ख़त सा पन्ना
बहुत दिन हुए आपसे बात नहीं हुई. कभी ऐसे होना, खाली होने जैसा लगता है. इधर सच में यह बहुत महसूस होता रहा है, हम कुछ नहीं कर पाए. लिखने को लेकर अब ख़ुद को ज्यादा आश्वस्त नहीं कर पाता. लिखने को कम करके नहीं आँक रहा. एक प्रयोजनवादी विमर्श हावी हो जाता है. ब्लॉग रोल में देखता हूँ, तब लगता है, कोई तो मेरे साथ नहीं लिख रहा. जो तीन साल पहले स्थिति थी, उसमें बहुत परिवर्तन आया है. शायद हम सब हमउम्र रहे होंगे और ज़िन्दगी में एक साथ ज़िन्दगी के दबावों की तरफ बढ़ गए होंगे और इस कारण ब्लॉग पर नहीं लिख पा रहे होंगे. यह उसी पुरानी बहस में दुबारा घिर जाना है. प्रिंट में आने की तमन्ना के बाद सब सुस्त हो गए. प्रिंट मतलब उनके नाम की एक जिल्द आ गयी और उनकी रचनात्मक ऊर्जा का विलोपन शुरू हो गया. यह शायद सतह पर दिख रहा है, शायद इसलिए इस तरफ इशारा कर रहा हूँ. फिर आप वाली बात याद आती है. ब्लॉग को एक माध्यम की तरह देखना चाहिए और कौन उसे कब तक साथ रखकर लिखता रहे, यह उनका व्यक्तिगत चयन है. मेरा भी अब लिखने का मन नहीं है. बहुत टुकड़े-टुकड़े में लिख लिया. लेकिन ऐसा नहीं है, अब कुछ बड़ा लिखते हैं टाइप ख़याल दिल में उ