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लिखने और न लिखने के बीच की खाली जगह

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कोई चार-पाँच महीने बाद कुछ तरतीब से लिखने बैठा हूँ । जिसे तरतीब कह रहा हूँ उसका कोई सिरा अभी खुल नहीं रहा है । नए कैलेंडर में तीसरा दिन है, मन में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं दिख रहा । वही ढर्रा । बिलकुल उसी तरह से लिखने के लिए बैठ जाने जैसा । जैसे कोई क्रम कभी टूटा ही न हो और मेरे अंदर कितनी ही बातें बाहर आने के लिए आतुर खड़ी हों । इन बीत गए दिनों का आग्रह कुछ इस तरह हर पल मुझे घेरे रहता है, जैसे उन्हें कहें बिना वह मुझे छोड़ना ही न चाहते हों । हर दिन कुछ ऐसा जो लिख लिया जाना था, जिसे कहे बिना सोने के लिए लेटना नहीं था । फिर भी कुछ कहा नहीं । कुछ भी नहीं कहा ऐसा नहीं है । कागज पर थोड़ा बहुत लिखता रहा हूँ । पर उसे आज से बहुत दिन बाद के लिए अपने पास रख लेने की आदत में कभी किसी से कहता नहीं । कुछ कह देना कभी ज़रूरी भी नहीं लगता । क्या यह ज़रूरी है, हम बीत जाने के बाद ही ऐसे किसी दिन अचानक पीछे मुड़े और पीछे देखते हुए जो बीत गया वह साफ़ साफ़ दिख जाये ? मुझे यही काम सबसे मुश्किल लगता है । कौन से एहसास मुझे बना रहे थे और जो यह साल अब किसी तारीख़ में ख़ुद को समेटे रहेगा, उसमें मैं कितना रह गया