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नवंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यहां

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शाम ख़त्म होने को है। यहां मेरे बगल से दो बंदर गुजर रहे हैं। एक के पीछे एक। शायद दोनों भाई होंगे। दोनों सड़क पार कर गए। एक साथ। मैं यहां आकर एकदम 'मिसफिट' हो गया हूं। जो भी मुझ से मिल रहा है, वह जानना चाहता है, मैं अचानक कैसे आ गया? अगर आया हूं, तब कोई न कोई काम तो ज़रूर होगा। वह मुझसे वह काम जान लेना चाहते हैं। वह लोग जो खुद यहां बेकार बैठे हैं, उनकी नजर में किसी और को बेकार नहीं बैठना चाहिए। यह मैं समझ रहा हूं। तब मैं यहां क्या कर रहा हूं? क्यों आया हूं यहां? यह कोई दार्शनिक सवाल नहीं है। उनकी जिज्ञासा है और मेरे लिए यह सब लिख पाने का बहाना भर। इससे ज़्यादा की मेरी हैसियत नहीं है अभी। इन तीन दिनों में यह तो तय बात है कि उनके रोज़ाना में मेरे लिए कोई जगह नहीं है। हमारे घर भी कोई आता है, तब हम भी बिलकुल ऐसा ही करते। वह अपना रोज़ाना बना सकें, इतना मौका तो उन्हें मिलना ही चाहिए। मतलब, वह मुझे मौका दे रहे हैं। फिर यह जो मौसम है, इसमें ठंड अभी शुरू हो रही है। सबके पास एक-दूसरे के खूब खूब न्योते हैं। कहीं गौना है। कोई बारात जा रहा है। कहीं बहु भोज है। कोई भंडारा करवा रहा है।

सफ़र

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गाड़ी वक़्त से पहुंच गई। पांच मिनट की देरी कोई देरी नहीं होती। भारत में इसे वक़्त पर पहुंचना ही कहते हैं। ख़ैर। अकेले ही दोनों झोलों को कंधे पर टांगे प्लेटफॉर्म नंबर एक पर आया। यहां से बाहर निकल गया। कैसरबाग से बहराइच की दो बसें थी। एक वातानुकूलित। दूसरी साधारण। हम दूसरी वाली में चढ़ गए। बस टू बाय टू थी।  बस अड्डा एकदम बदल गया है। अपने आप खुलने बंद होने वाले दरवाजों के बीच में लगभग सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था है। आदमियों को अब पेशाब करने के लिए दीवारें नहीं खोजनी पड़ेंगी, न उन्हें गीली करने का ख्याल अपने मन में लाना होगा। यहीं, इसी बड़े से हॉल के एक किनारे पर बने शौचालय में मुफ्त सुविधा दे दी गई है। इससे कितना श्रम और रचनात्मक ऊर्जा का संरक्षण हुआ या अलग गणना का विषय है।  ख़ैर। बस आठ बजकर तीस मिनट पर चल पड़ी। मेरे बगल की सीट पर एक लड़का बैठा था, वह मेरा फोन देखकर उसके बारे में पूछने लगा। वह भी नोकिया लेता। पर तब तक आया नहीं था। सैमसंग का फोन लिया था, अब चलाना पड़ रहा था। उसके पिता जी की तबीयत ख़राब थी। वह इमरजेंसी में गांव लौट रहा था। यह बात बस चलने से पहले हम कर चुके थ

