गाँव से आने के बाद

गाँव से आये चार दिन हो गए हैं और कुछ भी कह नहीं रहा हूँ। बिलकुल चुप हूँ। जितना जाने से पहले सोचा था, उसमें क्या हासिल हुआ कोई हिसाब नहीं। दो साल बाद वापस जाना कितने अजीब तरह से हमारे अन्दर घर कर गया उसे कहने के बजाये अंदर-ही-अंदर उधेड़बुन में खो गया जैसे। जैसे अभी भी सब सामने चल रहा हो। बिलकुल सामने। 

हमारी इच्छाएँ कभी मरती नहीं। उसी में एक मासूम-सी इच्छा रही, सब वहीं के वहीं थम जाएँ जैसे हम उन्हें छोड़ कर आ रहे हैं। इन बीते दिनों में लगा इसमें अधूरापन है। इसे कैसे कम करता? बस इसमें एक इच्छा और जोड़े दे रहा हूँ। कि वहाँ उनकी सीमा से निकलते ही इधर हम भी थम से जाएँ। जब-जब हम आमने-सामने हों बिलकुल वहीं उसी बिंदु से सब दोबारा शुरू हो जाया करे। हम एक-दूसरे की नज़रों से ओझल होते ही ‘फ्रीज़’ हो जाया करें तो कितना अच्छा होता। होता न? अन्दर ऐसा क्या घटित हो रहा है(?) जिसे कह नहीं पा रहा समझ नहीं पाया अब तक। वहाँ तो शुरू के तीन दिन हर शाम कुछ कुछ वर्ड फ़ाइल में टाइप करके रखता रहा। अब उन्हें साझा करने का मन नहीं है। 

आज भी पूरे दिन क्या किया? यह इन चार दिनों में पहली बार है जब घर पर पूरा दिन रुक गया। यहीं ऊपर वाले कमरे में सुबह आठ बजे से जो बैठा हूँ अभी आठ बजने को हैं, उस मेज़ से हटा नहीं। वहीं यह लिखना चल रहा है। यह घण्टों बैठे रहने की आदत कहाँ से बन गयी, जब कुछ न भी करो, तब भी दिन कट जा रहा है। कटना वक़्त की उन घड़ियों का है, जिनपर ध्यान नहीं दे रहा। उनका यहाँ का बना बनाया ढाँचा है, जो कहता है अब खाना खाना है, अब सोना है, अब पानी लाना है। अब थोड़ा छत पर घूमना है। अब फ़ोन पर बात करनी है।

दिल्ली में गरमी इतवार को थी, जब स्टेशन पर उतरे थे। अगले ही दिन बारिश हो गयी। अब इतनी नहीं लग रही। कमरे में आकर बैठे रहो। पंखा बंद रहता है। खिड़कियाँ शाम ढलने के बाद खुलती हैं। पता नहीं, कुछ है, जिसे समझ नहीं पा रहा। कुछ बड़ी-बड़ी बातें दिमाग में चल रही हैं, जिन्हें कहीं पहुँचा नहीं पा रहा। बस यही समझ आ रहा है, इस तरह कुछ नहीं होने वाला। थोड़ा अलग तरह से, उन सब पर नए सिरे से सोचना शुरू करना होगा। दो तीन बड़ी जगहें हैं, जहाँ लिखना है अभी। उसी के मारे मर रहा हूँ। कागज़ पर इस तरह लिखना कम हो जाएगा, कभी सोचता नहीं था। सोच तो पता नहीं और भी क्या-क्या रहा हूँ। फ़ेसबुक अकाउंट भी बंद कर देता हूँ। अच्छा रहेगा।

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