उसके पास कुछ नहीं था

उसके पास भाषा का जादू नहीं था। उसने कभी दूसरों के लिए कुछ भी नहीं लिखा। एक शब्द भी नहीं। जोभी कुछ निकलता उसमें दिल से निकली कालिख़ होती। कभी उनमें राल के थक्के होते। कभी धूल होती। एक बड़ी-सी मेज़ पर किताबों का ढ़ेर उसे ढ़के रहता। शब्द भी कितने कमज़ोर से होते। जैसे उन्हें भी खाना खाने की ज़रूरत होती। कमज़ोर भाषा में से वह कुछ शब्द निकालता। वह कभी समझ नहीं पाया भाषा कमज़ोर नहीं थी। उसकी भाषा कमज़ोर थी। वह इसी उलझन में रहता। कुछ नहीं कहता। जो नहीं कहता, उसे कुछ और शब्दों में कहना चाहता। यह चाहने की इच्छा हम सबमें भी हो सकती है। होती भी है। पर हम हीरे की अँगूठी नहीं ख़रीदते। जो कमज़ोर होते हैं, वह खरीदते हैं। उसने खरीद ली। जेब में रख ली। किसी को जैसे कुछ न बताया। ख़ुद को भी नहीं। बताना अब ज़रूरी नहीं था। इस जगह ने उसके शब्दों को मढ़ दिया। उसकी भाषा जिसे तब्दील नहीं कर सकती थी, उसे सुनार ने बदल दिया। यही जादू बस उसे नहीं आया। उसे लगने लगा यह जादू भी वह सीख कर रहेगा। सीखना मुश्किल था। ऐसा नहीं है उसने सीखने के लिए उसका शागिर्द बन गया। उसने सोचा जो उसे आता है, वह वही करेगा।

उसने अपने पसीने की कीमत तय की। अपने दिनों को रुपयों में तब्दील करने की इच्छा प्रकट होते ही वह बेगारी छोड़ गया। जब से वह गया, शब्दों से खाली हूँ। इंतज़ार कर रहा हूँ, लौट आये। कल पता चला, उसने वह नौकरी भी छोड़ दी। वह चला गया। अब उसे याद करता तो लगता, वह कहीं नहीं था। वह बस कुछ शब्दों का खेल था।

कभी-कभी हम ख़ुद को दूर से उसकी तरह देखते होंगे। कभी-कभी के ख़ुद के लिए उसके जैसे हो जाते होंगे।

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