जाना

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यह जाना अक्सर सफर में होने जैसा है। जैसे ही यह भाव मुझमें भरने लगता है, मैं कुछ कम होने लगता हूँ। उन क्षणों में वह कल्पना भी मेरा साथ नहीं दे पाती, जहाँ अपनी अनुपस्थिति को इसके सहारे भरने को होता हूँ। अगले दस दिन जहाँ नहीं हूँ, वही रिक्तता बनकर मेरे रोयों में भर रही है। इस कुर्सी मेज़ के इर्दगिर्द खुद को समेटे मेरे दिन, रात, शाम सब यहीं रह जाएँगे। ऐसा भी समझ नहीं पाता हर बार मुझे वही भाव लिखने का मन क्यों होता है जब थोड़ी देर में चलने वाला होता हूँ। यह क्षण मुझे सबसे ज़्यादा घेरते हैं। अपनी तरफ़ खींचते हैं। कल जब घर से दूर कहीं शाम ढल चुकी होगी, तब किन ख़यालों में डूब रहा होऊंगा? यह कल शाम को अभी से अपने मन के कैनवस पर ढाल लेने की ज़िद नहीं हैं। बस यह ऐसी ही कोई इच्छा है। ऐसे बहुत सारी इच्छाओं से उन गुज़रते लम्हों में उतरता जाऊंगा। कोई भी नहीं होगा। जो किसी दरवाजे खिड़की के सहारे अंदर दाख़िल हो जाये। दोपहर या उसके घटित होने से काफ़ी पहले किसी क्षण गाड़ी घगरा का पुल पार करेगी। फ़िर मेरे सामने वह सारी स्मृतियाँ घूम जाया करेंगी। यह तब सबसे मुश्किल पल होते हैं, जब आप अकेले सफ़र कर रहे होते हैं। कि

इतवार

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हफ्ते में एक यही दिन है, जिसका इतिहास हम सब अपने भीतर हर इतवार लिख रहे होते हैं। बहुत सी यादें बेतरतीबी से हमने इस दिन के साथ जोड़ कर रख ली हैं। यह हमारे स्मृति कोशों में सबसे यादगार पलों को अपने अंदर समेटे हुए है। जब भी इन दिनों जिनमें, नवंबर सूरज के साथ इन सुनहरी दोपहरें ले आता है, अपने अंदर हम खो रहे होते हैं। हम छत पर चारपाई डाले अलसाए से बैठे हैं। मूँगफलियाँ अभी निकली नहीं हैं। तिल पट्टी पापा लाये थे, मिल नहीं रही। तब भी वहीं पीठ किए ऊँघते रहने में अपना सुकून है। खाना खाकर कुर्सी पर बैठे किसी मेहमान का इंतज़ार कर रहे हैं। वह आज आने वाले हैं। अभी तक नहीं आए। पर कहा तो आज ही था। आखिरी इतवार आपके यहाँ आऊँगा। शायद भूल गए होंगे। नहीं, भूलते नहीं हैं। चलो, नहीं आए हैं तो आ जाएँगे। कितनी सारी बातें इन सर्दियों में आए मेहमानों की शुरू हो जाती हैं। जब नया टीवी लिया था, तब गाँव से चन्द्र्भान आए थे। तब ठंड थोड़े थी। ठंड नहीं थी, तब क्या? इतवार तो था। अपने इतवारों को याद करता हूँ, तब वह अरुण के यहाँ तक जाती हैं। कितने ही इतवार हम दरियागंज होते हुए लाल किले के परकोटों में बैठे रहे। एक-दूसरे

दृश्य

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शाम उठा। खिड़की के बाहर छत पर अंधेरा उतर रहा था। ख़ुद में उस अंधेरे को उतरने दिया। आँख में नींद नहीं थी। आलस था। बैठा रहा। थोड़ा टहलने का मन था। बाहर गया। दो चक्कर बाद वापस अंदर आया। यह शाम वहाँ कैसे आएगी? अभी कैसे आ रही होगी। उस जगह को अपने मन में ठहराते हुए उन सभी के धुँधलाने के बाद लेट गया। ठंड की शामें हमें समेट देती हैं। अपने अंदर तक उन बीते दिनों की स्मृतियों की आहट में कुछ देर पुआल पर ऊँघते हुए महसूस कर रहे होंगे। वह आग जला कर बैठे होंगे। एक घेरे में। रजाईयों में दुबक कर बड़े बुज़ुर्गों नें उन्हें ओढ़ लिया होगा। कुछ आवाज़ें उनके फेफड़ों से होकर उस गुजरती हवा के एहसास को बनाए रखेगी। दिल की धड़कनों को वह भी महसूस कर अगली सुबह थोड़ी देर और लेटे रहेंगे। हवा नहीं चल रही। ढबरी में लौ इतनी झिलमिला नहीं रही होगी। लेकिन वह अब ठंडी है। सूरज ढल जाने के बाद आसमान से गिरती सीत में भीगते हुए उसे लौटना कभी अच्छा नहीं लगा। हर रात उसकी एक नाक इसी वजह से बंद हो जाती। इस अँधेरे में एक पीली सी चमक है। उसका छोटा सा घेरा है। उसी के सबसे किनारे वह बैठी हुई है। कल सब गौना करा लाये हैं। चूल्हे पर रखी बट

