने से लिया जाता है। हम लोग अपन

मुड़कर देखना

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आँखें कभी झूठ नहीं बोलतीं। एक बोलने की कोशिश करेगी तो दूसरी बता देगी, सच क्या है? हम वहीं खड़े हैं। तुम अचानक पीछे मुड़कर देखती हो। इस एक क्षण को लिखने के लिए रात से पंक्तियाँ बुन रहा हूँ। पता नहीं ऐसा क्यों लगा, उन सरसरी निगाहों में कहीं कुछ छूटते चले जाने का एहसास भी रहा होगा। कहीं थोड़ी देर और रुक जाने की तमन्ना रही होगी। कुछ देर उन छूट रहे लोगों के साथ वहीं खड़े रहने का मन रहा होगा। यह भी हो सकता है, इनमें से ऐसा कोई भी भाव तुमने अंदर न आने दिया हो। पर बताओ। तुम्हारी आँखों का क्या करूँ? वह हमारे अंदर झाँककर बाहर देखती हैं। उन्होंने ही बताया मुझे। क्या, गलत कहा मैंने कुछ। शायद यूँ होता, हम भी उनमें शामिल हो जाते। पर नहीं हो पाये। शायद यूँ होता, तुम रुक जाती। हममें शामिल हो जाती। दोनों स्थितियाँ इतनी सरल नहीं हैं। न हमारे लिए न तुम्हारे लिए। तब क्या करें। बस मुड़-मुड़ कर देखते रहें? नहीं। तब। तब? तब करना सिर्फ़ इतना ही है, अपने मन को या तो मार लेना है। या उसके दायरे को फैला कर इतना बड़ा कर लेना है, जिसमें कई और दायरे हों। हो सकता है, अपनी स्मृतियों में तुम मुझे भी इस स्थिति में द

आज का दिन

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शनिवार। नौ अप्रैल। साल, दो हज़ार सोलह। दिल्ली। पता नहीं वक़्त के साथ यह कैसी तारीख में तब्दील होती जाएगी? इसकी बनावट में ऐसा क्या है, जो मुझे पूरे दिन घूमने और देर रात घर पहुँचने के बाद भी भावुक किए जा रहा है। हर दिन का अपना इतिहास होता है। फ़िर किसी दिन किसी घटना का घट जाना, हमारी स्मृतियों में उसे हमेशा के लिए सुरक्षित रख देता है। यह दिल से लेकर दिमाग तक अंदर घर किए रहती है। यह दिन बिलकुल ऐसे ही शुरू हुआ। आज ईपीडबल्यू में मेरा एक लेख आया है। कहने को यह एक साधारण सी घटना है किन्तु इसकी असाधारणता का अंदाज़ आने वाले दिनों में ख़ून की तरह घुलती साँसों के हवाले से पता चलता रहेगा। यह लेख गाँव के बारे में है। गाँव से शुरू होता हुआ, इस शहर तक आता है। यह जिस भाषा में लिखा गया है, वह भाषा बाबा को नहीं आती है। उनका कोई ईमेल अकाउंट नहीं है। और उन्हें कभी डाक से भेज भी नहीं पाऊँगा। वह इसे पढ़ नहीं पाएंगे। शायद गाँव में गिनती के कोई दो-तीन लोग होंगे, जो कभी जान भी पाएंगे कि दिल्ली में बैठे एक पोते ने अपने बाबा और दादी के बारे में लिखा है। दादी तो हमारे छुटपन में ही चली गईं, उन तक मेरी बात कि

बची हुई संभावना

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वह एक बची हुई संभावना का नाम है, जिसे उसकी पत्नी ने अपने गर्भ में रचना शुरू किया। गर्भ एक संसार में आने से पहले एक संसार है। इसीलिए उसकी स्मृतियाँ हम सबके पास होंगी। हो सकता है, हम इस संसार की तरह उस संसार को किन्हीं शब्दों, बिंबों, प्रतीकों के भाषिक वाग्जाल से सपने बुनने की इच्छा से भर गए हों। लेकिन यह संभव नहीं है। यह ऐसा संसार है जब हमारे पास, जिसे हम भाषा कहते हैं, उसका वह ढाँचा नहीं था। जिसके सहारे हम उस खड्डी पर तानाबाना देख भी पाते। हम अपने आपको इसलिए इस संसार का नियामक मानने लगते हैं क्योंकि हमारे लेखन में अपने अतीत में जाने की हैसियत है। पर तब कोई क्या करेगा, जब हम गर्भ में थे तब हम उस गधे, मच्छर, मछ्ली, पंछी की तरह ही थे जो सिर्फ़ और सिर्फ़ जीने में इतने डूब जाते हैं कि इस तरह किसी के लिए कुछ भी रचकर जाने की कोई तमन्ना उनके भीतर जन्म नहीं लेती। वह हमसे कई गुना समझदार हैं। उनके यहाँ इतिहास नहीं, स्मृतियाँ हैं। अगर कोई उन्हें लिखता, तो उनके पास जीने का एक बना बनाया नक्शा होता। उन सड़कों, गलियों, चौराहों का पहले से उपलब्ध तथ्यात्मक ज्ञान उन्हें इस कदर रचनात्मक नहीं बनाता। क

