कल में न लौट पाना

बीती रात लिखते हुए यही बात समझ आई। कल में न लौट पाना हमारे जीवन की धुरी है। हम इसी अक्ष पर अपने हर दिन को रचते हैं। इस सत्य को जानते हुए हम सब कल में रुके रहने की हिम्मत से भर जाते हैं। यह कल हमारी स्मृतियाँ बनता है। सब अपना भविष्य देखने की कल्पनाओं से भर जाते हैं। मेरे अंदर ऐसी कोई इच्छा नहीं है। ऐसा नहीं है, मैं अतीत में रुका हुआ हूँ और जो हस्तरेखा विशेषज्ञों से अपना भविष्य पढ़वा रहे हैं, वह बहुत ही प्रगतिशील मूल्यों से भरे हुए हैं। कतई नहीं। इन दोनों बातों में सिर्फ़ यही दोनों संबंध नहीं हैं। इस पर कई और कोणों से बात की जा सकती है। शायद आपने ख़ुद पिछले हफ्ते से इसमें से एक तरह के बिन्दुओं को उठाते हुए कई रेखांकित करने योग्य तथ्यों को पाया होगा। मेरी बात सेमर के पेड़ की रुई के फ़ाहे जितनी हल्की लग सकती है। लगने में क्या है। वह झूठ की तरह पारदर्शी बनी रहे। जैसे मन कहीं पीछे रुककर उन सारी स्मृतियों को लिख लेने की इच्छा से भर गया हो। एक एक बात को इस तरह से कहना चाहता हूँ, जैसे वह तब हमारे सामने बीत रही थी। उस लिखे हुए में वह एक पल, आज के एक पल जितना स्थान लेते हुए आगे बढ़ें। उन संवादों को अपने अंदर दोहराते हुए वहीं वाक्य संरचना निर्मित होती जाये। 

इस प्रक्रिया में बस एक दिक्कत है। जैसा मैं अपने भीतर उन दृश्यों, भावों, क्षणों, व्यक्तियों, घटनाओं, स्थानों को रच रहा होऊंगा, उन्हें सिर्फ़ मैंने देखा है। यह एकल कल्पना जैसा लगता वक्तव्य इसकी सबसे बड़ी सीमा है और उसकी यह प्रकृति मेरे लिए सबसे बड़े लाभ की स्थिति है। किसी को नहीं पता होगा, वह हुबहू कैसी घटित हुई होंगी। यह सरासर मेरे ऊपर है, कैसे उन बिंबों को सबके सामने लाना है। कहाँ कितना बता दिया, कहाँ कितना घटा दिया है, किसी को भनक तक नहीं लगेगी। यह उस अतीत के समानान्तर, एक दूसरी दुनिया खड़ी करने जैसा है। फ़िर भी इसे कल्पना कहने की इच्छा से भर गए मूर्ख इसे कल्पना ही कहेंगे। ऐसी कोई बात या घटना, जो सुदूर अतीत में बीत गयी है, वह हमारा निजी संग्रह है। हम जो बीत गया है, कितनी ही बार, उसकी पुनर्रचना करते हैं। इसे सावधानी से पढ़ने और अपने आस पास देखने की ज़रूरत है। कोई हमारी एवज़ में ऐसा न कर रहा हो। कोई दूसरा क्यों यह काम हमारे लिए करना चाहता है, इसके लिए सचेत रहें। ऐसा करते हुए वह हमें विस्थापित कर रहा है।

ख़ैर, हम शुरू हुए थे, कहीं से लौटकर वहाँ वापस न लौट पाने की अपनी ऐंद्रिक सीमा को पहचानने की ज़िरह को अपने भीतर देख पाने के बाद पैदा हुए भाव की जुगुप्सा को चिन्हित करते हुए। यही एक बिन्दु है, जो इस कदर उलझ गया है, जिसमें गाँव का घर बार-बार पुराने दिनों के साथ दिख जाता है। वह दिन साबुत नहीं बचे हैं। जैसे चाची और अम्मा हमारे यहाँ लौटने वाले दिन, गले लग लगकर उस छूट रहे पल को अपनी स्मृति में कहीं स्थित कर रही होती थीं, वही काम इधर मैं कर रहा हूँ। यह जिस तरह छूटकर भी नहीं छूटना है, यही सबसे मर्मांतक विरेचन का प्रारम्भ हैं। ऐसा लग रहा है, जैसे इतना होने पर भी इनसे बचने की किसी फ़िराक़ में नहीं फंसना चाहता। छूटना ऐसा ही है। जहां लगता है, चाहकर भी कुछ नहीं हो पाएगा।

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