सुनना

यह भी एक गुण है। गुण से भी पहले एक इच्छा है। यह प्रक्रिया कैसे संभव होती है? हम आपस में बात करते हुए अक्सर ऐसा करते होंगे। कोई ऐसा भी होगा, जिसे किसी बात को सुनने का मन नहीं करता होगा? यह मनमौजी होने से ज़्यादा असंवेदनशील हो जाना है। हम सुनेंगे, तभी जान पाएंगे, जो हमारे सामने है, वह हमें कुछ कहना चाहता है। वह क्या कह रहा है? जब हम अनुपस्थित होते हैं, तब भी सुने जाने की इच्छा से भर जाते हैं। सुनने की इस पूरी प्रक्रिया में एक पदानुक्रम है। कोई है, जिसे हम अपनी बात सुनाना चाहते हैं। यह सामंती विचार की तरह है। जंतर मंतर भी एक ऐसी ही व्यवस्था है। अब हमारे अधिनायक सुनना नहीं चाहते। वह हमारी दादी होते जा रहे हैं। पापा की मौसी हमारी दादी लगीं। जैसे हमारे द्वारा न चुने गए नेता हमारे नेता लगे। जब वह कहती हैं, तब कहती ही जाती हैं। सुनती नहीं हैं। सुनना चाहें, तब भी सुन नहीं पाएँगी। उनके कान अब सुनने लायक नहीं रहे। बुढ़ापा इतना है कि अब कान साथ नहीं देते। जंतर मंतर भी कान हैं। वह सत्ता की आबोहवा खराब कर रहे हैं। इसे हवा खराब कर रहे हैं भी पढ़ा जा सकता है। वह सब जो शीर्ष पर बैठे हैं, उनका बहुत ध्यान रखा जा रहा है। जो ऊँचाई पर बैठे हैं, उनके कान भी उतनी ऊँचाई पर होंगे। जैसे खजूर के पेड़ की परछाईं इतने ऊपर से आकर धरती पर पड़ने से पहले ही गायब हो जाती होगी। बिलकुल वैसे ही, नीचे से गयी आवाज़, वहाँ पहुँचने से पहले ही हवा में घुल जाती है। घुलने का मतलब सुन लेना नहीं है। उसे अनसुना कर देना है। 

अनसुना कर देने के लाभ अधिक हैं। तभी लोग सड़क पर चलते हुए कितनी सारी बातों, आवाज़ों को शोर मानकर सुनने की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते। लेकिन इसके खतरे भी हैं। जब दूसरा भी हमारी उन ज़रूरी आवाज़ों को गैर ज़रूरी मानकर अनसुना करने लग जाता है, तब हमें यह बात चुभ जाती है। चुभ जाने से हमारी त्वचा और मस्तिष्क की संवेदी प्रक्रियाओं का तो ठीक-ठीक पता चलता है पर बहुत सी ज़रूरतें इस सुने जाने पर ही निर्भर हैं। ज़रा सोचिए, एक बूढ़ी औरत, अपने बूढ़े होते अधेड़ बेटे की दूसरी लायी औरत से कुछ खाने को माँग रही है और सुन नहीं पा रही, वह क्या कह रही है। तब क्या होता है? बस इतना ही कि वह अधेड़ होता बेटा, जिसे उसी एक कोठरी में उस जवान नयी लायी औरत के साथ रात होने पर संभोग करना है, वह अपनी इस बूढ़ी अम्मा के कान पर ज़ोरदार थप्पड़ मार देता है। वह सुन नहीं रही के खाना खाने के बाद वह अधेड़, उसे कोठरी से बाहर चले जाने के लिए कह रहा है। यह एक स्त्री के दूसरी स्त्री के दुश्मन होने से अधिक कुछ और बात है, जिसे हम सुन नहीं पा रहे हैं।

फ़िर इस रूपक में ऐसा कुछ नहीं है, जिसे आप अपनी रचनात्मक मेधा का प्रयोग करने के बाद बहुत सारी स्थितियों की तह में न पहुँच पाएँ। नहीं भी पहुँचेंगे, तब एक सुरंग में तो ज़रूर गुम हो जाने तक भटकेंगे। मैं यह भी नहीं कहना चाहता, अगर यह थोड़ा अश्लील लग रहा है, तब क्या किया जा सकता है? यह वक़्त इससे कम अश्लील नहीं हैं। अतीत में कहा गया, समय जैसा हो, उसे वैसा ही कहा जाये। यह कहना ही हमारा सुनना है।

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