मन

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यह जो भाग लेने वाला मन है, कभी तो यह ओस की तरह दिख जाता है। यह ऐसा एक दिन में तो बना नहीं होगा। इसमें ऐसा क्या है, जो यह मुझे अपनी तरफ खींचे रहता है? इसके पीछे छिप जाने की आदत का क्या करूं? यह अपने अंदर मेरी सारी इच्छाओं को छिपाए हुए है। कोई देखे न देखे, वह वहीं सिमटी पड़ी रहेंगी। उनका किसी मेज़ पर अनपढ़ी किताबों की तरह रहना किसी को भी खल जाएगा। मुझे भी खलता है। इसलिए यह जो कहता है, कर लेता हूं। हर बार ऐसा करना आसान नहीं। फ़िर भी कुछ तो किया ही जा सकता है। सब कहते हैं, यह हममें से किसी ने देखा नहीं है। मैंने भी नहीं देखा, ऐसा नहीं है। इसे कई बार दृश्यों में देखता हूँ। उन दृश्यों में जिनमें मेरे कई सपने बंद हैं। वहाँ करने के लिए मेरे पास बहुत सारी चीज़ें हैं। जिन्हें इस ज़िंदगी में शायद ही पूरा कर पाऊँ। जैसे एक दृश्य में इस धरती को तुम्हारे साथ चाँद से देख रहा हूँ। इतनी ऊपर से देखते हुए भी अपने घर को पहचान जाना, हम दोनों को एक साथ आश्चर्य से भर देता है। उसी मन में एक और ग्रह पर जाने की तमन्ना है। हम इस पृथ्वी को छोड़े वाले आख़िरी मनुष्य हैं। हमारे जाने के साथ ही यह पृथ्वी अपने एकांत

डायरियाँ

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उस रात फोन पर बात करते हुए सिर्फ़ अपनी कहीं पुरानी बात दोबारा दोहरा रहा था। कभी कागज पर अपना लिखा हुआ पढ़ने की इच्छा मुझमें नहीं बची। यह इच्छा से अधिक उस लिखे हुए से घृणा जैसे भाव का मेरे अंदर भर जाना है। यह किस तरह का लिख रहा हूँ, जो मुझे किसी भी तरह की ऊर्जा से भर नहीं रहा। मैं जब भी कोशिश करता हूँ एक दो पंक्तियों से अधिक नहीं पढ़ पाता। पिछली दोनों डायरियाँ मेरे सामने अलमारी में रखी हुई हैं। एक शाम मन किया, ज़रा देख लूँ। क्या लिखा गया है उन बीतती घड़ियों में? एकदम से मन उचट गया। इसे किस तरह लेना चाहिए? मैं जो जी रहा हूँ, उसे ही लिखने की कोशिश करता हूँ। जितना लिख पाता हूँ, उसमें मेहनत से ज़्यादा उन क्षणों को अपने अंदर दोहराते रहने की पीड़ा मुझे संताप से भर देती है। यह कैसे दिन हैं, जो अतीत में भी हुबहू वैसे ही थे, जिनमें बीत रहा हूँ? उनमें ऐतिहासिक रूप से अलग समय बोध है, मगर परिस्थितियों में कोई अंतर नज़र नहीं आता। ऐसा क्यों हुआ होगा? इसे समझने की ज़रूरत है। यह लिखने का कारण और उस लिखे जाने के बाद न पढ़ पाने की प्रक्रिया को विस्तार से कह जाने के बाद ही कुछ रेशे पकड़ में आएंगे। ख़ुद से पूछना

