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नवंबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विद्रूप का शिक्षाशास्त्र

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हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, उसकी पहचान करने वाले कौन-कौन से औजार हमारे पास हैं! हमें एक बार फिर उन्हें दुरुस्त कर लेना होगा। हमें पता होना चाहिए कि हमारे साथ क्या हो रहा है! जो हो रहा है, वह इस पृथ्वी के किसी खास भौगोलिक खंड में एक नाम से पुकारे जाने वाले सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक निर्मिति के भीतर निर्मित होते एक देश में कैसे उसी आकार को प्राप्त हो रहा है? इसके लिए हमारी समझ में कौन-सी खिड़कियां काम आ सकती हैं? हम अपने आज में कल से आने वाली ध्वनियों को कैसे लिपिबद्ध करते हुए भविष्य की पदचाप सुन सकते हैं! शर्तिया यह काम किसी पीपल के पेड़ के नीचे नहीं होगा। यह शिक्षाशास्त्र हमारे विद्यालयों की कक्षाओं में निर्मित होगा। जरूरी यह है कि उन कक्षाओं में हमारे समाज की बुनावट के अनुरूप समान भागीदारी हो। अगर आज हम लिंग, भाषा, वर्ग, जाति, धर्म, संप्रदाय आदि को एक कक्षा के भीतर नहीं देख रहे हैं, तो हमें खुद से सवाल पूछना चाहिए। यह सिर्फ इस लिखी हुई हिंदी में नहीं, हर उस भाषा में पूछा जाना चाहिए, जिनके अंदर अपने देश के लिए कुछ सपने थे और सबके सपने मिल कर एक ऐसे राष्ट्र की संकल्पना को बना

कहानियों में..

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अब मैं ठहर कर सोचता हूँ. तब ठहरा नहीं था. जैसे तुम्हारी तस्वीरें देखते हुए अब कहीं गुम नहीं होता, वहीं कहीं छिप-सा जाता हूँ. तुम अन्दर हो. तस्वीर में कहीं खड़ी, कहीं बैठी. मैं कहीं नहीं हूँ. बस बाहर से झाँकता हुआ, तुम्हें देख रहा हूँ. अच्छा हुआ हम नहीं मिले. मिल भी जाते तो तुम कहाँ इन दीवारों में अटने वाली थी? कहीं कोई नहीं रोक पाता तुम्हें. तुम रूकती भी नहीं. मैं भी कहीं रुका नहीं हुआ हूँ. मेरी हैसियत मेरे जितनी ही है. मैं उसे अच्छी तरह समझता हूँ. वह जितनी भी है, ठीक है. असल में हम अपनी-अपनी कहानियों में रुके हुए होंगे जैसे. तुम न भी रुकी हो, मैंने तुम्हें वहीं रख लिया है. यह लगना, अब मुझे कुछ नहीं करता. उसका कोई एहसास मुझ तक नहीं पहुँचा पाता. दिन जैसे और बीतेंगे, उनमें शाम का रंग घुलता जाएगा. वह रात भी बनेंगी. वहीं रात कहीं गली के मुहाने पर तारों के झुण्ड में पतंग की तरह उलझे रहने से अच्छा है एक दिन की बरसात में भीग कर फट जाना. कोई तब कभी पहचान भी नहीं पायेगा, कौन सी निशानियों में क्या बचा रह गया. एक दिन म्युनिसीपैलिटी वाले आकर गड्ढे खोद जायेंगे, और तारें अंदर बीच जाएँगी. काम ख़त्म

