पेज नंबर 38, नई डायरी

दरअसल यह सब झूठ है। यहाँ लिखा हुआ मेरे अंदर से नहीं, बाहर से थोपा हुआ लगता है। एकदम नकली सा। कितना उन्हीं बातों को दोहराता रहूँ। मन नहीं करता। बस मन खाली नहीं है इसलिए लिख जाता हूँ। वरना कुछ ख़ास बचा नहीं रह गया। पिछले पन्नों पर कुछ सिलवटें हैं। यहाँ उन्हीं को कहना नहीं चाहता। असल में यह किसी तरह कुछ टूटने से बचने की एक तरकीब होगी। बचे रहना इसी को कहते हैं। मैं भी बच रहा हूँ। उसी तरह पुराने ढर्रे पर नहीं जाना चाहता। डायरी भी कहीं पीछे छूटती लग रही है। कहीं लिखने की सघनता ताप में तब्दील नहीं हो पाती। बस, लगता है कहने के लिए कहे जा रहा हूँ। वरना उलझनें मन में पतंग के धागे की तरह हो गयी हैं। इतनी उलझी कि सुलझाने बैठो तो वक़्त की कितनी किश्तें उसमें ख़र्च हो जाएँ। यह सामना न करना छिप जाना है। आड़ से उस वक़्त को छिपकर बीत जाने का इंतज़ार करते रहना। जब तक वह चला न जाये, तब तक छिपे रहना। इसे ख़ुद को घसीटना भी कहते हैं। लिथरना भी इसी तरह होता होगा। मैं उस अखरोट की तरह हो जाता हूँ, जो अंदर से खोखला है। जिसमें कीड़े लग गए हैं।

कभी- कभी इन बिम्बों के अर्थ डराते हैं। इन्हें लिखकर जब दोबारा इन पर लौटता हूँ तो सहम जाता हूँ।

एक अच्छी खासी उमर अभी जीने के लिए बाकी है। जिंदगी के इस पड़ाव पर जब चीज़ें सबसे जादा व्यवस्थित होने के क़रीब हैं, सब अधीरता और आकुलता में बदलकर पिघल रहा है। उसका इस तरह हो जाना दुखद है। हम बैचैन होते रहते हैं। कमरे में अकेले दीमक की तरह पड़े रहना। छिपकली के जैसे दीवारों पर पतंगों के खेप का इंतज़ार करते रहना। जब किताबें जुगनुओं की तरह चमकती नहीं। दिल की तरह धड़कती नहीं। तब हम कुछ भी नहीं कर पाते। हो सकता है, एक दिन हम वहाँ खड़े होंगे, जहाँ यह जद्दोजहद ख़त्म हो जाएगी। तब कैसा लिख रहा होऊँगा(?) कह नहीं सकता। पर इस तरफ़ से ध्यान हटाने का एक मकसद अपने दिमाग को दूसरे आसमानों पर लाने की ज़िद रही होगी। जो अभी भी बची रह गयी है। तभी इस जगह सैंतीस पन्नों के बाद भी उन पुराने दिनों की तरह पिछले बयान दर्ज़ नहीं किये। दर्ज़ करना ज़रूरी भी नहीं। क्योंकि हलफ़नामे कभी-कभी झूठ भी होते हैं। सच की तरह।

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