केले का छिलका और खिड़की

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केले के छिलके को खिड़की से फेंकते हुए, ख़ुद केले का छिलका होने की इच्छा से भर जाना, कहीं से कूदने की तमन्ना का फिर से जन्म लेना नहीं है। यह ऊँचाई से कूदने के अधूरे सपने का प्रतिफलन भी नहीं है। तब प्रश्न उठता है, यह क्या है? शायद इस खिड़की से हवा में नीचे जाते हुए केले के छिलके के साथ उस भाव से भर जाने का ख़याल है, जिसमें एक मंज़िल से नीचे आते वक़्त वह छिलका किन भावों से घिर जाता होगा? उसे नीचे आते हुए कोई चोट लगती है, उसका एहसास बस उस आवाज़ से लग पाता है, जो उसके ज़मीन से टकराने के बाद आती है। हम सब भी इसी तरह कहीं-न-कहीं से टकराते हुए आवाज़ करना चाहते होंगे। यह आवाज़ की संरचना में ख़ुद बख़ुद कहने की ताकत की तरफ़ इशारा ही नहीं, कहीं सुने जाने की ख़्वाहिश भी है। आवाज़ किन्हीं ध्वनियों के एक साथ निकलने की परिघटना है। जो बार-बार उसी तरह घटित होगी, जब-जब हम उस छिलके को इस खिड़की से नीचे फेंकते रहेंगे। एक दिन होगा, जब यह आवाज़ दब जाएगी। खिड़की दीवार में न रहकर रेलगाड़ी की दीवार में चिपक जाएगी। तब उसकी ध्वनि की सघनता भले इस एक मंज़िला इमारत से गिरते हुए, उसके मन में बनती भावुक रक्त संचार प्रणाली के अनुपात

छोटी-सी बात

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हफ्ता भर हो गया कुछ लिखा नहीं है। ऐसा नहीं है, मन नहीं हुआ। मन जब उलझ जाए, उसके धागे उलझने लगते हैं। उलझे हुए लिखना मकड़ी के जाले बुनने जैसा है। आज भी इस चलती हुई हवा में कुछ खास नहीं सोच पा रहा। जितना भी चलने लायक है, उसे रोक देने के खयाल से भर जाना ज़िद से भर जाना है। यह कोई भावुक क्षण नहीं जब मैं भी बहने लगूँ। नींद आ रही है। थक गया हूँ। फ़िर भी लिखने की कोशिश में हूँ। कहना चाहता हूँ, अपने हिस्से की बात। बहुत छोटी-सी बात। मेरे लिए लिखना मेरे हिस्से आ रहे अधिशेष का सिर्फ़ उपयोग करना नहीं है, बल्कि उस प्रतिरोध को दर्ज़ कराते चलना है, जो कोई सुनना भी नहीं चाहता। मैं अगर किसी के साथ छह घंटे झील के किनारे बैठ सकता हूँ, तब यह केवल उस वक़्त का निवेश नहीं है। बल्कि उन सम्बन्धों से मेरे किन्हीं और लक्ष्यों तक पहुँच जाने के लिए खुल जाने वाले खिड़की दरवाजों की तरफ़ जाती संकरी गली है। जो इसे इस अर्थ में नहीं समझेंगे उन्हें बार-बार समझाऊँ। वह माने न माने, यह उसी प्रचलित अवधारणा का हिस्सा है, जिसे हम प्रयोजनवादी तर्क कहते हैं, जोकि पूंजीवादी विमर्श से निकलता है। निकलना, समझने का फेर है बस। ऐसा न

एक अप्रैल का दिन..

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जितने भी लोग आज एक अप्रैल को “fool’s day” के रूप में मना रहे हैं, उनकी पहचान को रेखांकित करने की ज़रूरत है। यह उसी जमात के लोग हैं, जिनकी नज़र में यह दुनिया बहुत समझदार लोगों की बनाई हुई है। उनकी दुनिया का हर दिन बहुत ही दिमागदार और तेज़तर्रार बीतता है। कितने ही विचार विमर्श तो वहाँ मिनटों में निपटा दिये जाते होंगे जैसे। ऐसे ही समझदार दिमागदार लोग एक दिन मिले और उन्होंने एक दिन मूर्खों और कम दिमागदार लोगों के लिए तय कर दिया। यह उनका सम्मान नहीं था, उनके उपहास का एक और दिन था। इस दिन तो सब समान्य से अधिक बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करते हुए ‘चाचा चौधरी’ बनते नज़र आते हैं। कम्प्यूटर से भी तेज़। ‘आज तक’ के ‘सबसे तेज़’ से भी तेज़। बुलेट ट्रेन से तो ख़ैर वह आगे रहने ही वाले हैं। कोई उन्हें मूर्ख नहीं बना सकता। यह अहंकार, एक दर्प का निर्माण करता है। और उन सभी को जो हरदम दिमाग का इस्तेमाल नहीं करते, उन्हें बेदख़ल करता हुआ, अपने दिमाग की सीमा से बाहर खदेड़ देता है। यह सब उन चालक लोगों की चाल है, जो हमें कहीं का नहीं रहने देना चाहते। संवेदना को कहीं कोई जगह नहीं मिलती। सब अधिक संवेदनशील व्यक्