यह बात

कमरे में रौशनी ज़रा कम है। एक ट्यूब खराब हो गयी है। मौसम बदल गया है। अँधेरा बाहर साफ़-साफ़ दिख रहा है। वह काला है। उसकी कालिमा में कुछ है, जो दिख नहीं रहा है। मुझे डुबो ले जा रहा है । मैं कई दिनों बाद जब यहाँ लौटा हूँ, तब सबसे पहले उन बातों को उतार देना चाहता हूँ, जो मेरे अंदर भर गयी हैं। वह कौन सी बातें हैं, जिन्हें कह दूँगा तो हल्का हो जाऊँगा? शायद बचपन की किसी स्मृति में हम इतवार गाँव वाले घर पर हैं। चार बजे दूरदर्शन पर पिक्चर आने वाली है। नाम कोई भी हो सकता है। शान, बंदिनी, सीता और गीता। या कुछ भी। एंटीना ठीक नहीं है। तभी टीवी स्क्रीन लहरा रही है। हम छत पर हैं, एंटीना ठीक कर रहे हैं। नीचे चाचा से बता रहे हैं। इधर इतना। थोड़ा उधर। हाँ हाँ, बस। अब ठीक है। यह दृश्य बिलकुल उल्टा भी हो सकता है। चाचा छत पर हों और हम सब नीचे टेलीविज़न को झिलमिलाते देख उन्हें कुछ कह रहे हैं। यह हमारे सबसे छोटे चाचा हैं। यही चाचा मेरे मन में कहीं अंदर धंस गए हैं। धीरे-धीरे चाचा हमसे दूर जा रहे हैं। डॉक्टर ने कैंसर बताया है। रिपोर्ट भी वही कह रही है। अभी पाँच तारीख को फ़िर लखनऊ जाना है। दिल्ली से उनकी रिपोर्ट लेकर। वह सीधे गाँव से किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज पहुँचेंगे। इसके बाद मुझे कुछ भी दिखाई नहीं देता। मैं वापस उन दिनों में लौट जाता हूँ, जहाँ वह हमारे पुराने वाले चाचा की तरह दिखाई देते हैं । वह वैसे ही तो दिखाई नहीं दे रहे हैं। उनका अपने में ढलते जाना, सूरज के ढलने जैसा बिलकुल नहीं है। क्योंकि वह एक बार ढलने के बाद सूरज की तरह अगली सुबह उस तरह फ़िर उग नहीं पाएंगे।

अभी उस दिन चाचा को दाढ़ी बनवाने जाना था। कहने लगे, कितनी दूर है? मैंने कहा, बस लाल बत्ती से थोड़ी आगे। केंद्रीय भंडार के पास ही एक लड़का बैठता है। वह अब थक जाते हैं। कहने लगे। मैं बस देखता रहा। वह सच में थक जाते हैं। करिहांव पिराय लगत हय। लौटते वक़्त ख़ुद ही बोलने लगे। पहले ऐसा नहीं था। हम भी खारी बावली, लाल किला से पैदल आ जाते थे। नहीं आते थे क्या? अब वह दिन उनकी कच्ची-पक्की यादों में रह गए होंगे। मैं भी उन्हीं दिनों में किसी दिन उनकी गोद में हूँ। पीछे कुतुब मीनार है। साथ में छोटे से चंद्रभान हैं। पता नहीं अब इन दिनों में वह क्या सोचते होंगे? उन्हें यह आभास होगा भी या नहीं कह नहीं सकता। थोड़ा-थोड़ा तो उन्हें भी लगता होगा। अब वक़्त ज़्यादा बचा नहीं है।

मुझे याद नहीं आ रहा कि यह बात पहले कह चुका हूँ या नही? हो सकता है, कहीं दिमाग में ही अटकी रह गयी होगी। हर परिवार के इतिहास में वह दौर आता है, जब उन्हें स्थायित्व का काल कहा जा सकता है। ऐसा नहीं होता कि उसमें मृत्यु की छाया नहीं होती। होती है। लेकिन वहाँ उत्सवों का अनुपात, उन दुख के दिनों से ज़्यादा होता है। शायद यह दौर हमारे बचपन में बीत गया। शादियाँ हो रही हैं, कभी किसी का मुंडन है, कोई बच्चा जन्म ले रहा है। सब तरफ़ एक ऊर्जा का संचार है। यह भी संभव है कि यह मन में गढ़ लिया गया कोई दृश्य हो। जिसे इस दुख के सामने बहुत बौना करके आज देख रहा हूँ। क्योंकि हममें भी वह उमंग क्रमशः कम होती जा रही है। कल्पनाओं में सपने हैं। वहीं ठोस खुरदरी जमीन भी है। वह उल्लास, स्वप्नलोक, किसी अदेखे भविष्य की यात्रा में हम उसी तरफ़ बढ़ रहे हैं, जहाँ हमें गंभीर हो जाना चाहिए।

गंभीर इस लिहाज़ से कि यह भूमिकाओं के हमारे हिस्से आ जाने का दौर भी है। जब वापस मैं दादी को याद करता भी नहीं हूँ वह तब भी याद आ जाती हैं। आजी के जाने के बाद थोड़ा सा वक़्त और वह हमारे साथ थीं कि एक साल आया वह भी चली गईं। एक झटके से यह खालीपन मेरे उस बाल मन में गहरे उतर गया। फ़िर तो जैसे क्या ही कहूँ? मामा, नाना, नानी सब एक-एक करके चले गए। इनके जाने से कुछ-कुछ हम भी इनके साथ जाते रहे। कुछ हम भी कम हो गए। इन तीन सालों में मँझले बाबा, छोटकी दादी भी चली गईं। बचपन जिन रेशों से बना, उनके उधड़ने का सिलसिला जारी है। यह थामें नहीं थम रहा। मृत्यु इसी तरह तोड़ती है। उसकी आहट में कहीं डरता नहीं, बस उसके बाद जो अवसाद हमें घेर लेगा, उससे हम किस तरह बच पाएंगे, यही सोच कर उदास हो आता हूँ। क्या हमारे पापा उनके सब भाई अपने अतीत में किसी दिन इसी तरह होते गए होंगे? सोच नहीं पाता। फ़िर दिख जाता है, एक-एक कर सबका दृश्य से ओझल होते जाना। यह डर का धीरे-धीरे अंदर उतरना है।

इन सब बातों में कई बातें अपने आप को दोहरा रही होंगी। क्या करूँ? वह मेरे मन के अंदर ऐसे ही घूम रही हैं। उन्हें कह देने के लिए ही तो लिखने बैठा हूँ। मैं अभी भी तक कई बातों से सीधे टकराने से बचता रहा हूँ। यह बात समझता हूँ। इस मृत्यु में जिस अनुपस्थिति का भाव है, वह एक व्यक्ति के जाने के बाद हमेशा बना रहेगा। यह स्थायी रूप से अनुपस्थित हो जाना ही मुझे सबसे ज़्यादा खटक रहा है। हमने चाचा को तसवीरों में अपने साथ रख लिया है। पर हमें तो अपने जीते जागते चाचा चाहिए। उनकी आवाज़ भी रिकॉर्डर में सुनने से कुछ खास नहीं होगा। जब मैं आँख उठाकर उस तरफ़ देखूंगा, वह नहीं होंगे। वह कहीं नहीं होंगे। यह डर ही मेरा स्थायी भाव बन गया है इधर। उनके इसी न होने से डरता हूँ।

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