मन मेरा

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क्या लिखने के लिए सोचना ज़रूरी है? यह प्रश्न जितना सीधा है, इसके जवाब उतने ही घुमावदार हो सकते हैं. मैं इससे शुरुवात क्यों कर रहा हूँ? शायद ऐसे ही शुरू करने के लिए. कहीं से तो शुरू होना ही है, यहीं से सही. पर ऐसी बात नहीं है. जब इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ, तब मेरे मन में वह बात घूम रही है, जब मैं कह रहा था कि लगता है, वैसा नहीं लिख पा रहा, जैसा लिख सकता हूँ. यह कब और कैसे तय हुआ होगा कि जो अभी तक लिखा है, वह वैसा नहीं है जैसा अभी तक नहीं लिखा गया है. एक के होने और एक के न होने पर ऐसी स्थिति आश्चर्यजनक स्थिति है. एक है, जिसे देख रहे हैं. पर कह रहे हैं कि यह वह नहीं है, जैसा लिखा जा सकता था. एक कहीं नहीं है. वह शायद जेब में, बगल में दबाये छाते, गले में लपेटे मफ़लर में कहीं छुपा होगा. पर उसकी निशानदेही न होने पर भी उसकी कल्पना कर अभी लिखे जा रहे को कमतर कहना कैसा होता होगा? होने से न होने तक पहुँचना शायद कहीं लेकर न जा पाए. दिमाग ऐसे ही कसरत करता रहे. पर क्या करें, यह काम भी किसी को तो करना था. हम ही इसे अपने जिम्मे ले लेते हैं. किसी को अपनी तरह इसमें फँसने के बाद दूर से देखने से बेहतर

लिखना

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कभी-कभी हम बहुत दूसरे 'मोड' में होते हैं. लिखने में अजीब क़िस्म का दोहराव दिख भी रहा होता है, पर जबतक यह किसी की पकड़ में आये, हमें ख़ुद इसे बदल लेना चाहिए. शायद यही मैं अपने साथ नहीं कर पा रहा. इस जगह जब आया था, तब एक जगह छोड़ चुका था. वह ऐसा लूप था, जिसके चक्कर में कई बारीक चीज़ें तो नज़र में आती रही होंगी, पर ख़ुद के अलावे कुछ और नज़र नहीं आता था. अब ऐसे में मन ख़ुद को कुछ इस तरह गढ़ने लगा कि ख़ुद को छोड़कर सब कुछ लिखने लगा. यह मेरे लिए उन दिनों के दबावों से छूटने के काफ़ी था पर इसके चलते कई और चीज़ों ने मुझे आकर घेर लिया. दिक्कत यह है कि यह बात बहुत अन्दर तक धँसने के बाद ही किसी चने के अंकुरित दाने की तरह रुमाल से बाहर आने के बाद ही दिख पाती है. मिट्टी, पानी, हवा में घुलते हुए उसका तनिक भी एहसास होता तो देखते क्या रह गया है. लिखने के दरमियान मैं ख़ुदको बहुत सचेत क़िस्म का लेखक मानता हूँ. जो बारीकी से चालबाजियाँ करने में माहिर ही नहीं है, चीज़ों को पैरों के नीचे ऐसे छिपा ले जाने में उस्ताद है कि पता तब चलता है, जब बगल में काँख के बाल दोबारा बड़े होकर चुभने लगते हैं. यह पन्ना लिखते हुए आ

सामने से

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समझ न आना दुनिया की सबसे बड़ी दिक्कत है. किसी के भीतर से आती एक लकीर का न समझा जाना. और इसे ख़ुद भी सुलझाने लायक बना लेने में कितना ही ज़ोर लगा लो. कुछ नहीं होता. यही मेरे साथ हो रहा है. यह इस कड़ी में आख़िरी पोस्ट समझी जाये, जिससे मेरा भी वक़्त बचे और आप सब भी बार बार इस कदर परेशान न हों. यह सारी कवायद क्यों हो रही है? क्यों हम इतनी जल्दी सब कुछ सुलझा लेना चाहते हैं? धागे हैं उलझ रहे हैं तो क्या? कहीं कोई होगा जो हड़बड़ी में कुछ जानकार ख़ूब हँस रहा होगा. पर हम जो हैं, वह सोचे जा रहे हैं कि बदलने से लेकर उन सारी दुनियाओं में बन रही या बन चुकी सँस्थाएँ किसी-न-किसी तरह कभी किसी व्यक्ति को एक इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करतीं. वह उनकी आड़ में कई सारे पैंतरों को चलाती हुई, हमारे अन्दर दीमक की तरह दाख़िल है. हमें वह रेशम का कीड़ा लगती है. हमें लगता है, हम कुछ करने की हैसियत में हैं पर हम देख नहीं पाते कि शुरू से हम बस इन साँचों में ढलने के लिए ख़ुद को तैयार कर रहे थे. इस अभ्यास को देखने के लिए किसी टेलीस्कोप की ज़रूरत नहीं है. यह हमारे खून के डीएनए की तरह हमारे चारों तरफ़ मौज़ूद रहता है. मौज़ूद तो हवा

