गाँव की तरफ़..

दो दिन बाद हम गाड़ी में होंगे। गाड़ी हमें गाँव ले जा रही होगी। गाँव नहीं, गाँव की तरफ़। यह गाड़ी कभी हमने भाप वाले इंजनों से भी चलती देखी हैं। धुआं भी था। पानी भी। हम बहुत छोटे रहे होंगे। चौथी पाँचवीं तक। छुटपन की याद क्यों रह गयी कभी-कभी समझ नहीं पाता। इतने अन्दर तक उनका धँसे रहना। हम शहर के भीतर अपने भीतर खाली जगहें इसी से भरते रहे। भरना हवा की तरह तरह दिखता नहीं है फ़िर भी वहीं होता है। इस गरम होते दिन में उन स्मृतियों तक चले जाना भावुकता का सवाल नहीं है।

दरअसल यह कोई सवाल ही नहीं है। हम लगता कहीं से यहाँ छिटक पड़े। मन बेसबर होता रहता। ऊब, कमरे में बंद रहने, बाहर न निकलने की ज़िद किस तरह हमें गढ़ती रही, कोई नहीं बता सकता। हमने यहाँ से दूर एक जगह खोजी और उसे नाम दिया, गाँव। बाबा-दादी से लेकर हमारी सारी यादों का पिटारा। बक्सा। मसेहरी। हम अपने आपको वहाँ खो देते। ताकि ऐसी चीज़ों तक पहुँच सकें, जहाँ गुम हुए बिना पहुँचना आसान नहीं रहता। यह हमारे लिए ख़ुद को जानने के मौके होते। जो हम यहाँ कभी सोच भी नहीं पाते, उस तक चले जाने के बहाने खोजते। अपनी सीमाओं को खींचकर उन कोनों में ले जाते। वहाँ हम जाते क्यों थे(?) इसे प्रश्न की तरह पूछा जा सकता है। शायद पापा उन महीनों में कुछ यादों को बना लेने का मोह छोड़ नहीं पाते होंगे। अब मम्मी गाँव जाने को किस तरह लेती होंगी, समझ नहीं पाता। पापा आज भी साल में दो-चार बार चले जाते हैं। दादी के जाने के बाद माँ उनसे किया कोई वादा निभा रही हैं शायद। अब न नानी बची हैं, न नाना। मामा की शादी नहीं हुई। वरना वही कोई बहाना हो आते। 

इसबार सोच रहा हूँ, एक दिन, ढले उस पुल पर खड़े होकर उन गुज़रते सालों को अपने अंदर गुजरने दूँगा। उस नहर के पुल ने कभी सेवढ़ा को छुआ भी नहीं। पानी ने भी नहीं। लगता वहाँ कुछ नहीं बचा रह गया। बस वह एक ढलान बची रही, जिस पर किसी ज़माने में ‘हीरो मेजेस्टिक’ पर हम सबी बैठे हैं और उन यादों में डूब गए हैं। अचानक अन्दर कई छवियाँ घूम गयी हैं। पता नहीं दिमाग में यह चित्र कहाँ और किस तरह उभरते हैं पर वहीं घर के बाहर चारपाई पड़ी है। एक प्लेट में पेड़े हैं। गिलास में पानी आता है। उस स्वाद को पता नहीं फ़िर कभी महसूस ही नहीं कर पाया। मीठे घुलते पेड़ों के बाद पानी के घूट। फ़िर थोड़ी देर में रात होती इमली का पेड़ होता। तारे होते। अँधेरा होता। पास ही एक बड़ा ट्रैक्टर होता। ट्रैक्टर कितने अमीरों का खेती का साधन लगता। उतने पैसे हमारे यहाँ होते तो नाना-नानी इतने गरीब नहीं होते। गरीबी पैसों की थी। कई दरवाज़े पैसा भी खोलता है। पैसा इतनी निर्मम संरचना बनकर उभरता कि उसके ताप से आज भी हमारे यहाँ कितनी बार सब झुलस चुके हैं। रोज़-रोज़। 

ऐसे ही एक बार मेरे मन में नाना के मर जाने के बाद बिफय घुस आया। पता नहीं कहाँ से। सोचता, नानी मामा के साथ कैसे बाज़ार में दुकान लगाती होंगी। कैसे वह जगह अब दिखाई देती होगी। दिन कैसे बीत रहे होंगे। रातें वहीँ तो नहीं रह गयी होंगी। कुछ करने की हैसियत तब तो क्या ही रही होगी, जब आज तक कुछ नहीं कर पाया। पर सोचता। ख़ुद को अकेला करके सोचता। सब पर गुमसुम होकर लिखता। उन भावुकता के क्षणों में पता नहीं कितनी तरह की बातें घूमा करतीं। इस तरह मेरे अन्दर काफ़ी कुछ टूटता-फूटता रहा। उसे लिखना जितना कम किया, सब बातें कहीं पीछे रह गयीं। वह नज़र भले न आयें। पर वह वहीं हैं। पीछे रहना, न दिखना, उनका गायब हो जाना नहीं है। वह तबतक मन में रहेंगी, जब तक हम हैं। उनकी तीव्रता या गति इसी सबमें कहीं परतों पर अपनी रेखाएँ छोडती जाएँगी। वह यहाँ इस क्षण क्यों आयीं इसका भी अपना कोई विश्लेषण होगा। 

पर न अभी अवकाश है न मन। मन में बस वह पुल घूम रहा था। पुल जिस पर हम कई साल हुए वापस नहीं पहुँचें। कई किश्तों में उस पुल के ऊपर की मनघडंत यादें ऊपर नीचे होती रहीं। हो सकता है, यही कारण रहा होगा। वरना गाँव सिर्फ़ दुःख की स्मृतियों का पुंज नहीं है, वह कल्पनाओं से उन खाली जगहों को नए सिरे से रचने का अवसर है। एक बहना। इस दुनिया में अपनी दुनिया बना लेने की ज़िद जैसे। फ़िलहाल इतना ही। बाकी धीरे-धीरे। कभी।

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