मौसम

इकतीस अक्तूबर । वही मौसम आ गया, जिससे मुझे सबसे ज़्यादा कोफ़्त है । सूरज बादल और धुंध दोनों की मिली जुली चादर में छिपा सा है । यहाँ बैठा हूँ तब पैर एकदम ठंडे हो गए हैं । बाहर था, तब इनमें ठंडक नहीं थी । गमलों में पानी एक दिन छोड़ कर डालने से भी उसका पानी सूख नहीं रहा है । मिट्टी गीली ही रहती है । एक पल सोचता हूँ, कई सालों बाद कोई इन पंक्तियों को किस तरह पढ़ रहा होगा? उसे भी यह भाव इसी तरह महसूस हो रहे होंगे या वह इनके अलग ही अर्थों को अपने अंदर उतरते देने के अवकाश से भर जाएगा । यह एक रूटीन-सी पंक्तियाँ हैं, जो हर लेखक अपने अंदर कई बार दोहराता होगा। वह जिस भविष्य में इन्हें पढ़े जाने की कल्पना से भर गया है, वह उस भविष्य में ख़ुद को भी एक-दो बार रखकर ज़रूर देखता है । ख़ुद वह इससे गुज़रता हुआ कैसा होता जाएगा ? फ़िर यह दिन कमरे में सिमटे रहने के हैं, जहाँ इन दिनों बहुत अलग-अलग मिजाज़ की किताबों को पढ़ने की इच्छा को अपने अंदर रेखांकित कर रहा हूँ । मैंने मांडू नहीं देखा। कबाड़खाना। कुछ ग़मे-दौरां। जीवनपुरहाट जंक्शन। स्वदेश दीपक। ज्ञानरंजन। के. बिक्रम सिंह। अशोक भौमिक। सब मेरे अंदर गुज़र रहे हैं। इन्हें एक साथ पढ़ नहीं रहा । बस सामने रख कर देखता रहता हूँ ।

जब जिस तरफ़ खिंचा चला गया, उधर मुड़ जाता हूँ । यह चार किताबें चौराहे की तरह मेरे अंदर उग आई हैं । वैसे सच में मैंने कभी एक किताब को सलीके से कभी खत्म नहीं किया । जिस योजना की बात ऊपर कर आया हूँ, उससे तो कभी भी एक किताब भी खत्म नहीं होगी । यह सिर्फ़ ख़ुद को कहीं उलझाए रहने की कवायद है । जब भी पढ़ने के बारे में सोचता हूँ लिखने की बात पता नहीं कहाँ से आ जाती है । तब मौके-बेमौके बस तुम्हारे बारे में सोचने लगता हूँ । तुम कैसे लिख रही हो । इस दुनिया में रहते हुए भी अपने में समेटे हुए । एक वक़्त के बाद ख़ुद से कोफ़्त नहीं होती ? जब कोई कुछ पूछने लग जाये, तब सबसे ज़्यादा होने लगती है । मैं ख़ुद से पूछता रहता हूँ । इसलिए कभी कभी दिन सिर्फ़ टलते रहते हैं । लिखा कुछ नहीं जाता । बस ले देकर एक नया हैश टैग शुरू किया है, #शहरनामा । इस पर कुछ-कुछ लिख रहा हूँ ।

इतनी कम पंक्तियों में कह पाने का हुनर आते-आते आएगा । बस अभी तो यह ऐसा ही है । बेतरतीब । अभी सोचा है इसमें किस्से हज़ार होंगे । इसके बाद कहीं कोई मिले तब क़तरब्योत करके हरप्रिय को कहूँगा । कुछ स्केच बनाए , जिस पर उसका मन करे । किताब की शक्ल नहीं हैं । बस एक अधबना नक्शा है । इसके लिए एक नोटबुक बनाई है । कल की तारीख़ डाल कर पहली किश्त लिखी है । यह कागज पर पहली है । वैसे इसका नंबर ग्यारहवाँ हैं । दस मैं सीधे मोबाइल से वहाँ अपनी दीवार पर लगा चुका हूँ । उनमें कुछ-कुछ एडिट वहीं से होते रहे हैं । कभी यहाँ से ।

मेज़ पर देखता हूँ, किताबों का ढेर में पिछले साल अगस्त से शुरू की हुई डायरी रखी हुई है । उसके बारह दुनी चौबीस पन्ने बचे हैं । एक बार तो लगा, अब एक सिटिंग में सारे पन्ने भर दूँ और इसे भी उस शीशे वाली अलमारी में रख दूँ । पर हिम्मत नहीं हुई । जबसे यहाँ लिखना शुरू हुआ है, यह सबसे ज़्यादा वक़्त में ख़त्म होने वाली डायरी होगी । इधर आने की आवृत्ति जैसे-जैसे बढ़ रही है, वहाँ स्याही से लिखना उतना ही कम होता जा रहा है । यही एक किताब है, जो उन सब छपी हुई किताबों में मुझे इस एहसास से भर देती है कि उन सबमें मेरे हिस्से वाली जिल्द यही है ।

इस तरह, यह सर्दियों की मेरी तरफ़ से औपचारिक शुरुवात है । देखते हैं, इन दिनों की बेवफ़ाई में कितना लिख पाता हूँ ।

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