व्यवहार

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जब संस्थाएँ और व्यवस्थाएँ अपना रूपाकार लेती हैं, या जब वह बन रही होती हैं और तब वह जिस रूप में हमारे सामने आती हैं, हो सकता है, जब वह पहली बार बन रही हों, तब उनकी शक्ल और सूरत वह न हो, जो हमारे सामने उभरकर आई है. यह भी कोई नहीं कह सकता कि इन संस्थाओं का विकास अविरुद्ध हो चुका है और इनमें परिवर्तन की कोई संभावना नहीं बची है. ऐसा बिलकुल भी नहीं है. उदहारण के लिए हमें ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्त हुए सत्तर वर्ष हो चुके हैं. जब मैं कहता हूँ 'हमें', तब यह सबको साथ लेकर चलने वाली बात नहीं, मेरी चालाकी भर रह जाती है क्योंकि अभी भी हमारे समाज में कई सारे लोग ऐसे हैं, जो अभी भी राजनैतिक रूप से इस आजादी को अपने अन्दर महसूस नहीं कर पाए हैं. हो सकता है, वह आर्थिक रूप से या सामजिक सांस्कृतिक रूप से आज भी कई सारे बन्धनों से जकड़े हुए हों. क्या आपको ऐसा नहीं लगता? अपने चारों तरफ़ नज़र दौड़ा कर देख लीजिये. अगर आँखों को तकलीफ़ नहीं देना चाहते तब अपने परिवार में तो झाँक ही सकते होंगे. देखिये. अपने परिवार की संरचना को पढ़ जाईये. मुश्किल नहीं है. कई सारी बातें रुई के फाहे की तरह उड़ जाएँगी. खाना कौन बन

व्यवस्था

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अगर हम दोबारा पिछली दोनों पोस्टों को एक साथ एक   के बाद एक   पढ़ जाएँ, तब भी क्या समझ में कोई विस्तार नहीं हुआ होगा? मुझे क्या लगता है कि कहीं कसर न रह जाये, इसलिए एक कोशिश फ़िर से कर लेना ठीक होगा. तो फ़िर से जुट जाते हैं.  देखते हैं, क्या बचा रह गया? मैं बस इतना कह रहा हूँ कि इतिहास के जानकार पूरी दुनिया में हुए अब तक के उन आविष्कारों को खोजें, जब इतिहास नहीं था और इतिहासकार इतिहास के आविष्कार के बाद उसे 'प्राग-इतिहास' कहा करते थे. तब जो खोज हुईं, वह मानव समुदाय की खोज थीं. जैसे आग, पहिया, पत्थर के हथियार, कच्चा माँस खाना, जानवरों की खाल के कपड़े, गुफाओं को रहने के लिए इस्तेमाल करना आदि. यह सूची आगे भी बढ़ सकती है. लेकिन थोड़ा आगे बढ़ते हैं और ज़रा ध्यान से देखिये, जब हम यायावर, घुमंतू, बंजारों की हैसियत से अगले चरण की तरफ़ बढ़ते हैं, तब हमें क्या दिखाई देता है? एक सीमित क्षेत्र है, कुछ प्राकृतिक संसाधन हैं. उनमें ज़मीन से लेकर पशु सब समाहित हैं. इन दोनों की सहायता से हम स्थिर होते हैं. जमीन और बीज के सम्बब्ध को समझते हैं. खेती करना शुरू करते हैं. ख़ुद को अभिव्यक्त करने के लिए हमारे

