गंध

गंध मूलतः क्या है? यह अपने आप में एक मौलिक सवाल है। इसका उत्तर भी उतना ही मौलिक होने की अपेक्षा रखता है। हम कितना हो पाएंगे, कहा नहीं जा सकता। मैं इस पर बहुत जटिल तरीके से लिखना नहीं चाहता पर यह बात ही कुछ ऐसी है, चाहते न चाहते यह वहीं घूम जाती है। तब यह किसी को समझ नहीं आती। इस शुरूवात में ही हमें थोड़ा सा पीछे जाना होगा। इतना पीछे जहाँ स्त्री-पुरुष ख़ुद को नर और मादा के आदिम वर्गिकरण में स्थित पाते हैं। श्रम का विभाजन अभी हुआ नहीं है। धीरे-धीरे उसमें बारीक-सी रेखा बन रही है। हम कृषि के लिए जमीन के महत्व को समझ रहे हैं, जिसके फलस्वरूप कालांतर में स्थायित्व का भाव हमारे अंदर उगने लगेगा। तब यह स्थायित्व एक जगह लंबे समय तक रहकर परिवार और निजी संपत्ति का रूप लेने लगेगा। हम वापस अपने प्रश्न पर लौटते हैं। हमारे शरीर से किस तरह की गंध दूसरे व्यक्ति तक पहुँच रही होगी, जोकि क्रमशः नर और मादा हैं? वह इस गंध से हमारी तरफ़ आकर्षण महसूस करते होंगे? एक खास मिट्टी में काम करने के बाद हमारी त्वचा से एक गंध आ रही है। कोई शिकार करके लौटा है, तब उसका शरीर उस परिवेश को अपने अंदर समेटे हुए होगा। एक गंध सरसो की है। एक उस गेहूँ के बारीक पीसने के बाद पत्थरों के बीच रह गए आटे की होगी। यह सभी घटनाएँ कभी न कभी इतिहास में पहली बार घटित हुई होंगी और यह भी तय है कि उनका कालक्रम इस से बिलकुल भी मेल नहीं खाता होगा। मेल खाना कभी-कभी ज़रूरी भी नहीं होता।

फूलों का, ख़ास तरह की मिट्टियों, लेपों का वर्गीकरण इतिहास की लंबी अवधि में घटित होने वाली घटनाएँ होंगी। इत्र पहली बार किस व्यक्ति का बनाया हुआ आविष्कार होगा? उसने कई तरह के तेल उसने अपने पास इकट्ठा किए होंगे। उन्हें किसी ख़ास अनुपात में आपस में घोला होगा, तब कोई गंध बनी होगी। तब उसने इन गंधों को अपने पास संग्रहीत करने के लिए कौन सी विधियों का प्रयोग किया होगा? हम इस बातचीत में लगातार देख रहे हैं, हम अनेक तरह से ऐतिहासिक छलाँगें लगा रहे हैं। क्या हमें कोई बोध है, हम उन तारीखों को कितना आगे पीछे कर रहे हैं?

इत्र या गंधों का उत्पादन और उनका खरीदे बेचे जाने लायक माल के रूप में बन जाना भी एक विशिष्ट तरह की विलासिता का सूचक होगा। कौन सी गंध स्त्रैण है और किन गंधों में पौरुष महकता है, यह आज का सबसे बारीक सवाल है।  इन गंधों में कौन से जीवन मूल्य छिपे हुए हैं? यह बिलकुल अलहदा सवाल है। शायद यह पूछे जाने लायक भी कभी नहीं बन पाये। पर फ़िर भी इसे टटोलने की ज़रूरत तो है। कम से कम हम जिस दौर में रह रहे होते हैं, कुछ सवालों का निर्माण लगातार ख़ुद की जाँच के लिए करते रहने चाहिए। जिस तरह पूंजीवादी दौर हमें इन गंधों के सहारे एक-दूसरे का आखेट करने के औज़ारों से सम्पन्न कर रहा है, यह बिलकुल अलग परिदृश्य का निर्माण कर रहा है। इसमें हम सिर्फ़ और सिर्फ़ नर और मादा के आदिम युग विभाजन में दोबारा लौट जाते हैं। इस पीछे लौटे जाने में किसी तरह का नैतिक अवरोध काम नहीं कर रहा होता।

यह गंध हमें जिस तरह वर्गीकृत कर रही है, वहाँ हम उन गंधों से केवल दूसरे का साथ चाह रहे हैं। यह किसी भी ज़िम्मेवारी से मुक्त एक ऐसा व्यवहार है, जो पूंजीवाद का मूल है। वह चाहता ही नहीं कोई उन अंतरंग निकटताओं के बाद किसी तरह के वैचारिक संकट से घिर जाये। यह जो एक ख़ास गंध के सहारे एक-दूसरे का उपयोग कर लेना है, उसमें इस गंध की भूमिका सिर्फ़ इतनी है कि वह इस उपयोग कर लेने वाले भाव को किसी मूल्य में तब्दील होने से रोकती ही नहीं है बल्कि उसे कोई मूल्य बनने का कोई सूत्र पीछे नहीं छोड़ती है। यह वही मुनाफ़ाखोर कंपनियाँ हैं, जो इस ग्रह का दोहन कर रही हैं और उसकी किसी भी ज़िम्मेवारी को लेने से बचती हैं। आप थोड़ा थम कर समझिए। अगर समझना चाहते हैं।

जब हम अपने से बाहर किसी व्यक्ति को सिर्फ़ अपने लक्ष्य की तरह देखते हैं, तब उसका अस्तित्व हम मिटा रहे होते हैं। हम ख़ुद तो देह में बदल जाते हैं बल्कि दूसरे को भी सिर्फ़ देह की तरह देखते हैं। इस परिघटना में गंध के सहारे हमारा जो अवमूल्यन होता है, हम उसे देख ही नहीं पाते। इसका हमें न दिख पाना ही उसकी जीत है। फ़िर यह जो एक मासूम तर्क आजकल चल रहा है कि हम चाहते नहीं इन गंधों का इस्तेमाल करना पर हमें इन्हें इस्तेमाल करने के लिए मजबूर किया गया है। यह मजबूरी, एक ख़ास तबके में ख़ुद को रख लिए जाने लायक बनाने की शर्त है। क्योंकि आप जब इन गंधों के साथ नहीं आते, तब आपके शरीर से उठने वाले पसीने की स्वाभाविक गंध को वह बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। इस तरह आपको लगता है, हम सेंध लगाने में कामयाब हो गए। दरअसल, यह आपकी हार है। वह आपको अपने मुताबिक 'मैनेज' करने में सफल हो गए हैं।

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