इधर चार दिन..

मैं बहुत छोटी-छोटी चीज़ों में उलझा हुआ इंसान हूँ। इनसे निकलने की हैसियत होती तो इन्हें लिख नहीं रहा होता। अब तक निकल चुका होता। कहते वहीं हैं, जिनके पास कुछ कहने के लिए नहीं होता। मैं भी इन्हीं में से हूँ। हम जताते बहुत हैं पर हमारे पास होता कुछ नहीं है। न होना, टोह लेना है। दिल्ली लौटकर इसी काम में लग गया हूँ। इस शहर की नहीं अपनी तहों में लौटकर वापस आने तक इसी में लिपटे रहेंगे। शहर कहने को भीड़ होते हैं। असल में होते नहीं हैं। हमें भीड़ में शामिल होकर उसका हिस्सा बनना पड़ता है। जो नहीं बनता उसके लिए यहाँ कोई जगह नहीं। बस यह एक कमरा है।

कूलर के पानी में अजीब-सी गंध है। जैसे कई दिन हुए उस रुके हुए पानी में कोई उम्मीद रही होगी। उस घास में घूम आने की मर्ज़ी रही होगी। हमने मछलियाँ कभी नहीं पाली। पर लगता है, यह पानी उसकी याद में कहीं डूब गया है। सदियों पहले किन्हीं अनाम छोटी-छोटी मछलियों को अपने अन्दर समाये हुए यह किस बड़ी जल राशि का हिस्सा रहा होगा, आज अंदाजा लगाना भी संभव नहीं है। हम भी ऐसे ही बिलकुल ऐसे ही खो गए हैं। पानी की तरह अपने अनदेखे अतीत को फ़िर से छूने की ज़िद हमें इस तरह पानी बना रही है कि हमारे पसीने की गंध भी बिलकुल मछली की देह पर आने वाली स्वेद ग्रंथियों-सी हो गयी हैं। उनमें हममें सब एक सी। अभेद। 

हम उस खपरैल की अपने हिस्से की कहानियाँ जानते हैं। उसके पहले कितने किस्से कहानियाँ वहाँ छिपे रह गए हैं। वह मिट्टी की दिवार में लगने वाली मिट्टी किस नदी से किस तालाब से आई होगी? कौन होगा जिसने इस घर की कच्ची दीवारों को इतना मजबूत बनाया कि हमसे पुरानी होने के बावज़ूद वह आज भी कल जितनी नयी लगती हैं। यहीं इसी के नीचे, आँगन के पास छोटकी दादी हमारी दादी से कितना लड़ती रहीं। उमर होती है लड़ने वाली। जब हम किसी को कुछ नहीं समझ रहे होते हैं। बाबा ही तो ले आये थे, रिसिया से बुलाकर। साथ रहो। वहाँ क्यों अकेले बैठे हुए हो? उनका हमारे गाँव वाले घर आना त्रासदी की पहली किश्त थी, जब पूरब वाले खपरैल के पास से एक दिवार उठा दी गयी और घर बंट गया। मेरे मुंडन के बाद का कोई साल रहा होगा। या उससे भी पहले की कोई दुपहरी रही होगी। ठीक से सन् याद नहीं है। कुछ छवियाँ घूम जाती हैं। कभी-कभी।

पार साल सुरेस के दादा, हमारे मँझले बाबा भी चले गए। कितनी बार लिखूं। मेरी कमर में अभी भी उनकी बनायीं करधन बची रह गयी है। इस बार मन ही नहीं हुआ कहूँ किसी को। मुझे उनकी ही बनायीं करधन फ़िर चाहिए।

वह सब जो हमारे बचपन में जवान थे। सब उदास से हैं। जिनके पास शक्ति थी, उन सबकी देह ढल रही है। उस अनुपात में हम कितने मजबूत हैं, इसे थोड़ी देर के लिए किनारे भी रख दें। तो कोई फ़रक नहीं पड़ जायेगा। पर सब हमारे सामने पिछली बार से थोड़े और बूढ़े दिखने लगे हैं। बड़की अम्मा के सामने के दांत टूट गए हैं शायद। चेहरा भी थोड़ा ढल गया है। आँखें अन्दर धँस गयी हैं। सात बच्चों की दादी हैं। इनके अन्दर भी अब वही भाव घर कर गया है। अब लड़ाई-झगड़े का वक़्त चला गया। चाचा को पेचिस की शिकायत थी। डॉक्टर के यहाँ गए थे। दोनों चाचियों के बाल चाँदी से भर गए हैं। पर काले हैं। जो जवान हैं हमउम्र हैं, वह किसी भी तरह से अपनी जिंदगियों में थोड़ी फुरसत और आराम दोनों चाहते हैं। कई दिन हुए होंगे यह ख़याल उनके अन्दर घर कर गया होगा। अच्छा है, यह बात वहाँ नज़र आने लगी है। एक दिन आयेगा, जब हमारे घर में इस सवाल को लेकर कई जवाब ढूंढें जा रहे होंगे। इच्छाएँ हमें पहले सवालों फ़िर जवाबों की तरफ़ धकेलने में कामयाब नहीं हो पाती हैं, तब हमें नए सिरे से सोचना होगा कि हम शायद बिन मेहनत वह सब चाहने लगे होंगे, जो आज हमारे पास नहीं है। 

लेकिन इन सब बातों का कोई मतलब भी है? या यह सब मेरे बेमतलब मन में ऐसे ही चलती रहेंगी? इनमें मेरी भूमिका क्या है? क्या मेरी अकेले की कोई भूमिका निर्धारित हो भी सकती है? मैं बस इस बंद पंखे को चलाकर इन चार दिनों में दिमाग दिल और न जाने शरीर के किन-किन हिस्सों में दौड़ते इन सभी सवालों के जवाबों पर पहुँचने की हड़बड़ाहट से घिर चुका हूँ। मेरी रग-रग में वहाँ से लौटने के बाद बहुत से खाली स्थान बन गए हैं। जहाँ खून दौड़ भी रहा है, तब भी वह जगहें सुन्न हैं। यह तय नहीं कर पा रहा हूँ, इन बीते दिनों को किस तरह से अपने दिल से उतार कर किसी कील, किसी खूंटी पट टांग दूँ? लिखने की तो खैर कुछ कह ही नहीं सकता। क्या होगा लिखकर?

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