साँचा

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बात फ़िर कल रात से   शुरू करूँगा. कहते हैं, इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है. यह सारा मामला बस समझने और न समझने का है. हम चाहें न चाहें दुनिया इन्हीं दो के बीच बँट चुकी है. एक हैं, जो मानना चाहते हैं. दूसरे हैं जो नहीं मानना चाहते। दोनों अपने से अलग विचार रखने वालों को अपनी तरह करने के लिए आतुर हैं. यह आतुरता आदिम काल से लेकर आज तक वैसी की वैसी हिंसक, बर्बर, अमानवीय बनी हुई है. मानवीय इस दुनिया में कुछ भी नहीं है. सबकुछ इन्हीं तीन के बीच बँट सा गया है. हम ख़ुद  को अगर इन दोनों में कहीं स्थित करने की फ़िराक़ में हैं, तब हम बेवकूफ़ी कर रहे हैं. यह दोनों अवस्थाएं इतनी तरल हैं कि हम इन दोनों के बीच बहते हुए बने रहते हैं. हम अपनी सहूलियतों के अनुसार इस या उस साँचें में ढलते रहते हैं. हम बहुत तेज़ जीव हैं. चालाक। काइयाँ किस्म के. शातिर. चालबाज़. हम गिरगिट की तरह रंग नहीं बदलते, अपने आसपास की जगह को बदलने की फ़िराक में रहते हैं. गिरगिट होते तो क्या बात होती? हम कभी मानते हैं, कभी नहीं मानते हैं. हम इस बात को लेकर भी बहुत सचेत रहते हैं कि कब किस अवस्था में रहने का अधिक लाभ हमें मिल सकता है. यह फ़ायदा

बदलना

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एक दिन रहा होगा, जब कोई पहली बार इस भाव से भर आया होगा. अब हमें समाज दूसरी तरह से बनाना चाहिए. यह वाला ठीक नहीं चल रहा. यहाँ लोग वैसे नहीं हैं, जैसे हमने सोचे थे. यह दुनिया हमारी कल्पनाओं से कहीं ज्यादा बदतर है. अब हमें कई सारी चीज़ों पर दोबारा से सोचना होगा. नहीं. बिलकुल नहीं. ऐसा कभी नहीं हुआ होगा. कभी समाज ख़ुद को बदलने के लिए ऐसी बैठकें नहीं करता. कहीं कोई संवाद नहीं होता. कोई होता है, जो तय करता है, क्या करना है? कैसे करना है? सब मान भी जाते होंगे, ऐसा नहीं है. मानना ज़रूरी नहीं है. जो मनवाना चाहते हैं, उसके पास दूसरे क़िस्म के औज़ार होते हैं. हम भले अपने मनों में बर्बर वक़्त से लौट कर कहीं दूर चले आते हैं, पर बर्बरता के अंश हमारे अन्दर गहरे धँसे रह जाते हैं. वह उन्हें नए नाम देते हैं. हम जिसे आज तंत्र या व्यवस्था के नाम से जानते हैं, उसकी परछाईयों में खून के छींटे साफ़-साफ़ महसूस किये जा सकते हैं. हम थककर हारते हुए सहमत हो जाते हैं. कहते हैं, यहाँ भी सब मर रहे हैं पर यह परदा ऐसा है, जो सब छिपाए ले जा रहा है. यह ठीक है. अभी इसी से काम चला लेते हैं. जब यह भी झीना हो जाएगा, तब बदल लेंगे