स्मृति

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मैं दोबारा उस भाव से भर जाना चाहता हूँ, जब मेरे अंदर पहली बार तुम्हें छूने की बात उग आई होगी। उन्हीं स्मृतियों में वापस लौट जाने की इच्छाओं से भर गया हूँ। उन दिनों कैसे डूबे-डूबे रहते और शामें डूब जाया करती। यह जो बीते कल में वापस चले जाने की इच्छा है, वह इस निर्मम समय में ऐसे ही नहीं चली आई होगी। कोई कतरा मुझमें कम रह गया होगा, जिसे तलाशने वहाँ लौट जाना चाहता हूँ। यह इच्छा आज मुझमें है, कल तुममें हो सकती है। हो सकता है, यह कल तुममें रही हो और आज तुम्हारे जरिया मुझमें आ गयी हो। बस सोच रहा हूँ और किस बिम्ब से इस बात को कहा जा सकता है? इस सबमें एक रात ऐसी होगी, जब हम सब इसी तरह भर जाएँगे। यह छूना अपने अंतस को छूने जैसा होगा। जैसे छूएँगे, पानी जैसे अपने मन को। उसकी तरलता में जो नमी होगी, उसी में रखकर अपनी बात तुम तक पहुँचा दूंगा। वह शब्द किसी को दिखाई नहीं देंगे। वह स्पर्श की तरह मन पर अंकित होकर उसी में समा जाएँगे। यह क्षण मेरे हृदय की सबसे कोमलतम अनुभूति बनी रहें और तुम तक इसी तरह वहाँ उतरती रहो। इस उतरने में न तुम अकेली रह पाओगी, न मैं। हम साथ-साथ उन ओस की बूंदों को अपनी हथेल

रात ख़याल

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रात इसी तरह मेरे अंदर होकर गुजरती है। स्याह। काली। अँधेरे से भरी। उसके हर गुजरते पल में अपने अंदर टूटते हुए बस बिखरने से बचने की फ़िराक़ में लिखना छोड़ दिया है यह सब। यह छूटना मेरे अंदर छूटा नहीं। स्थगित हो गया। अभी कुछ देर पहले, बस इस पर सोचते हुए यही लगा कि ऐसा होने से क्या हुआ होगा मेरे भीतर? शायद यह मेरा खुद से बचने का तरीका है । मैं खुद को उन सब स्थितियों से बहुत अलग कर लेना चाहता हूँ और अभी भी ऐसी किसी बात का ज़िक्र नहीं करना चाहता, जो मेरे अंदर खुद को बुन रही है। यह मेरी सीमाओं को टटोलने जैसा बिलकुल नहीं है। असल में इसमें कुछ दम ही नहीं है। बात सिर्फ़ इतनी है, रात के इन पलों में तुम्हारी कमी को इतनी पास से देख रहा होता हूँ। यह रात ही है, जब मेरे अंदर का कोलाहल एकदम इस अँधेरे में डूब रहा होता है। रात में अँधेरे जैसी फैली शांति में कुछ ऐसा है, जो मुझे किसी खोल की तरह लगता है। मैं ख़ुद को इन पलों में बहुत निकटता से देखना चाहता हूँ। बहुत पास से देखने पर हर बार तुम ही नहीं मिलती । हर बार तुम्हारा गैर-मौजूद रहना, मेरे बिखरने को रोक नहीं पाता। यह जो बहुत असपष्ट अधूरी सी बातें हैं, इनके ब

कमीज़

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अक्सर वही शर्टें यादों में लौटकर वापस आती रहीं, जो किसी तस्वीर में कहीं दर्ज़ रह गईं। यह कमीजें पासपोर्ट साइज़ की उन तसवीरों में सबसे ज़्यादा वक़्त के लिए खुद को समा लेती हैं। उन्होंने ख़ुद को वहाँ टाँक लिया हो जैसे। हरी मस्जिद, चूना मंडी की सरदारी जी की दुकान से हमारे घर की अलमारी में रखे उस पीले लिफ़ाफ़े तक। इतनी सारी फोटुएँ इतनी जल्दी खत्म भी नहीं होती। इस बार नहीं हुआ, तब अगली बार फ़िर भरते हुए। एक फ़ॉर्म से दूसरे फ़ॉर्म तक। हम ऐसे ही इन्हें सबसे ज़्यादा जानते हैं। मैं उन सारी तसवीरों को एक साथ यहाँ देखना चाहता हूँ। पर अभी सिर्फ़ एक दिख रही है। यह शर्ट मार्च चौदह में ख़रीदी थी। सोचा था, शादी के बाद कहीं घूमने जाएँगे, तब इसे पहनुंगा। करोल बाग से ली इस शर्ट के साथ दो कमीज़ें और थीं। वह भी इसी इरादे के साथ ली थी। पर जैसे बहुत सारी बातें मेरे मन मुताबिक नहीं हुईं, वैसे ही हम दिल्ली लौटे पर कहीं घूमने नहीं जा पाये। यह तीनों कमीज़ें किसी बक्से में तब से पड़ी रहीं। अटैची भी हो सकती है। याद नहीं आ रहा, कहाँ रख दिया था। अभी पिछले साल गाँव गए। तब पता नहीं कहाँ से यह कमीज़ें बाहर आ गईं। यह बात अक्सर मेरे

