आत्मपरकता

इन दिनों बस यही हो रहा है। अपने में खोये खोये से रहो। कोई काम मत करो। सिर्फ़ उनके अपने आप हो जाने का इंतज़ार करो। मौसम और दुपहरों का गरम हो जाना कहाँ तक वजह हैं, नहीं जानता। बस यह बात समझ आई है, इसमें कई सारी चीज़ें छूट रही हैं। उनमें काम तो ख़ैर क्या ही होता, उनका बीत जाना सही लगता रहा। डायरी लिखना पिछले दिनों लगातार कम हो गया है। दरअसल इस मेज़ पर आकर बैठने और उन भावों को लिख न पाने की इच्छा का न होने से ऐसा है या अपने अंदर पेड़ से उतरता हुआ आलस घुस जाने से ऐसा हो रहा हो, कुछ तय नहीं कर पा रहा। पर नहीं। इन दिनों लगातार कई-कई फ़ोन मुझे उनके होते समय ध्यान नहीं रहते। ध्यान नहीं रहते का मतलब यह नहीं है, उन्हें सुन नहीं पा रहा। नहीं। उस दूसरे फ़ोन में लगे सिम पर आते कॉल लगता ही नहीं है, मेरे लिए आ रहे हैं। हर शाम लेटने से पहले स्क्रीन पर नज़र जाती है। किसी का फ़ोन आया था। कोई मेसेज़ कर रहा है। उनके वहाँ होने से कोई फ़र्क न पड़ना, किस तरह से कहा जा सकता है। क्या यह यही है, जिसे कहना चाहता हूँ। मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता? शायद यह चयन हो सकता है। जिसे शीर्षक में 'आत्मपरकता' कह आया हूँ। यह एक किस्म की चालाकी है। क्या इसे मेरी साफ़गोई नहीं समझा जा सकता। कोई कुछ भी समझें इसके पीछे का कारण में बहुत सारी चीज़ें तैर रही हैं। क्षणभंगुरता, अतिरेक, भावुकता, स्वभाव और पता नहीं किन-किन शब्दों से इसकी कई सारी व्याख्यायें की जा सकती हैं। समानुपात में इन्हीं शब्दों से इसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती।

उन पलों में मेरे अंदर किस कारण से ऐसे भाव आ रहे हैं, उनका कोई तयशुदा नक्शा नहीं है। अक्सर उनींदे किसी से बात नहीं करता। सिराहने फ़ोन पड़ा रहता है। घंटी पहले तो सुनाई नहीं देती। या फ़िर जब सुनाई देती है, टाल जाता हूँ। यह सही शब्द है। टाल जाना। शायद हम उन्हें अक्सर टाल जाना चाहते होंगे, जो हमारी तरह कमज़ोर, असहाय महसूस करते हैं या जिनसे मिलकर बात कर किसी भी तरह की ऊर्जा का विस्तार नहीं मिलता होगा। यह उस साझा अतीत का विश्लेषण भी है, जब वह साथ थे और यह विकट परिस्थितियाँ प्रकट नहीं हुई थीं। इनमें कुछ ख़ास स्थिति नहीं है। दोनों अभी तक सामाजिक अर्थों में असफल हैं और एक दूसरे को बेल की तरह लिपटकर दूर ऊपर तक का सफ़र तय करना चाहते हैं। इसमें कई सारी बातें आने के बावजूद यह बात नहीं आई, हम कभी कभी कुछ सफ़र अकेले भी तय कर लेना चाहते हैं। यह कुछ मिनटों से लेकर एक दिन तय कर लेने जितने छोटे भी हो सकते हैं। ऐसा नहीं है, उनका अनुपात सालों तक फैला हो सकता, बिलकुल हो सकता है। मेरे संदर्भ में यह टालने की क्रिया, उन विशेष क्षणों में कुछ देर अकेले बैठे रहने जितनी महत्वपूर्ण लगती है। फ़िर ऊपर लिखे सारे अर्थ इस अनुच्छेद के आगे फ़ीके पड़ गए हों जैसे, यह कहने की ज़रूरत नहीं है। यह सिर्फ़ उसके लिए कह दिया है, जब वह पढ़े, थोड़ा मुझे समझ भी सके। न समझे, तब भी कोई बात नहीं।

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