गुलमोहर की पहली आहट

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तीन चार साल पहले ऐसी ही कोई शाम थी, हम हिंदी छोड़ कर एक-दूसरे विषय की तरफ़ झुके जा रह थे. प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार की पिछली क्लास का कोई खटका दिमाग में रह गया था, जो धीरे-धीरे शाम ढले विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पर आते-जाते लड़के लड़कियों और उनके पीछे की पढ़ाई से जुडी आकांक्षाओं को टटोलने की जद्दोजहद में कहीं थम सी गई बेकार सी शाम थी. हम आगे क्या करेंगे? एम एड के बाद करने के लिए सरकारी नौकरी है. मास्टर बनकर उसी में पिस जायेंगे. हर दिन वही सुबह से दोपहर की भागा दौड़ी होगी. सिर दर्द होगा आँखें भारी हो रही होंगी. बस लेटने को होंगे. कक्षा में थोड़े बच्चे होंगे, जिनमें हम कुछ संभावनाओं को देखते देखते ख़ुद बुझते चेहरों के साथ सालों बीतने के बाद यहीं कहीं शहर में टकरा जायेंगे. यह वही दिन थे जब जनसत्ता में हम आ रहे थे. हम लिखने को छोड़ नहीं रहे थे. फ़ेसबुक हमेशा से वक़्त की किश्तों में सबसे जादा चोरी करता लगता तो उसी को किनारे करके लिखने पर पिल पड़े. बीच में आलोक केरल चला गया. वहाँ से कहीं घूमने जाता तो लिखता. मैं यहाँ दिल्ली ही रुका हुआ था. यहीं से कमरे के बाहर अंदर की दुनिया लिखता रहा. पर कहीं न कहीं

गुम होना

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वह ऐसे ही गुम हो गया होगा जैसे कॉमा गुम हो जाते हैं, किन्हीं भारी भरकम पंक्ति के बीच. पंक्ति छोटी भी हो तब भी कभी-कभी अर्द्धविराम कहाँ दिखाई देते हैं. वह भी किसी को नहीं दिखाई दे रहा होगा. वह शायद किसी श्वेतवर्णी अभिनेत्री की गर्दन पर रह गया तिल होगा. एक शाम मेकअप एक्सपर्ट ने क्रीम लगाकर उसे छिपा दिया होगा. अगर वह तिल नहीं है, तब वह इस भीड़भाड़ वाले शहर में कुछ भी हो सकता है. हम चलते हुए भी तो इस शहर में कितनी चीज़ें नहीं देखा करते. बस देखते हैं तो किसी लड़की के कन्धों से झाँक रहे कपड़ों का रंग. किसी की जांघों की मोटाई. उसकी ऊँगली में पहनी हुई अँगूठी. हम बेशर्मी की हद तक जाकर किसी साईट पर जाकर ख़ुद को नंगा करके देख आते हैं. हमें कहीं नहीं दिखती किसी लड़की के जूड़े में एक भी जूं. दिखती है उसकी माँ की उम्र. दोनों की त्वचा में कोई अंतर न देख मन में गुम होने लगते हैं. कुरेदकर वापस लाते हैं, जो गुम हो गया है. हमें कहाँ दिख पाता है, सड़क पर कोई गड्ढा. हम उसे महसूस करने के एवज़ में परेशान नहीं होते. बस हम उसी गड्ढे में एक रोड़ी होकर, किसी को नहीं दिखना चाहते. लेकिन वह वहाँ से भी देख रहे होते ह

दिल्ली इन दिनों

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कल शनिवार हमारी दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी बनकर उभरी. साँस लेने को हवा भी नहीं हैं यहाँ. जिधर देखो, उधर धुएँ की सफ़र चादर. सवाल किससे करें? किससे पूछें, यह क्या किया हम सबने? कैसे यह सब ठीक होगा? कहीं किसी बस स्टॉप पर धूम्रपान न करने के लिए शुक्रिया पढ़कर दिल रोने को हो आया. हम सब एक ऐसी जगह हैं, जहाँ हर पल इतना धुआं अपने फेफड़ों तक खींच कर ले जा रहे हैं, उसे कितनी सिगरटें नाप सकेंगी, उन्हें हम गिन भी पायेंगे? गिनने की ज़रूरत क्या है? एक दिन तो मरना ही है सबको. सिगरेट से मरें या इस ज़हरीले धुएँ की कैद में तिल तिलकर छटपटाते रहें, किसी को कोई फर्फ़ नहीं पड़ता. एक क्षण ऐसा भी आएगा, जब हम इस धुएँ में विकास के गुब्बारों और प्रगति सूचक छल्लों को उड़ता हुआ देखेंगे. यह विकास के अप्रतिम उदाहरणों और सिद्धियों का ही परिणाम है, हम सब यह सफ़ेद दिन देख पा रहे हैं. यह उदासी नहीं, मौत से पहले की शान्ति है. यह हमारी सामूहिक कब्रगाह है. मरने से पहले हमने धुएँ की सफ़ेद चादर अपने ऊपर ओढ़ ली है. घरों की खिड़कियों पर परदे चढ़ाकर चुपके से कबूतर की फितरत हमारे अन्दर दाख़िल हो गयी है. कोई नहीं बच पायेगा. क