आगरा बेकार

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इस बीतती रात जब पापा के खर्राटों के बीच जल रही एक ट्यूबलाइट में कुछ ऐसे ही ख़यालों में डूब रहा हूँ, तब मुझे न जाने कैसे उस शहर के वह दोनों लोग दिख गए। वह हमारे सामने अपने शहर को कतई खुलने नहीं देना चाहते। हम भूख से एकदम छटपटा रहे थे, जब हमने उस ऑटो वाले से एक ठीक-ठाक खाने की जगह पूछी। वह पता नहीं क्या सोच कर एक जगह ले आया। खाना एकदम बेस्वाद था। दाल में ही थोड़ी सी वह जगह बची रह गयी थी, जिसमें हमें डूब मरना था। पर बच गए। वह कमीशन के मारे हमें वहाँ ले आया होगा। वरना खीरा बेचने वाली अम्मा ने बिजलीघर चले जाने को कहा था। कहा था, वहाँ बढ़िया खाना मिल जाएगा। मैं इस शहर को उस तांगेवान से भी नहीं जोड़ना चाहता। जब हफ्ता भर पहले वहाँ से लौटा, तब सोचता था, इनके लिए अपशब्दों से अपनी बात शुरू करूंगा। पर ठहर कर लगता है, वह उस शहर में जिंदा रहने की जद्दोजहद में इस युक्ति को अपना रहे हैं। वह ख़ुद को इन दुकानों पर बेच रहे हैं । उनके लिए एक ही रटी-रटाई लाइन है। यहाँ पंछी पेठे की बारह दुकाने हैं। हम बताएँगे बाबू जी, कौन सी असली वाली है। दूसरी में वह चमड़े का सामान बेच रहे होते हैं। पीछे कारख़ाना है, आग

मुक्तिबोध को भूलते हुए

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आगे लिखी पंक्तियाँ किसी दबाव में नहीं लिखी गई हैं। बस लिख दी जा रही हैं। मन किया जो भीतर चल रहा है, उसे कह दिया जाये। जिसके पास होने से यह लिखना अभी तक मेरे अंदर बचा हुआ है, उसे आखिरी बार पढ़ने के इतने सालों बाद भी वह आज कहाँ है? इस पूरी प्रक्रिया में खुद को ही स्थित कर रहा हूँ। एक कवि जिसे हम कवि की तरह नहीं, अपने में उग आई खिड़की की तरह देखने लगते हैं, क्या एक ऐसा वक़्त भी आता है, हम जिसे इतनी पास महसूस करते रहे हों, उसे भूलने लगते हैं? यह भूलना असल में भूलने की तरह नहीं है। इस भूलने में उसका पीछे की तरफ़ खिसक जाना है। मेरा मन अभी उसे कहीं देख नहीं पा रहा। वह कहाँ है अभी। इतना पता है, वह कहीं दिमाग के पिछले हिस्से में मेरे इन दिनों के बोझ में दब गया होगा। यह मुक्तिबोध के साथ होगा, ऐसा लगता न था। पर आज इस पल सोचने पर यह ऐसा ही लग रहा है। पता है, मुझे सबसे उनकी सबसे अच्छी तस्वीर कौन सी लगती है? जिसमें वह पति-पत्नी दोनों हैं। वह शायद खड़े हुए हैं या बैठे हैं, अभी याद नहीं आ रहा। शायद बैठे हुए हैं। कल संजीव सर ने 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' कविता संग्रह की सन् इक्कयासी में छपे सातवें