लिखना

जैसे साँस है, वैसे लिखना है. यह लिखना ही मेरा छोटा सा परिचय है. इस पंक्ति से शुरू करूँ तब मैंने बहुत सी ऐसी बातें भी कह दी हैं, जिन्हें नहीं कहा जाना था. चूँकि वह कह दी गयी हैं इसलिए मेरी पहचान में उनकी भी उतनी ही हिस्सेदारी है. यह लिखना शुरू हुआ अनजाने में. शायद सब कोई इस अनजानेपन से वाकिफ़ होंगे. अनजाना यह इसलिए भी है कि जब लिखना शुरू किया, तब पढ़ने का सहूर भी नहीं आया था और क्यों लिख रहे हैं(?) जैसे शास्त्रीय प्रश्नों से मुलाक़ात भी नहीं हुई थी. इस क्लासिकल सवाल का ताप अब इधर कुछ कुछ महसूस होता है, तब सोचने लग जाता हूँ कि क्यों? क्यों हम कभी लिखने के भाव से भर गए होंगे. तब एक कमज़ोर-सा जवाब मेरी तरफ़ आता दिखता है कि जिसे यहाँ वहाँ कभी लिख दिया होगा, उस सबको अपनी जेबों में संभाले नहीं संभाल पा रहा होऊँगा. यह लिखना चूँकि डायरी में नहीं है इसलिए यहाँ कई ओट हैं जिनके पीछे छिपकर सब कहने, देखने, उस देखे हुए को सुनने की कोशिश करते रहने का मन किया रहता है. मन सबसे ज़रूरी चीज़ है. लिखना अनमने भी होता है. पर एक बार बैठ जाओ तब उसे उतारते हुए कुछ मन हल्का ज़रूर हो आता है. इस हल्केपन में कभी ऐसा नहीं लिखा जिसकी ध्वनियाँ इतनी सतही हों कि एक धमक से ही वह समझ आ जाएँ. जैसी दुनिया है उसी अनुपात में यहाँ परतें हैं. जब सब एक जैसा लिख नहीं रहे, तब पढ़ा भी कैसे एक तरह से जाएगा? पढ़ना इसलिए अभ्यास की माँग करता है.

मेरे लिए यह लिखना पढ़ना दोनों एक साथ चलने वाली प्रक्रिया की तरह उभरते हुए नज़र आते हैं. ज़रूरी है सरल लिख पाना. कोशिश करता हूँ इसी दुनिया के रूपकों, बिम्बों, चित्रों, आवाजों से कुछ कह पाऊं. कभी कभी कुछ कह पाता होऊँगा. ऐसा मुझे सच में लगता है. कभी कभी नहीं भी लगता है. फ़िर भी लिखना मेरा ज़रूरी काम है. हिंदी में लिखना इसलिए शुरू किया क्योंकि मुझे यही भाषा थोड़ी बहुत आती है. शब्दों के अर्थ भले समझ न आते हों पर उनके प्रयोगों को लेकर थोड़ा बहुत सचेत व्यक्ति ख़ुद को लगता हूँ. जो इस भाषा में नहीं कह पाता उन्हें चित्रों से बुनना सीख रहा हूँ. शब्द भी कठिन नहीं हैं. पर वाक्य की संरचना उन्हें जटिल बनती होगी. यह संरचना ऐसी गति को क्यों प्राप्त हुई, इस पर शोध करने का मन करता है. आपमें से कोई करना चाहे, उसका स्वागत है. जो नहीं करना चाहते, वह बस कुछ न कुछ पढ़ने की आदत बना लें. काम आएगी.

{बीतते हुए साल में. अँधेरे के साथ ठण्ड बढ़ने के दरमियान. शाम सवा छह के बाद. घड़ी देखते हुए. मेज़ पर. सीधे लैपटॉप वर्ड में टाइप करता हुआ. तारीख़ दिसंबर चौबीस. दो हज़ार सोलह.}

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

खिड़की का छज्जा

एकांत सा

सहूलियत

काश! छिपकली

सिक्के जो चलते नहीं

ईर्ष्या

छूटना