ऐसे लिखो

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पिछली पंक्तियाँ   किसी ख़ास के लिए थी. वह क्यों नहीं लिख पा रहा, इसके कारणों की तह में जाने से पहले ही नींद जो सिर से उतरकर आँखों तक आ गयी थी, उसी मज़बूरी से कुछ और कहता, इससे पहले ही सो गया. तबसे खाली कहाँ बैठा हूँ. सोचे जा रहा हूँ. शायद इसे ही बेचैनी कहते होंगे. जब लेटने पर लगे, गद्दा कहीं से उठ गया है. पीठ में चुभ रहा है. अब सोया नहीं जाएगा. चुपचाप उठ जाओ और जो मन कर रह है, उसे कह दो. जब तुमने सोचा होगा, अभी मुझे कुछ नहीं कहना कुछ दिन चुप रहकर यह सब जज़्ब किये जाना है. कैसा होगा वह पल जब तुम इस बात से भर गए होगे. पढ़ते हुए लिखना शायद सबसे आसान काम है. हो सकता है मेरे लिए यह सबसे मुश्किल बात हो, पर जिस तरह तुम अपनी उम्र में नयी दुनिया तक पहुँचने के रातों को टटोल रहे हो, तुम्हारे दिलो दिमाग में कोई हलचल न हो, ऐसा हो नहीं सकता. कुछ तो मन में होगा. ज़रूर होगा. हो सकता है, तुम इसी से परेशान हो और कहीं भी ख़ुद को व्यवस्थित न कर पाने की वजह से यह बात तुम्हारी हथेलियों में उग आई हो. पर अगले ही पल तुम्हें सोचना चाहिए, जिन औजौरों से तुम इस दुनिया को देखने चले थे, जहाँ से शुरू हुए थे, वह इ

न लिख पाना..

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न लिख पाना ख़ुद में खो जाना है. यह ढूंढें से भी नहीं मिलने वाला. कहीं कुछ खोया हो तो हम उसे बाहर पा सकते हैं. जो अन्दर ही है, उसे अंदर से ही निकलना होगा. कोई दूसरा उसे छू भी नहीं पायेगा. वह कहीं कमरे में बैठा होगा. परेशान सा. कुछ भी न करने कहने के मन के साथ, उदास हो जाती छिपकली के सहारे, दिवार पर टकटकी लगाये उसकी आँखें थक गयी होंगी. गर्दन एक तरफ़ झुके-झुके दूसरी तरफ़ देखने को होगी, पर कहीं यह भी कहीं खो न जाये. इस डर से वह डर गया होगा और एक ही धागे से वह सब कहीं बांध आया होगा. सपने, खीज, एक टूटा नाख़ून, दो जोड़ी चप्पल. अब उसकी जेबों में कुछ भी नहीं है. एक घर की चाभी थी, उसमें एक दराज़ था, जहाँ स्याही वाले दो कलम थे. अब न कागज़ है, न उसके हाथों की छुअन है, न कोई कागज़ का कतरा बचा. सब भीग गया. उसके ख़याल भी बारिश की तरह देर तक खिड़की के बाहर बरसते रहे. वह कुछ कहता इससे पहले उसकी बहन छाते पर चार बूँदें ले आई. भईया के मन की बात कहाँ मिलती इतनी आसानी से. वह छिपाकर रात को देखेगी इन्हें.